वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ३९

बालकाण्ड सर्ग- ३९

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बालकाण्ड सर्ग- ३९

॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ श्री कमलापति नम: ॥
॥ श्री जानकीवल्लभो विजयते ॥
॥ श्री वाल्मीकि रामायण ॥
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बालकाण्ड सर्ग- ३९
बालकाण्ड सर्ग- ३९

वाल्मीकि रामायण
(भावार्थ सहित)
सब एक ही स्थान पर

बालकाण्ड सर्ग- ३९

बालकाण्ड सर्ग- ३९

बालकाण्डम्
एकोनचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 39)

( इन्द्र के द्वारा राजा सगर के यज्ञ सम्बन्धी अश्व का अपहरण, सगरपुत्रों द्वारा सारी पृथ्वी का भेदन )

श्लोक:
विश्वामित्रवचः श्रुत्वा कथान्ते रघुनन्दनः।
उवाच परमप्रीतो मुनिं दीप्तमिवानलम्॥१॥

भावार्थ :-
विश्वामित्रजी की कही हुई कथा सुनकर श्रीरामचन्द्र जी बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कथा के अन्त में अग्नितुल्य तेजस्वी विश्वामित्र मुनि से कहा–॥१॥

श्लोक:
श्रोतुमिच्छामि भद्रं ते विस्तरेण कथामिमाम्।
पूर्वजो मे कथं ब्रह्मन् यज्ञं वै समुपाहरत्॥२॥

भावार्थ :-
‘ब्रह्मन्! आपका कल्याण हो मैं इस कथा को विस्तार के साथ सुनना चाहता हूँ। मेरे पूर्वज महाराज सगर ने किस प्रकार यज्ञ किया था?’॥२॥

श्लोक:
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा कौतूहलसमन्वितः।
विश्वामित्रस्तु काकुत्स्थमुवाच प्रहसन्निव॥३॥

भावार्थ :-
उनकी वह बात सुनकर विश्वामित्रजी को बड़ा कौतूहल हुआ। वे यह सोचकर कि मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ, उसी के लिये ये प्रश्न कर रहे हैं, जोर-जोर से हँस पड़े। हँसते हुए-से ही उन्होंने श्रीराम से कहा-॥३॥

श्लोक:
श्रूयतां विस्तरो राम सगरस्य महात्मनः।
शंकरश्वशुरो नाम्ना हिमवानिति विश्रुतः॥४॥
विन्ध्यपर्वतमासाद्य निरीक्षेते परस्परम्।
तयोर्मध्ये समभवद् यज्ञः स पुरुषोत्तम॥५॥

भावार्थ :-
‘राम! तुम महात्मा सगर के यज्ञ का विस्तारपूर्वक वर्णन सुनो। पुरुषोत्तम! शङ्करजी के श्वशुर हिमवान् नाम से विख्यात पर्वत विन्ध्याचल तक पहुँचकर तथा विन्ध्यपर्वत हिमवान् तक पहुँचकर दोनों एक दूसरेको देखते हैं (इन दोनों के बीच में दूसरा कोई ऐसा ऊँचा पर्वत नहीं है, जो दोनों के पारस्परिक दर्शन में बाधा उपस्थित कर सके)। इन्हीं दोनों पर्वतों के बीच आर्यावर्त की पुण्यभूमि में उस यज्ञ का अनुष्ठान हुआ था॥४-५॥

श्लोक:
स हि देशो नरव्याघ्र प्रशस्तो यज्ञकर्मणि।
तस्याश्वचयाँ काकुत्स्थ दृढधन्वा महारथः॥६॥
अंशुमानकरोत् तात सगरस्य मते स्थितः।

भावार्थ :-
‘पुरुषसिंह! वही देश यज्ञ करनेके लिये उत्तम माना गया है। तात ककुत्स्थनन्दन! राजा सगरकी आज्ञासे यज्ञिय अश्वकी रक्षाका भार सुदृढ़ धनुर्धर महारथी अंशुमान् ने स्वीकार किया था॥६ १/२॥

श्लोक:
तस्य पर्वणि तं यज्ञं यजमानस्य वासवः॥७॥
राक्षसी तनुमास्थाय यज्ञियाश्वमपाहरत्।

भावार्थ :-
‘परंतु पर्व के दिन यज्ञ में लगे हुए राजा सगर के यज्ञ सम्बन्धी घोड़े को इन्द्र ने राक्षस का रूप धारण करके चुरा लिया॥७ १/२॥

