
मुख पृष्ठ अखंड रामायण वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग- ४१-५०

॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ श्री कमलापति नम: ॥
॥ श्री जानकीवल्लभो विजयते ॥
॥ श्री वाल्मीकि रामायण ॥

वाल्मीकि रामायण
(भावार्थ सहित)
सब एक ही स्थान पर

बालकाण्ड सर्ग- ४१-५०
वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ४१
बालकाण्डम्
एकचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 41)
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( सगर की आज्ञा से अंशुमान् का रसातल में जाकर घोड़े को ले आना और अपने चाचाओं के निधन का समाचार सुनाना )
श्लोक:
पुत्रांश्चिरगतान् ज्ञात्वा सगरो रघुनन्दन।
नप्तारमब्रवीद राजा दीप्यमानं स्वतेजसा॥१॥
भावार्थ :-
रघुनन्दन! ‘पुत्रों को गये बहुत दिन हो गये’- ऐसा जानकर राजा सगरने अपने पौत्र अंशुमान् से, जो अपने तेज से देदीप्यमान हो रहा था, इस प्रकार कहा-॥१॥
श्लोक:
शूरश्च कृतविद्यश्च पूर्वैस्तुल्योऽसि तेजसा।
पितॄणां गतिमन्विच्छ येन चाश्वोऽपवाहितः॥ २॥
भावार्थ :-
‘वत्स! तुम शूरवीर, विद्वान् तथा अपने पूर्वजों के तुल्य तेजस्वी हो तुम भी अपने चाचाओं के पथ का अनुसरण करो और उस चोर का पता लगाओ, जिसने मेरे यज्ञ-सम्बन्धी अश्व का अपहरण कर लिया है॥२॥
श्लोक:
अन्तीमानि सत्त्वानि वीर्यवन्ति महान्ति च।
तेषां तु प्रतिघातार्थं सासिं गृह्णीष्व कार्मुकम्॥३॥
भावार्थ :-
‘देखो, पृथ्वी के भीतर बड़े-बड़े बलवान् जीव रहते हैं; अतः उनसे टक्कर लेने के लिये तुम तलवार और धनुष भी लेते जाओ॥३॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ४२
बालकाण्डम्
द्विचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 42)
( अंशुमान् और भगीरथ की तपस्या, ब्रह्माजी का भगीरथ को अभीष्ट वर देना, गंगा जी को धारण करनेके लिये भगवान् शङ्कर को राजी करना )
श्लोक:
कालधर्मं गते राम सगरे प्रकृतीजनाः।
राजानं रोचयामासुरंशुमन्तं सुधार्मिकम्॥१॥
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भावार्थ :-
श्रीराम! सगर की मृत्यु हो जाने पर प्रजाजनों ने परम धर्मात्मा अंशुमान् को राजा बनाने की रुचि प्रकट की॥१॥
श्लोक:
स राजा सुमहानासीदंशुमान् रघुनन्दन।
तस्य पुत्रो महानासीद् दिलीप इति विश्रुतः॥२॥
भावार्थ :-
रघुनन्दन! अंशुमान् बड़े प्रतापी राजा हुए उनके पुत्र का नाम दिलीप था। वह भी एक महान् पुरुष था॥२॥
श्लोक:
तस्मै राज्यं समादिश्य दिलीपे रघुनन्दन।
हिमवच्छिखरे रम्ये तपस्तेपे सुदारुणम्॥३॥
भावार्थ :-
रघुकुल को आनन्दित करनेवाले वीर! अंशुमान् दिलीप को राज्य देकर हिमालय के रमणीय शिखर पर चले गये और वहाँ अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगे॥३॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ४३
