वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ४६

बालकाण्ड सर्ग- ४६

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बालकाण्ड सर्ग- ४६

॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ श्री कमलापति नम: ॥
॥ श्री जानकीवल्लभो विजयते ॥
॥ श्री वाल्मीकि रामायण ॥
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बालकाण्ड सर्ग- ४६
बालकाण्ड सर्ग- ४६

वाल्मीकि रामायण
(भावार्थ सहित)
सब एक ही स्थान पर

बालकाण्ड सर्ग- ४६

बालकाण्ड सर्ग- ४६

बालकाण्डम्
षट्चत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 46)

( दिति का कश्यपजी से इन्द्र हन्ता पुत्र की प्राप्ति के लिये कुशप्लव में तप, इन्द्र का उनके गर्भ के सात टुकड़े कर डालना )

श्लोक:
हतेषु तेषु पुत्रेषु दितिः परमदुःखिता।
मारीचं कश्यपं नाम भर्तारमिदमब्रवीत्॥१॥

भावार्थ :-
अपने उन पुत्रों के मारे जाने पर दिति को बड़ा दुःख हुआ,वे अपने पति मरीचिनन्दन कश्यप के पास जाकर बोलीं-॥१॥

श्लोक:
हतपुत्रास्मि भगवंस्तव पुत्रौर्महाबलैः।
शक्रहन्तारमिच्छामि पुत्रं दीर्घतपोर्जितम्॥२॥

भावार्थ :-
‘भगवन्! आपके महाबली पुत्र देवताओं ने मेरे पुत्रों को मार डाला; अतः मैं दीर्घकाल की तपस्या से उपार्जित एक ऐसा पुत्र चाहती हूँ जो इन्द्र का वध करने में समर्थ हो॥२॥

श्लोक:
साहं तपश्चरिष्यामि गर्भं मे दातुमर्हसि।
ईश्वरं शक्रहन्तारं त्वमनुज्ञातुमर्हसि॥३॥

भावार्थ :-
‘मैं तपस्या करूँगी, आप इसके लिये मुझे आज्ञा दें और मेरे गर्भ में ऐसा पुत्र प्रदान करें जो सब कुछ करने में समर्थ तथा इन्द्र का वध करने वाला हो’॥३॥

श्लोक:
तस्यास्तद वचनं श्रुत्वा मारीचः कश्यपस्तदा।
प्रत्युवाच महातेजा दितिं परमदुःखिताम्॥४॥

भावार्थ :-
उसकी यह बात सुनकर महातेजस्वी मरीचनन्दन कश्यप ने उस परम दुःखिनी दिति को इस प्रकार उत्तर दिया-॥४॥

श्लोक:
एवं भवतु भद्रं ते शुचिर्भव तपोधने।
जनयिष्यसि पुत्रं त्वं शक्रहन्तारमाहवे॥५॥

भावार्थ :-
‘तपोधने! ऐसा ही हो तुम शौचाचार का पालन करो तुम्हारा भला हो तुम ऐसे पुत्र को जन्म दोगी, जो युद्ध में इन्द्र को मार सके॥५॥

श्लोक:
पूर्णे वर्षसहस्रे तु शुचिर्यदि भविष्यसि।
पुत्रं त्रैलोक्यहन्तारं मत्तस्त्वं जनयिष्यसि॥६॥

भावार्थ :-
‘यदि पूरे एक सहस्र वर्ष तक पवित्रतापूर्वक रह सकोगी तो तुम मुझसे त्रिलोकीनाथ इन्द्र का वधकरने में समर्थ पुत्र प्राप्त कर लोगी’॥६॥

श्लोक:
एवमुक्त्वा महातेजाः पाणिना सम्ममार्ज ताम्।
तामालभ्य ततः स्वस्ति इत्युक्त्वा तपसे ययौ॥७॥

भावार्थ :-
ऐसा कहकर महातेजस्वी कश्यप ने दिति के शरीरपर हाथ फेरा फिर उनका स्पर्श करके कहा- ’तुम्हारा कल्याण हो।’ ऐसा कहकर वे तपस्याके लिये चले गये॥७॥

