

।मुख पृष्ठ।।चान्द्रायण व्रत कथा।
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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-



चन्द्रमा की प्रसन्नता के लिए चान्द्रायण व्रत
चान्द्रायण व्रत का अर्थ है ‘चन्द्रमा के ह्रास-वृद्धि (घटने-बढ़ने) के समान आहार (भोजन) को घटा-बढ़ाकर किया जाने वाला व्रत।
क्यों करें चान्द्रायण व्रत ?
कुण्डली में कमजोर चन्द्रमा को ठीक करने, पापों के नाश, किसी प्रायश्चित के लिए और चन्द्रलोक की प्राप्ति के लिए ‘चान्द्रायण’ व्रत किया जाता है। इस व्रत से जन्म-जन्मान्तर के महापातकों का नाश हो जाता है इसलिए यदि विधि-विधान से इसका अनुष्ठान किया जाए तो इसके प्रभाव से जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन आ जाता है। वर्षों से दु:ख भोगने वाले मनुष्य को इस व्रत के करने से ऐसे साधन मिल जाते हैं जिससे उसके सभी दु:ख-दारिद्रय और समस्याएं स्वप्न की तरह गायब हो जाती हैं और उसे मनोवांछित फलों की प्राप्ति होने लगती है।
इस व्रत के प्रभाव से मनुष्य की आत्मा शुद्ध होने लगती है और संकल्प शक्ति व ज्ञान बढ़ने लगता है।
व्रत की विधि
चान्द्रायण व्रत एक कठिन व्रत है। यह व्रत चन्द्रमा की कलाओं की ह्रास-वृद्धि के अनुसार व्रत में भोजन की ग्रास संख्या को घटा-बढ़ाकर किया जाता है।
एकैकं वर्द्धयेत् पिण्डं शुक्ले कृष्णे च ह्रासयेत् ।
इन्दुक्षये न भुज्जीत एष चान्द्रायणे विधि: ।। (वशिष्ठ स्मृति)
जैसे-कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से चन्द्रमा एक-एक कला घटकर अमावस्या को बिल्कुल क्षीण हो जाता है और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से एक-एक कला बढ़कर पूर्णिमा को पूर्ण चन्द्र हो जाता है। उसी प्रकार चान्द्रायण व्रत में कृष्ण प्रतिपदा से भोजन के एक-एक ग्रास घटाकर अमावस्या को उपवास किया जाता है और शुक्ल प्रतिपदा से एक-एक ग्रास बढ़ाकर पूर्णिमा को पूर्ण किया जाता है। इस प्रकार महीने के तीस दिनों में एक चान्द्रायण व्रत पूरा होता है।
यह व्रत दो प्रकार से होता है-
१. यवमध्यतनु चान्द्रायण व्रत-इसमें शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ करके प्रतिदिन एक-एक ग्रास भोजन बढ़ाता जाए। जैसे प्रतिपदा को एक ग्रास, द्वितीया को दो ग्रास और तृतीया का तीन ग्रास-इस क्रम से बढा़ाकर पूर्णिमा को पन्द्रह ग्रास भोजन करे। फिर कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को चौदह ग्रास भोजन करके प्रतिदिन एक ग्रास घटाता जाए और अमावस्या को उपवास करे।
२. पिपीलिकातनु चान्द्रायण व्रत-इसमें कृष्ण प्रतिपदा को चौदह ग्रास से आरम्भ करके प्रतिदिन एक-एक ग्रास घटाए और अमावस्या को उपवास करे फिर शुक्ल प्रतिपदा से एक-एक ग्रास बढ़ाता हुआ पूर्णिमा को पंद्रह ग्रास भोजन करे।
इस तरह दोनों तरीके से चान्द्रायण व्रत होता है। चान्द्रायण व्रत के और भी प्रकार होते हैं। जैसे-शिशु चान्द्रायण व्रत, ऋषि चान्द्रायण व्रत आदि।
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रखें इन बातों का ध्यान
- व्रती को सच्चे मन से जन्म-जन्मान्तर के पापों के लिए प्रायश्चित करने की भावना हृदय में रखनी चाहिए।
- व्रती को शारीरिक शुद्धता व पवित्रता का पूरा ध्यान रखना चाहिए।
- भोजन में तामसी पदार्थ तेल, प्याज, लहसुन का प्रयोग न करे।
- मन में संतोष व प्रसन्नता का भाव रखना चाहिए।
- व्रती को अपने इष्ट या चन्द्र मन्त्र का जप मन में करते रहना चाहिए। भोजन सात्विक (देवताओं के खाने योग्य) हो। जैसे-खीर, दूध, दही, घी, कन्द-आलू, अरबी, शकरकंद आदि, सत्तू, चावल, जौ का आटा, मेथी, बथुआ, ककड़ी, पालक, फल जैसे-केला, अनार, संतरा सीताफल आदि लेने चाहिए।