बालकाण्डम्
त्रिचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 43)
( भगीरथ की तपस्या, भगवान् शङ्कर का गंगा को अपने सिर पर धारण करना, भगीरथ के पितरों का उद्धार )
श्लोक:
देवदेवे गते तस्मिन् सोऽङ्गुष्ठाग्रनिपीडिताम्।
कृत्वा वसुमतीं राम वत्सरं समुपासत॥१॥
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भावार्थ :-
श्रीराम! देवाधिदेव ब्रह्माजी के चले जाने पर राजा भगीरथ पृथ्वी पर केवल अँगूठे के अग्रभाग को टिकाये हुए खड़े हो एक वर्ष तक भगवान् शङ्कर की उपासना में लगे रहे॥१॥
श्लोक:
अथ संवत्सरे पूर्णे सर्वलोकनमस्कृतः।
उमापतिः पशुपती राजानमिदमब्रवीत्॥२॥
भावार्थ :-
वर्ष पूरा होने पर सर्वलोकवन्दित उमावल्लभ भगवान् पशुपति ने प्रकट होकर राजा से इस प्रकार कहा-॥२॥
श्लोक:
प्रीतस्तेऽहं नरश्रेष्ठ करिष्यामि तव प्रियम्।
शिरसा धारयिष्यामि शैलराजसुतामहम्॥३॥
भावार्थ :-
‘नरश्रेष्ठ! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारा प्रिय कार्य अवश्य करूँगा। मैं गिरिराजकुमारी गंगा देवी को अपने मस्तक पर धारण करूँगा’॥३॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ४४
बालकाण्डम्
चतुश्चत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 44)
( ब्रह्माजी का भगीरथ को पितरों के तर्पण की आज्ञा देना, गंगावतरण के उपाख्यान की महिमा )
श्लोक:
स गत्वा सागरं राजा गंगयानुगतस्तदा।
प्रविवेश तलं भूमेर्यत्र ते भस्मसात्कृताः॥१॥
भस्मन्यथाप्लुते राम गंगायाः सलिलेन वै।
सर्वलोकप्रभुर्ब्रह्मा राजानमिदमब्रवीत्॥२॥
भावार्थ :-
श्रीराम! इस प्रकार गंगाजी को साथ लिये राजा भगीरथ ने समुद्र तक जाकर रसातल में, जहाँ उनके पूर्वज भस्म हुए थे, प्रवेश किया वह भस्मराशि जब गंगाजी के जलसे आप्लावित हो गयी, तब सम्पूर्ण लोकों के स्वामी भगवान् ब्रह्मा ने वहाँ पधार कर राजा से इस प्रकार कहा-॥१-२॥
श्लोक:
तारिता नरशार्दूल दिवं याताश्च देववत्।
षष्टिः पुत्रसहस्राणि सगरस्य महात्मनः॥३॥
भावार्थ :-
‘नरश्रेष्ठ! महात्मा राजा सगर के साठ हजार पुत्रों का तुमने उद्धार कर दिया। अब वे देवताओं की भाँति स्वर्गलोक में जा पहुँचे॥३॥
श्लोक:
सागरस्य जलं लोके यावत्स्थास्यति पार्थिव।
सगरस्यात्मजाः सर्वे दिवि स्थास्यन्ति देववत्॥४॥
भावार्थ :-
‘भूपाल! इस संसा रमें जब तक सागर का जल मौजूद रहेगा; तब तक सगर के सभी पुत्र देवताओं की भाँति स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित रहेंगे॥४॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ४५
बालकाण्डम्
पञ्चचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 45)