श्लोक:
गते तस्मिन् नरश्रेष्ठ दितिः परमहर्षिता।
कुशप्लवं समासाद्य तपस्तेपे सुदारुणम्॥८॥

भावार्थ :-
नरश्रेष्ठ! उनके चले जाने पर दिति अत्यन्त हर्ष और उत्साह में भरकर कुशप्लव नामक तपोवन में आयीं और अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगीं॥८॥

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श्लोक:
तपस्तस्यां हि कुर्वत्यां परिचर्यां चकार ह।
सहस्राक्षो नरश्रेष्ठ परया गुणसम्पदा॥९॥

भावार्थ :-
पुरुषप्रवर श्रीराम! दिति के तपस्या करते समय सहस्रलोचन इन्द्र विनय आदि उत्तम गुणसम्पत्ति से युक्त हो उनकी सेवा-टहल करने लगे॥९॥

श्लोक:
अग्निं कुशान् काष्ठमपः फलं मूलं तथैव च।
न्यवेदयत् सहस्राक्षो यच्चान्यदपि कांक्षितम्॥१०॥

भावार्थ :-
सहस्राक्ष इन्द्र अपनी मौसी दिति के लिये अग्नि, कुशा, काष्ठ, जल, फल, मूल तथा अन्यान्य अभिलषित वस्तुओं को ला-लाकर देते थे॥१०॥

श्लोक:
गात्रसंवाहनैश्चैव श्रमापनयनैस्तथा।
शक्रः सर्वेषु कालेषु दितिं परिचचार ह॥११॥

भावार्थ :-
इन्द्र मौसी की शारीरिक सेवाएँ करते, उनके पैर दबाकर उनकी थकावट मिटाते तथा ऐसी ही अन्य आवश्यक सेवाओं द्वारा वे हर समय दिति की परिचर्या करते थे॥११॥

श्लोक:
पूर्णे वर्षसहस्रे सा दशोने रघुनन्दन।
दितिः परमसंहृष्टा सहस्राक्षमथाब्रवीत्॥१२॥

भावार्थ :-
रघुनन्दन! जब सहस्र वर्ष पूर्ण होने में कुल दस वर्ष बाकी रह गये, तब एक दिन दितिने अत्यन्त हर्षमें भरकर सहस्रलोचन इन्द्रसे कहा-॥१२॥

श्लोक:
तपश्चरन्त्या वर्षाणि दश वीर्यवतां वर।
अवशिष्टानि भद्रं ते भ्रातरं द्रक्ष्यसे ततः॥१३॥

भावार्थ :-
‘बलवानों में श्रेष्ठ वीर! अब मेरी तपस्याके केवल दस वर्ष और शेष रह गये हैं तुम्हारा भला हो दस वर्ष बाद तुम अपने होने वाले भाई को देख सकोगे॥१३॥

श्लोक:
यमहं त्वत्कृते पुत्र तमाधास्ये जयोत्सुकम्।
त्रैलोक्यविजयं पुत्र सह भोक्ष्यसि विज्वर ॥१४॥

भावार्थ :-
‘बेटा! मैंने तुम्हारे विनाश के लिये जिस पुत्र की याचना की थी, वह जब तुम्हें जीतने के लिये उत्सुक होगा, उस समय मैं उसे शान्त कर दूंगी-तुम्हारे प्रति उसे वैर-भाव से रहित तथा भ्रातृ-स्नेह से युक्त बना दूंगी फिर तुम उसके साथ रहकर उसी के द्वारा की हुई त्रिभुवन-विजय का सुख निश्चिन्त होकर भोगना॥१४॥

श्लोक:
याचितेन सुरश्रेष्ठ पित्रा तव महात्मना।
वरो वर्षसहस्रान्ते मम दत्तः सुतं प्रति॥१५॥

भावार्थ :-
‘सुरश्रेष्ठ! मेरे प्रार्थना करने पर तुम्हारे महात्मा पिता ने एक हजार वर्ष के बाद पुत्र होने का मुझे वर दिया है’॥१५॥

