वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ४४

बालकाण्ड सर्ग- ४४

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बालकाण्ड सर्ग- ४४

॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ श्री कमलापति नम: ॥
॥ श्री जानकीवल्लभो विजयते ॥
॥ श्री वाल्मीकि रामायण ॥
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बालकाण्ड सर्ग- ४४
बालकाण्ड सर्ग- ४४

वाल्मीकि रामायण
(भावार्थ सहित)
सब एक ही स्थान पर

बालकाण्ड सर्ग- ४४

बालकाण्ड सर्ग- ४४

बालकाण्डम्
चतुश्चत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 44)

( ब्रह्माजी का भगीरथ को पितरों के तर्पण की आज्ञा देना, गंगावतरण के उपाख्यान की महिमा )

श्लोक:
स गत्वा सागरं राजा गंगयानुगतस्तदा।
प्रविवेश तलं भूमेर्यत्र ते भस्मसात्कृताः॥१॥
भस्मन्यथाप्लुते राम गंगायाः सलिलेन वै।
सर्वलोकप्रभुर्ब्रह्मा राजानमिदमब्रवीत्॥२॥

भावार्थ :-
श्रीराम! इस प्रकार गंगाजी को साथ लिये राजा भगीरथ ने समुद्र तक जाकर रसातल में, जहाँ उनके पूर्वज भस्म हुए थे, प्रवेश किया वह भस्मराशि जब गंगाजी के जलसे आप्लावित हो गयी, तब सम्पूर्ण लोकों के स्वामी भगवान् ब्रह्मा ने वहाँ पधार कर राजा से इस प्रकार कहा-॥१-२॥

श्लोक:
तारिता नरशार्दूल दिवं याताश्च देववत्।
षष्टिः पुत्रसहस्राणि सगरस्य महात्मनः॥३॥

भावार्थ :-
‘नरश्रेष्ठ! महात्मा राजा सगर के साठ हजार पुत्रों का तुमने उद्धार कर दिया। अब वे देवताओं की भाँति स्वर्गलोक में जा पहुँचे॥३॥

श्लोक:
सागरस्य जलं लोके यावत्स्थास्यति पार्थिव।
सगरस्यात्मजाः सर्वे दिवि स्थास्यन्ति देववत्॥४॥

भावार्थ :-
‘भूपाल! इस संसा रमें जब तक सागर का जल मौजूद रहेगा; तब तक सगर के सभी पुत्र देवताओं की भाँति स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित रहेंगे॥४॥

श्लोक:
इयं च दुहिता ज्येष्ठा तव गंगा भविष्यति।
त्वत्कृतेन च नाम्नाथ लोके स्थास्यति विश्रुता॥५॥

भावार्थ :-
‘ये गंगा तुम्हारी भी ज्येष्ठ पुत्री होकर रहेंगी और तुम्हारे नाम पर रखे हुए भागीरथी नाम से इस जगत् में विख्यात होंगी॥५॥

श्लोक:
गंगा त्रिपथगा नाम दिव्या भागीरथीति च।
त्रीन् पथो भावयन्तीति तस्मात् त्रिपथगा स्मृता॥६॥

भावार्थ :-
दिव्य गंगा को त्रिपथगा के साथ-साथ भागीरथी भी कहा जाएगा। चूँकि वह तीनों लोकों (स्वर्ग, पृथ्वी और निचली दुनिया: पाताल) में बहती है, इसलिए उसे त्रिपथगा नाम से जाना जाएगा॥६॥

श्लोक:
पितामहानां सर्वेषां त्वमत्र मनुजाधिप।
कुरुष्व सलिलं राजन् प्रतिज्ञामपवर्जय॥७॥

भावार्थ :-
हे मनुष्यों के देव, हे राजा, आप यहां अपने सभी पूर्वजों को गंगा जल अर्पित कर सकते हैं और इस प्रकार अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर सकते हैं॥७॥

श्लोक:
पूर्वकेण हि ते राजंस्तेनातियशसा तदा।
धर्मिणां प्रवरेणापि नैष प्राप्तो मनोरथ:॥८॥

भावार्थ :-
हे राजन, आपके अत्यंत प्रसिद्ध पूर्वजों, धर्मियों में अग्रणी (यहां तक ​​कि सगर) की भी यह इच्छा पूरी नहीं हुई है॥८॥

श्लोक:
तथैवांशुमता तात लोकेऽप्रतिमतेजसा।
गङ्गां प्रार्थयतानेतुं प्रतिज्ञा नापवर्जिता॥९॥

भावार्थ :-
हे बालक, इसी प्रकार यद्यपि अंशुमान के पास इस संसार में अद्वितीय पराक्रम था, फिर भी उसने गंगा से प्रार्थना की, लेकिन उसकी प्रतिज्ञा पूरी नहीं हो सकी॥९॥

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श्लोक:
राजर्षिणा गुणवता महर्षिसमतेजसा।
मत्तुल्यतपसा चैव क्षत्रधर्मस्थितेन च॥१०॥

भावार्थ :-
जिनके पास राजर्षि का गुण था, जो वैभव में महर्षि के समान थे, और क्षत्रिय के कर्तव्यों में स्थापित एक राज ऋषि थे॥१०॥

श्लोक:
दिलीपेन महाभाग तव पित्रातितेजसा।
पुनर्न शकिता नेतुं गंगां प्रार्थयतानघ॥११॥