( देवताओं और दैत्यों द्वारा क्षीर-समुद्र मन्थन, भगवान् रुद्र द्वारा हालाहल विषकापान,देवासुर-संग्राम में दैत्यों का संहार )
श्लोक:
विश्वामित्रवचः श्रुत्वा राघवः सहलक्ष्मणः।
विस्मयं परमं गत्वा विश्वामित्रमथाब्रवीत्॥१॥
भावार्थ :-
विश्वामित्रजी की बातें सुनकर लक्ष्मण सहित श्रीरामचन्द्रजी को बड़ा विस्मय हुआ वे मुनि से इस प्रकार बोले-॥१॥
श्लोक:
अत्यद्भुतमिदं ब्रह्मन् कथितं परमं त्वया।
गंगावतरणं पुण्यं सागरस्यापि पूरणम्॥२॥
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भावार्थ :-
‘ब्रह्मन्! आपने गंगाजी के स्वर्ग से उतरने और समुद्र के भरने की यह बड़ी उत्तम और अत्यन्त अद्भुत कथा सुनायी॥२॥
श्लोक:
क्षणभूतेव नौरात्रिः संवृत्तेयं परंतप।
इमां चिन्तयतोः सर्वां निखिलेन कथां तव॥३॥
भावार्थ :-
‘काम-क्रोधादि शत्रुओं को संताप देने वाले महर्षे! आपकी कही हुई इस सम्पूर्ण कथा पर पूर्ण रूप से विचार करते हुए हम दोनों भाइयों की यह रात्रि एक क्षण के समान बीत गयी है॥३॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ४६
बालकाण्डम्
षट्चत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 46)
( दिति का कश्यपजी से इन्द्र हन्ता पुत्र की प्राप्ति के लिये कुशप्लव में तप, इन्द्र का उनके गर्भ के सात टुकड़े कर डालना )
श्लोक:
हतेषु तेषु पुत्रेषु दितिः परमदुःखिता।
मारीचं कश्यपं नाम भर्तारमिदमब्रवीत्॥१॥
भावार्थ :-
अपने उन पुत्रों के मारे जाने पर दिति को बड़ा दुःख हुआ,वे अपने पति मरीचिनन्दन कश्यप के पास जाकर बोलीं-॥१॥
श्लोक:
हतपुत्रास्मि भगवंस्तव पुत्रौर्महाबलैः।
शक्रहन्तारमिच्छामि पुत्रं दीर्घतपोर्जितम्॥२॥
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भावार्थ :-
‘भगवन्! आपके महाबली पुत्र देवताओं ने मेरे पुत्रों को मार डाला; अतः मैं दीर्घकाल की तपस्या से उपार्जित एक ऐसा पुत्र चाहती हूँ जो इन्द्र का वध करने में समर्थ हो॥२॥
श्लोक:
साहं तपश्चरिष्यामि गर्भं मे दातुमर्हसि।
ईश्वरं शक्रहन्तारं त्वमनुज्ञातुमर्हसि॥३॥
भावार्थ :-
‘मैं तपस्या करूँगी, आप इसके लिये मुझे आज्ञा दें और मेरे गर्भ में ऐसा पुत्र प्रदान करें जो सब कुछ करने में समर्थ तथा इन्द्र का वध करने वाला हो’॥३॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ४७
बालकाण्डम्
सप्तचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 47)
( दिति का अपने पुत्रों को मरुद्गण बनाकर देवलोक में रखने के लिये इन्द्र से अनुरोध, इक्ष्वाकु-पुत्र विशाल द्वारा विशाला नगरी का निर्माण )
श्लोक:
सप्तधा तु कृते गर्भे दितिः परमदुःखिता।
सहस्राक्षं दुराधर्षं वाक्यं सानुनयाब्रवीत्॥१॥
भावार्थ :-