श्लोक:
ह्रियमाणे तु काकुत्स्थ तस्मिन्नश्वे महात्मनः॥८॥
उपाध्यायगणाः सर्वे यजमानमथाब्रुवन्।
अयं पर्वणि वेगेन यज्ञियाश्वोऽपनीयते॥९॥
हर्तारं जहि काकुत्स्थ हयश्चैवोपनीयताम्।
यज्ञच्छिद्रं भवत्येतत् सर्वेषामशिवाय नः॥१०॥
तत् तथा क्रियतां राजन् यज्ञोऽच्छिद्रः कृतो भवेत्

भावार्थ :-
‘काकुत्स्थ! महामना सग रके उस अश्व का अपहरण होते समय समस्त ऋत्विजों ने यजमान सगर से कहा- ’ककुत्स्थनन्दन! आज पर् वके दिन कोई इस यज्ञ सम्बन्धी अश्व को चुराकर बड़े वेग से लिये जा रहा है। आप चोर को मारिये और घोड़ा वापस लाइये, नहीं तो यज्ञ में विघ्न पड़ जायगा और वह हम सब लोगों के लिये अमंगल का कारण होगा। राजन्! आप ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे यह यज्ञ बिना किसी विघ्न-बाधा के परिपूर्ण हो’॥८-१० १/२॥

श्लोक:
सोपाध्यायवचः श्रुत्वा तस्मिन् सदसि पार्थिवः॥११॥
षष्टिं पुत्रसहस्राणि वाक्यमेतदुवाच ह।
गतिं पुत्रा न पश्यामि रक्षसां पुरुषर्षभाः॥१२॥
मन्त्रपूतैर्महाभागैरास्थितो हि महाक्रतुः।

भावार्थ :-
‘उस यज्ञ-सभा में बैठे हुए राजा सगर ने उपाध्यायों की बात सुनकर अपने साठ हजार पुत्रों से कहा- ’पुरुषप्रवर पुत्रो! यह महान् यज्ञ वेदमन्त्रों से पवित्र अन्तःकरण वाले महाभाग महात्माओं द्वारा सम्पादित हो रहा है; अतः यहाँ राक्षसों की पहुँच हो,ऐसा मुझे नहीं दिखायी देता (अतः यह अश्व चुरानेवाला कोई देवकोटि का पुरुष होगा)॥११-१२ १/२॥

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श्लोक:
तद् गच्छथ विचिन्वध्वं पुत्रका भद्रमस्तु वः॥१३॥
समुद्रमालिनी सर्वां पृथिवीमनुगच्छथ।
एकैकं योजनं पुत्रा विस्तारमभिगच्छत॥१४॥
यावत् तुरगसंदर्शस्तावत् खनत मेदिनीम्।
तमेव हयहर्तारं मार्गमाणा ममाज्ञया॥१५॥

भावार्थ :-
‘अतः पुत्रो! तुम लोग जाओ, घोड़े की खोज करो तुम्हारा कल्याण हो समुद्रसे घिरी हुई इस सारी पृथ्वी को छान डालो। एक-एक योजन विस्तृत भूमि को बाँटकर उसका चप्पा-चप्पा देख डालो। जब तक घोड़े का पता न लग जाय, तब तक मेरी आज्ञा से इस पृथ्वी को खोदते रहो। इस खोदने का एक ही लक्ष्य है- उस अश्व के चोर को ढूँढ़ निकालना॥१३–१५॥

श्लोक:
दीक्षितः पौत्रसहितः सोपाध्यायगणस्त्वहम्।
इह स्थास्यामि भद्रं वो यावत् तुरगदर्शनम्॥१६॥

भावार्थ :-
‘मैं यज्ञ की दीक्षा ले चुका हूँ, अतः स्वयं उसे ढूँढ़ने के लिये नहीं जा सकता; इसलिये जब तक उस” अश्व का दर्शन न हो, तब तक मैं उपाध्यायों और पौत्र अंशुमान् के साथ यहीं रहूँगा’॥१६॥

श्लोक:
ते सर्वे हृष्टमनसो राजपुत्रा महाबलाः।
जग्मुर्महीतलं राम पितुर्वचनयन्त्रिताः॥१७॥

भावार्थ :-
‘श्रीराम! पिता के आदेशरूपी बन्धन से बँधकर वे सभी महाबली राजकुमार मन-ही-मन हर्ष का अनुभव करते हुए भूतलपर विचरने लगे॥१७॥