भावार्थ :-
‘निष्पाप महाभाग! तुम्हारे अत्यन्त तेजस्वी पिता दिलीप भी गंगाको यहाँ लानेकी इच्छा करके भी इस कार्यमें सफल न हो सके॥११॥

श्लोक:
सा त्वया समतिक्रान्ता प्रतिज्ञा पुरुषर्षभ।
प्राप्तोऽसि परमं लोके यशः परमसम्मतम्॥१२॥

भावार्थ :-
‘पुरुषप्रवर! तुमने गंगा को भूतलपर लाने की वह प्रतिज्ञा पूर्ण कर ली इससे संसार में तुम्हें परम उत्तम एवं महान् यश की प्राप्ति हुई है॥१२॥

श्लोक:
तच्च गंगावतरणं त्वया कृतमरिंदम।
अनेन च भवान् प्राप्तो धर्मस्यायतनं महत्॥१३॥

भावार्थ :-
शत्रुदमन! तुमने जो गंगाजी को पृथ्वी पर उतारने का कार्य पूरा किया है, इससे उस महान् ब्रह्मलोक पर अधिकार प्राप्त कर लिया है, जो धर्म का आश्रय है॥१३॥

श्लोक:
प्लावयस्व त्वमात्मानं नरोत्तम सदोचिते।
सलिले पुरुषश्रेष्ठ शुचिः पुण्यफलो भव॥१४॥

भावार्थ :-
‘नरश्रेष्ठ! पुरुषप्रवर! गंगा जी का जल सदा ही स्नान के योग्य है तुम स्वयं भी इसमें स्नान करो और पवित्र होकर पुण्य का फल प्राप्त करो॥१४॥

श्लोक:
पितामहानां सर्वेषां कुरुष्व सलिलक्रियाम्।
स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि स्वं लोकं गम्यतां नृप॥१५॥

भावार्थ :-
‘नरेश्वर! तुम अपने सभी पितामहों का तर्पण करो तुम्हारा कल्याण हो अब मैं अपने लोक को जाऊँगा तुम भी अपनी राजधानीको लौट जाओ’॥१५॥

श्लोक:
इत्येवमुक्त्वा देवेशः सर्वलोकपितामहः।
यथागतं तथागच्छद देवलोकं महायशाः॥१६॥

भावार्थ :-
ऐसा कहकर सर्वलोकपितामह महायशस्वी देवेश्वर ब्रह्माजी जैसे आये थे, वैसे ही देवलोक को लौट गये॥१६॥

श्लोक:
भगीरथस्तु राजर्षिः कृत्वा सलिलमुत्तमम्।
यथाक्रमं यथान्यायं सागराणां महायशाः॥१७॥
कृतोदकः शुची राजा स्वरं प्रविवेश ह।
समृद्धार्थो नरश्रेष्ठ स्वराज्यं प्रशशास ह॥१८॥

भावार्थ :-
नरश्रेष्ठ! महायशस्वी राजर्षि राजा भगीरथ भी गंगाजीके उत्तम जल से क्रमशः सभी सगर-पुत्रों का विधिवत् तर्पण करके पवित्र हो अपने नग रको चले गये। इस प्रकार सफल मनोरथ होकर वे अपने राज्य का शासन करने लगे॥१७-१८॥

श्लोक:
प्रमुमोद च लोकस्तं नृपमासाद्य राघव।
नष्टशोकः समृद्धार्थो बभूव विगतज्वरः॥१९॥

भावार्थ :-
रघुनन्दन! अपने राजाको पुनः सामने पाकर प्रजावर्गको बड़ी प्रसन्नता हुई। सबका शोक जाता रहा। सबके मनोरथ पूर्ण हुए और चिन्ता दूर हो गयी॥१९॥

श्लोक:
एष ते राम गंगाया विस्तरोऽभिहितो मया।
स्वस्ति प्राप्नुहि भद्रं ते संध्याकालोऽतिवर्तते॥२०॥

भावार्थ :-
श्रीराम! यह गंगाजी की कथा मैंने तुम्हें विस्तार के साथ कह सुनायी तुम्हारा कल्याण हो अब जाओ, मंगलमय संध्यावन्दन आदिका सम्पादन करो। देखो, संध्याकाल बीता जा रहा है॥२०॥

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श्लोक:
धन्यं यशस्यमायुष्यं पत्र्यं स्वर्ग्यमथापि च।
यः श्रावयति विप्रेषु क्षत्रियेष्वितरेषु च ॥२१॥
प्रीयन्ते पितरस्तस्य प्रीयन्ते दैवतानि च।
इदमाख्यानमायुष्यं गंगावतरणं शुभम्॥२२॥

भावार्थ :-
यह गंगावतरण का मंगलमय उपाख्यान आयु बढ़ाने वाला है। धन, यश, आयु, पुत्र और स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला है। जो ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा दूसरे वर्ण के लोगों को भी यह कथा सुनाता है, उसके ऊपर देवता और पितर प्रसन्न होते हैं॥२१-२२॥

श्लोक:
यः शृणोति च काकुत्स्थ सर्वान् कामानवाप्नुयात्।
सर्वे पापाः प्रणश्यन्ति आयुः कीर्तिश्च वर्धते॥२३॥

भावार्थ :-
ककुत्स्थकुलभूषण! जो इसका श्रवण करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और आयु की वृद्धि एवं कीर्ति का विस्तार होता है॥२३॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे चतुश्चत्वारिंशः सर्गः॥४४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में चौवालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥४४॥

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