इन्द्र द्वारा अपने गर्भ के सात टुकड़े कर दिये जाने पर देवी दिति को बड़ा दुःख हुआ वे दुर्द्धर्ष वीर सहस्राक्ष इन्द्र से अनुनयपूर्वक बोलीं-॥१॥
श्लोक:
ममापराधाद् गर्भोऽयं सप्तधा शकलीकृतः।
नापराधो हि देवेश तवात्र बलसूदन॥२॥
भावार्थ :-
‘देवेश! बलसूदन! मेरे ही अपराध से इस गर्भ के सात टुकड़े हुए हैं इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है॥२॥
श्लोक:
प्रियं त्वत्कृतमिच्छामि मम गर्भविपर्यये।
मरुतां सप्त सप्तानां स्थानपाला भवन्तु ते॥३॥
भावार्थ :-
‘इस गर्भ को नष्ट करनेके निमित्त तुमने जो क्रूरतापूर्ण कर्म किया है, वह तुम्हारे और मेरे लिये भी जिस तरह प्रिय हो जाय—जैसे भी उसका परिणाम तुम्हारे और मेरे लिये सुखद हो जाय, वैसा उपाय मैं करना चाहती हूँ। मेरे गर्भ के वे सातों खण्ड सात व्यक्ति होकर सातों मरुद्गणों के स्थानों का पालन करने वाले हो जायँ॥३॥
वातस्कन्धा इमे सप्त चरन्तु दिवि पुत्रक।
मारुता इति विख्याता दिव्यरूपा ममात्मजाः॥ ४॥
‘बेटा! ये मेरे दिव्य रूपधारी पुत्र ‘मारुत’ नाम से प्रसिद्ध होकर आकाश में जो सुविख्यात सात वातस्कन्ध* हैं, उनमें विचरें॥४॥
* आवह, प्रवह, संवह, उद्वह, विवह, परिवह और परावहये सात मरुत् हैं, इन्हीं को सात वातस्कन्ध कहते हैं।
ब्रह्मलोकं चरत्वेक इन्द्रलोकं तथापरः।
दिव्यवायुरिति ख्यातस्तृतीयोऽपि महायशाः॥
(ऊपर जो सात मरुत् बताये गये हैं, वे सातसात के गण हैं, इस प्रकार उनचास मरुत् समझने चाहिये )इनमें से जो प्रथम गण है, वह ब्रह्मलोक में विचरे, दूसरा इन्द्रलोक में विचरण करे तथा तीसरा महायशस्वी मरुद्गण दिव्य वायु के नामसे विख्यात हो अन्तरिक्ष में बहा करे॥५॥
चत्वारस्तु सुरश्रेष्ठ दिशो वै तव शासनात्।
संचरिष्यन्ति भद्रं ते कालेन हि ममात्मजाः॥६॥
त्वत्कृतेनैव नाम्ना वै मारुता इति विश्रुताः।
‘सुरश्रेष्ठ! तुम्हारा कल्याण हो मेरे शेष चार पुत्रों के गण तुम्हारी आज्ञा से समयानुसार सम्पूर्ण दिशाओं में संचार करेंगे तुम्हारे ही रखे हुए नाम से (तुमने जो ‘मा रुदः’ कहकर उन्हें रोने से मना किया था, उसी ‘मा रुदः’ इस वाक्य से) वे सब-के-सब मारुत कहलायेंगे। मारुत नाम से ही उनकी प्रसिद्धि होगी’ ॥ ६ १/२॥
तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा सहस्राक्षः पुरंदरः॥७॥
उवाच प्राञ्जलिर्वाक्यमतीदं बलसूदनः।
दिति का वह वचन सुनकर बल दैत्य को मारने वाले सहस्राक्ष इन्द्र ने हाथ जोड़कर यह बात कही— ॥ ७ १/२॥
सर्वमेतद यथोक्तं ते भविष्यति न संशयः॥८॥
विचरिष्यन्ति भद्रं ते देवरूपास्तवात्मजाः।
‘मा ! तुम्हारा कल्याण हो तुमने जैसा कहा है, वह सब वैसा ही होगा; इसमें संशय नहीं है। तुम्हारे ये पुत्र देवरूप होकर विचरेंगे’॥ ८ १/२ ॥
एवं तौ निश्चयं कृत्वा मातापुत्रौ तपोवने॥९॥