श्लोक:
इत्युक्त्वा च दितिस्तत्र प्राप्ते मध्यं दिनेश्वरे।
निद्रयापहृता देवी पादौ कृत्वाथ शीर्षतः ॥१६॥

भावार्थ :-
ऐसा कहकर दिति नींद से अचेत हो गयीं। उस समय सूर्यदेव आकाश के मध्य भाग में आ गये थे दोपहरका समय हो गया था,देवी दिति आसनपर बैठी-बैठी झपकी लेने लगीं। सिर झुक गया और केश पैरों से जा लगे,इस प्रकार निद्रावस्था में उन्होंने पैरों को सिर से लगा लिया॥१६॥

श्लोक:
दृष्ट्वा तामशुचिं शक्रः पादयोः कृतमूर्धजाम्।
शिरःस्थाने कृतौ पादौ जहास च मुमोद च॥१७॥

भावार्थ :-
उन्होंने अपने केशों को पैरों पर डाल रखा था सिरको टिकाने के लिये दोनों पैरों को ही आधार बना लिया था। यह देख दिति को अपवित्र हुई जान इन्द्र हँसे और बड़े प्रसन्न हुए॥१७॥

श्लोक:
तस्याः शरीरविवरं प्रविवेश पुरंदरः।
गर्भं च सप्तधा राम चिच्छेद परमात्मवान्॥१८॥

भावार्थ :-
श्रीराम! फिर तो सतत सावधान रहने वाले इन्द्र माता दिति के उदर में प्रविष्ट हो गये और उसमें स्थित हुए गर्भ के उन्होंने सात टुकड़े कर डाले॥१८॥

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श्लोक:
भिद्यमानस्ततो गर्भो वज्रेण शतपर्वणा।
रुरोद सुस्वरं राम ततो दितिरबुध्यत॥१९॥

भावार्थ :-
श्रीराम! उनके द्वारा सौ पर्वोवाले वज्र से विदीर्ण किये जाते समय वह गर्भस्थ बालक जोर-जोर से रोने लगा इससे दिति की निद्रा टूट गयी–वे जागकर उठ बैठीं॥१९॥

श्लोक:
मा रुदो मा रुदश्चेति गर्भं शक्रोऽभ्यभाषत।
बिभेद च महातेजा रुदन्तमपि वासवः॥२०॥

भावार्थ :-
तब इन्द्र ने उस रोते हुए गर्भ से कहा- ’भाई! मत रो, मत रो’ परंतु महातेजस्वी इन्द्र ने रोते रहने पर भी उस गर्भ के टुकड़े कर ही डाले॥२०॥

श्लोक:
न हन्तव्यं न हन्तव्यमित्येव दितिरब्रवीत्।
निष्पपात ततः शक्रो मातुर्वचनगौरवात्॥२१॥

भावार्थ :-
उस समय दिति ने कहा- ’इन्द्र ! बच्चे को न मारो, न मारो।’ माता के वचन का गौरव मानकर इन्द्र सहसा उदर से निकल आये॥२१॥

श्लोक:
प्राञ्जलिर्वज्रसहितो दितिं शक्रोऽभ्यभाषत।
अशुचिर्देवि सुप्तासि पादयोः कृतमूर्धजा॥२२॥
तदन्तरमहं लब्ध्वा शक्रहन्तारमाहवे।
अभिन्दं सप्तधा देवि तन्मे त्वं क्षन्तुमर्हसि॥२३॥

भावार्थ :-
फिर वज्र सहित इन्द्र ने हाथ जोड़कर दिति से कहा- ’देवि! तुम्हारे सिरके बाल पैरों से लगे थे इस प्रकार तुम अपवित्र अवस्था में सोयी थीं,यही छिद्र पाकर मैंने इस ‘इन्द्रहन्ता’ बालक के सात टुकड़े कर डाले हैं इसलिये माँ! तुम मेरे इस अपराध को क्षमा करो’॥२२-२३॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे षट्चत्वारिंशः सर्गः॥४६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में छियालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥४६॥

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