श्लोक:
गत्वा तु पृथिवीं सर्वामदृष्ट्वा तं महाबलाः।
योजनायामविस्तारमेकैको धरणीतलम्।
बिभिदुः पुरुषव्याघ्रा वज्रस्पर्शसमैर्भुजैः॥१८॥

भावार्थ :-
‘सारी पृथ्वी का चक्कर लगाने के बाद भी उस अश्व को न देखकर उन महाबली पुरुषसिंह राजपुत्रों ने प्रत्येक के हिस्से में एक-एक योजन भूमि का बँटवारा करके अपनी भुजाओं द्वारा उसे खोदना आरम्भ किया। उनकी उन भुजाओं का स्पर्श वज्र के स्पर्श की भाँति दुस्सह था॥१८॥

श्लोक:
शूलैरशनिकल्पैश्च हलैश्चापि सुदारुणैः।
भिद्यमाना वसुमती ननाद रघुनन्दन॥१९॥

भावार्थ :-
‘रघुनन्दन! उस समय वज्रतुल्य शूलों और अत्यन्त दारुण हलों द्वारा सब ओर से विदीर्ण की जाती हुई वसुधा आर्तनाद करने लगी॥१९॥

श्लोक:
नागानां वध्यमानानामसुराणां च राघव।
राक्षसानां दुराधर्षं सत्त्वानां निनदोऽभवत्॥२०॥

भावार्थ :-
‘रघुवीर! उन राजकुमारोंद्वारा मारे जाते हुए नागों, असुरों, राक्षसों तथा दूसरे-दूसरे प्राणियोंका भयंकर आर्तनाद गूंजने लगा॥२०॥

श्लोक:
योजनानां सहस्राणि षष्टिं तु रघुनन्दन।
बिभिदुर्धरणी राम रसातलमनुत्तमम्॥२१॥

भावार्थ :-
‘रघुकुल को आनन्दित करने वाले श्रीराम! उन्होंने साठ हजार योजन की भूमि खोद डाली मानो वे सर्वोत्तम रसातल का अनुसंधान कर रहे हों॥२१॥

श्लोक:
एवं पर्वतसम्बाधं जम्बूद्वीपं नृपात्मजाः।
खनन्तो नृपशार्दूल सर्वतः परिचक्रमुः॥२२॥

भावार्थ :-
‘नृपश्रेष्ठ राम! इस प्रकार पर्वतों से युक्त जम्बूद्वीप की भूमि खोदते हुए वे राजकुमार सब ओर चक्कर लगाने लगे॥२२॥

श्लोक:
ततो देवाः सगन्धर्वाः सासुराः सहपन्नगाः।
सम्भ्रान्तमनसः सर्वे पितामहमुपागमन्॥२३॥

‘इसी समय गन्धों, असुरों और नागोंसहित सम्पूर्ण देवता मन-ही-मन घबरा उठे और ब्रह्माजीके पास गये॥२३॥

श्लोक:
ते प्रसाद्य महात्मानं विषण्णवदनास्तदा।
ऊचुः परमसंत्रस्ताः पितामहमिदं वचः॥२४॥

भावार्थ :-
‘उनके मुख पर विषाद छा रहा था। वे भय से अत्यन्त संत्रस्त हो गये थे। उन्होंने महात्मा ब्रह्माजी को प्रसन्न करके इस प्रकार कहा-॥२४॥

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श्लोक:
भगवन् पृथिवी सर्वा खन्यते सगरात्मजैः।
बहवश्च महात्मानो वध्यन्ते जलचारिणः॥ २५॥

भावार्थ :-
‘भगवन्! सगर के पुत्र इस सारी पृथ्वी को खोदे डालते हैं और बहुत-से महात्माओं तथा जलचारी जीवों का वध कर रहे हैं॥२५॥

श्लोक:
अयं यज्ञहरोऽस्माकमनेनाश्वोऽपनीयते।
इति ते सर्वभूतानि हिंसन्ति सगरात्मजाः॥२६॥

भावार्थ :-
‘यह हमारे यज्ञ में विघ्न डालने वाला है। यह हमारा अश्व चुराकर ले जाता है’ ऐसा कहकर वे सगर के पुत्र समस्त प्राणियों की हिंसा कर रहे हैं’॥२६॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे एकोनचत्वारिंशः सर्गः॥३९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में उनतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥३९॥

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