जग्मतुस्त्रिदिवं राम कृतार्थाविति नः श्रुतम्।
श्रीराम ! उस तपोवन में ऐसा निश्चय करके वे दोनों माता-पुत्र—दिति और इन्द्र कृतकृत्य हो स्वर्गलोक को चले गये—ऐसा हमने सुन रखा है॥९ १/२॥
एष देशः स काकुत्स्थ महेन्द्राध्युषितः पुरा॥ १०॥
दितिं यत्र तपःसिद्धामेवं परिचचार सः।
काकुत्स्थ! यही वह देश है, जहाँ पूर्वकाल में रहकर देवराज इन्द्र ने तपःसिद्ध दिति की परिचर्या की थी॥ १० १/२॥
इक्ष्वाकोस्तु नरव्याघ्र पुत्रः परमधार्मिकः॥११॥
अलम्बुषायामुत्पन्नो विशाल इति विश्रुतः।
तेन चासीदिह स्थाने विशालेति पुरी कृता॥ १२॥
पुरुषसिंह! पूर्वकाल में महाराज इक्ष्वाकु के एक परम धर्मात्मा पुत्र थे, जो विशाल नाम से प्रसिद्ध हुए। उनका जन्म अलम्बुषा के गर्भ से हुआ था। उन्होंने इस स्थान पर विशाला नाम की पुरी बसायी थी॥ ११-१२॥
विशालस्य सुतो राम हेमचन्द्रो महाबलः।
सुचन्द्र इति विख्यातो हेमचन्द्रादनन्तरः॥१३॥
श्रीराम! विशाल के पुत्रका नाम था हेमचन्द्र, जो बड़े बलवान् थे। हेमचन्द्र के पुत्र सुचन्द्र नाम से विख्यात हुए॥ १३॥
सुचन्द्रतनयो राम धूम्राश्व इति विश्रुतः।
धूम्राश्वतनयश्चापि सृञ्जयः समपद्यत॥१४॥
श्रीरामचन्द्र! सुचन्द्र के पुत्र धूम्राश्व और धूम्राश्व के पुत्र संजय हुए॥ १४॥
सृञ्जयस्य सुतः श्रीमान् सहदेवः प्रतापवान्।
कुशाश्वः सहदेवस्य पुत्रः परमधार्मिकः॥१५॥
संजय के प्रतापी पुत्र श्रीमान् सहदेव हुए। सहदेव के परम धर्मात्मा पुत्र का नाम कुशाश्व था॥ १५ ॥
कुशाश्वस्य महातेजाः सोमदत्तः प्रतापवान्।
सोमदत्तस्य पुत्रस्तु काकुत्स्थ इति विश्रुतः॥ १६॥
कुशाश्वके महातेजस्वी पुत्र प्रतापी सोमदत्त हुए और सोमदत्तके पुत्र काकुत्स्थ नामसे विख्यात हुए।१६॥
तस्य पुत्रो महातेजाः सम्प्रत्येष पुरीमिमाम्।
आवसत् परमप्रख्यः सुमति म दुर्जयः॥१७॥
काकुत्स्थ के महातेजस्वी पुत्र सुमति नाम से प्रसिद्ध हैं; जो परम कान्तिमान् एवं दुर्जय वीर हैं वे ही इस समय इस पुरी में निवास करते हैं।॥ १७॥
इक्ष्वाकोस्तु प्रसादेन सर्वे वैशालिका नृपाः।
दीर्घायुषो महात्मानो वीर्यवन्तः सुधार्मिकाः॥ १८॥
महाराज इक्ष्वाकु के प्रसाद से विशाला के सभी नरेश दीर्घायु, महात्मा, पराक्रमी और परम धार्मिक होते आये हैं॥ १८॥
इहाद्य रजनीमेकां सुखं स्वप्स्यामहे वयम्।
श्वः प्रभाते नरश्रेष्ठ जनकं द्रष्टुमर्हसि ॥१९॥
नरश्रेष्ठ! आज एक रात हम लोग यहीं सुखपूर्वक शयन करेंगे; फिर कल प्रातःकाल यहाँ से चलकर तुम मिथिला में राजा जनक का दर्शन करोगे॥ १९॥
सुमतिस्तु महातेजा विश्वामित्रमुपागतम्।
श्रुत्वा नरवर श्रेष्ठः प्रत्यागच्छन्महायशाः॥२०॥
नरेशों में श्रेष्ठ, महातेजस्वी, महायशस्वी राजा सुमति विश्वामित्रजी को पुरी के समीप आया हुआ सुनकर उनकी अगवानी के लिये स्वयं आये॥ २० ॥
पूजां च परमां कृत्वा सोपाध्यायः सबान्धवः।
प्राञ्जलिः कुशलं पृष्ट्वा विश्वामित्रमथाब्रवीत्॥ २१॥
अपने पुरोहित और बन्धु-बान्धवों के साथ राजा ने विश्वामित्रजी की उत्तम पूजा करके हाथ जोड़ उनका कुशल-समाचार पूछा और उनसे इस प्रकार कहा -॥
धन्योऽस्म्यनगृहीतोऽस्मि यस्य मे विषयं मने।
सम्प्राप्तो दर्शनं चैव नास्ति धन्यतरो मम॥२२॥
‘मुने! मैं धन्य हूँ। आपका मुझ पर बड़ा अनुग्रह है; क्योंकि आपने स्वयं मेरे राज्य में पधारकर मुझे दर्शन दिया। इस समय मुझसे बढ़कर धन्य पुरुष दूसरा कोई नहीं है’ ॥ २२॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे सप्तचत्वारिंशः सर्गः॥४७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।४७॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ४८
बालकाण्डम्
अष्टचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 48)
( मुनियों सहित श्रीराम का मिथिलापुरी में पहुँचना, विश्वामित्रजी का उनसे अहल्या को शाप प्राप्त होने की कथा सुनाना )
श्लोक:
पृष्ट्वा तु कुशलं तत्र परस्परसमागमे।
कथान्ते सुमतिर्वाक्यं व्याजहार महामुनिम्॥१॥
भावार्थ :-
वहाँ परस्पर समागम के समय एक-दूसरे का कुशल-मंगल पूछकर बातचीत के अन्त में राजा सुमति ने महामुनि विश्वामित्र से कहा-॥१॥
श्लोक:
इमौ कुमारौ भद्रं ते देवतुल्यपराक्रमौ।
गजसिंहगती वीरौ शार्दूलवृषभोपमौ॥२॥
भावार्थ :-
‘ब्रह्मन्! आपका कल्याण हो ये दोनों कुमारदेवताओं के तुल्य पराक्रमी जान पड़ते हैं। इनकी चाल-ढाल हाथी और सिंह की गति के समान है। ये दोनों वीर सिंह और साँड़ के समान प्रतीत होते हैं॥२॥
श्लोक:
पद्मपत्रविशालाक्षौ खड्गतूणधनुर्धरौ।
अश्विनाविव रूपेण समुपस्थितयौवनौ॥३॥
भावार्थ :-
इनके बड़े-बड़े नेत्र विकसित कमलदल के समान शोभा पाते हैं। ये दोनों तलवार, तरकस और धनुषधारण किये हुए हैं। अपने सुन्दर रूप के द्वारा दोनों अश्विनीकुमारों को लज्जित करते हैं तथा युवावस्था के निकट आ पहुँचे हैं॥३॥
यदृच्छयैव गां प्राप्तौ देवलोकादिवामरौ।
कथं पद्भ्यामिह प्राप्तौ किमर्थं कस्य वा मुने॥ ४॥
‘इन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता है, मानो दो देवकुमार दैवेच्छावश देवलोक से पृथ्वी पर आ गये हों। मुने! ये दोनों किसके पुत्र हैं और कैसे, किसलिये यहाँ पैदल ही आये हैं ? ॥ ४॥
भूषयन्ताविमं देशं चन्द्रसूर्याविवाम्बरम्।
परस्परेण सदृशौ प्रमाणेङ्गितचेष्टितैः ॥५॥
‘जैसे चन्द्रमा और सूर्य आकाश की शोभा बढ़ाते । हैं, उसी प्रकार ये दोनों कुमार इस देश को सुशोभित कर रहे हैं। शरीरकी ऊँचाई, मनोभावसूचक संकेत तथा चेष्टा (बोलचाल) में ये दोनों एक-दूसरे के समान हैं॥५॥
किमर्थं च नरश्रेष्ठौ सम्प्राप्तौ दुर्गमे पथि।
वरायुधधरौ वीरौ श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः॥६॥
‘श्रेष्ठ आयुध धारण करने वाले ये दोनों नरश्रेष्ठ वीर इस दुर्गम मार्ग में किसलिये आये हैं? यह मैं यथार्थरूप से सुनना चाहता हूँ’॥६॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा यथावृत्तं न्यवेदयत्।
सिद्धाश्रमनिवासं च राक्षसानां वधं यथा।
विश्वामित्रवचः श्रुत्वा राजा परमविस्मितः॥७॥
सुमति का यह वचन सुनकर विश्वामित्रजी ने उन्हें सब वृत्तान्त यथार्थ रूप से निवेदन किया। सिद्धाश्रम में निवास और राक्षसों के वध का प्रसंग भी यथावत्
रूपसे कह सुनाया। विश्वामित्रजी की बात सुनकर राजा सुमति को बड़ा विस्मय हुआ॥७॥
अतिथी परमं प्राप्तौ पुत्रौ दशरथस्य तौ।
पूजयामास विधिवत् सत्काराहौँ महाबलौ॥८॥ ।
उन्होंने परम आदरणीय अतिथि के रूप में आये हुए उन दोनों महाबली दशरथ-पुत्रों का विधि पूर्वक आतिथ्य-सत्कार किया॥ ८॥
ततः परमसत्कारं सुमतेः प्राप्य राघवौ।
उष्य तत्र निशामेकां जग्मतुर्मिथिलां ततः॥९॥
सुमति से उत्तम आदर-सत्कार पाकर वे दोनों रघुवंशी कुमार वहाँ एक रात रहे और सबेरे उठकर मिथिला की ओर चल दिये॥९॥
तां दृष्ट्वा मुनयः सर्वे जनकस्य पुरीं शुभाम्।
साधु साध्विति शंसन्तो मिथिलां समपूजयन्॥ १०॥
मिथिला में पहुँचकर जनकपुरी की सुन्दर शोभा देख सभी महर्षि साधु-साधु कहकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे॥ १० ॥
मिथिलोपवने तत्र आश्रमं दृश्य राघवः।
पुराणं निर्जनं रम्यं पप्रच्छ मुनिपुंगवम्॥११॥
मिथिला के उपवनमें एक पुराना आश्रम था, जो अत्यन्त रमणीय होकर भी सूनसान दिखायी देता था। उसे देखकर श्रीरामचन्द्रजी ने मुनिवर विश्वामित्रजी से पूछा- ॥११॥
इदमाश्रमसंकाशं किं न्विदं मुनिवर्जितम्।
श्रोतुमिच्छामि भगवन् कस्यायं पूर्व आश्रमः॥१२॥
‘भगवन्! यह कैसा स्थान है, जो देखने में तो आश्रम-जैसा है; किंतु एक भी मुनि यहाँ दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। मैं यह सुनना चाहता हूँ कि पहले यह आश्रम किसका था?’ ॥ १२ ॥
तच्छ्रुत्वा राघवेणोक्तं वाक्यं वाक्यविशारदः।
प्रत्युवाच महातेजा विश्वामित्रो महामुनिः॥१३॥
श्रीरामचन्द्रजी का यह प्रश्न सुनकर प्रवचन कुशल महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र ने इस प्रकार उत्तर दिया— ॥१३॥
हन्त ते कथयिष्यामि शृणु तत्त्वेन राघव।
यस्यैतदाश्रमपदं शप्तं कोपान्महात्मनः॥१४॥
‘रघुनन्दन! पूर्वकाल में यह जिस महात्मा का आश्रम था और जिन्होंने क्रोधपूर्वक इसे शाप दे दिया था, उनका तथा उनके इस आश्रम का सब वृत्तान्त तुम से कहता हूँ तुम यथार्थ रूप से इसको सुनो। १४॥
गौतमस्य नरश्रेष्ठ पूर्वमासीन्महात्मनः।
आश्रमो दिव्यसंकाशः सुरैरपि सुपूजितः ॥१५॥
‘नरश्रेष्ठ! पूर्वकाल में यह स्थान महात्मा गौतम का आश्रम था। उस समय यह आश्रम बड़ा ही दिव्य जान पड़ता था। देवता भी इसकी पूजा एवं प्रशंसा किया करते थे॥१५॥
स चात्र तप आतिष्ठदहल्यासहितः पुरा।
वर्षपूगान्यनेकानि राजपुत्र महायशः॥१६॥
‘महायशस्वी राजपुत्र! पूर्वकाल में महर्षि गौतम अपनी पत्नी अहल्या के साथ रहकर यहाँ तपस्या करते थे। उन्होंने बहुत वर्षों तक यहाँ तप किया था। १६॥
तस्यान्तरं विदित्वा च सहस्राक्षः शचीपतिः।
मुनिवेषधरो भूत्वा अहल्यामिदमब्रवीत्॥१७॥
‘एक दिन जब महर्षि गौतम आश्रम पर नहीं थे, उपयुक्त अवसर समझकर शचीपति इन्द्र गौतम मुनि का वेष धारण किये वहाँ आये और अहल्या से इस प्रकार बोले- ॥ १७॥
ऋतुकालं प्रतीक्षन्ते नार्थिनः सुसमाहिते।
संगमं त्वहमिच्छामि त्वया सह सुमध्यमे॥१८॥
“सदा सावधान रहने वाली सुन्दरी! रति की इच्छा रखने वाले प्रार्थी पुरुष ऋतुकाल की प्रतीक्षा नहीं करते हैं सुन्दर कटिप्रदेशवाली सुन्दरी ! मैं (इन्द्र) तुम्हारे साथ समागम करना चाहता हूँ’॥ १८ ॥
मुनिवेषं सहस्राक्षं विज्ञाय रघुनन्दन।
मतिं चकार दुर्मेधा देवराजकुतूहलात्॥१९॥
‘रघुनन्दन ! महर्षि गौतम का वेष धारण करके आये हुए इन्द्र को पहचानकर भी उस दुर्बुद्धि नारी ने ‘अहो! देवराज इन्द्र मुझे चाहते हैं’ इस कौतूहल वश उनके साथ समागम का निश्चय करके वह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया॥
अथाब्रवीत् सुरश्रेष्ठं कृतार्थेनान्तरात्मना।
कृतार्थास्मि सुरश्रेष्ठ गच्छ शीघ्रमितः प्रभो॥ २०॥
आत्मानं मां च देवेश सर्वथा रक्ष गौतमात्।
‘रति के पश्चात् उसने देवराज इन्द्र से संतुष्टचित्त होकर कहा–’सुरश्रेष्ठ! मैं आपके समागम से कृतार्थ हो गयी। प्रभो! अब आप शीघ्र यहाँ से चले जाइये। देवेश्वर! महर्षि गौतम के कोप से आप अपनी और मेरी भी सब प्रकार से रक्षा कीजिये’ ।। २० १/२॥
इन्द्रस्तु प्रहसन् वाक्यमहल्यामिदमब्रवीत्॥२१॥
सुश्रोणि परितुष्टोऽस्मि गमिष्यामि यथागतम्।
‘तब इन्द्र ने अहल्या से हँसते हुए कहा—’सुन्दरी ! मैं भी संतुष्ट हो गया अब जैसे आया था, उसी तरह चला जाऊँगा’ ॥ २१ १/२ ॥
एवं संगम्य तु तदा निश्चक्रामोटजात् ततः॥ २२॥
स सम्भ्रमात् त्वरन् राम शङ्कितो गौतमं प्रति।
‘श्रीराम! इस प्रकार अहल्या से समागम करके इन्द्र जब उस कुटी से बाहर निकले, तब गौतम के आ जाने की आशङ्का से बड़ी उतावली के साथ वेगपूर्वक भागने का प्रयत्न करने लगे। २२ १/२॥
गौतमं स ददर्शाथ प्रविशन्तं महामुनिम्॥२३॥
देवदानवदुर्धर्षं तपोबलसमन्वितम्।
तीर्थोदकपरिक्लिन्नं दीप्यमानमिवानलम्॥२४॥
गृहीतसमिधं तत्र सकुशं मुनिपुंगवम्।
‘इतने ही में उन्होंने देखा, देवताओं और दानवों के लिये भी दुर्धर्ष, तपोबलसम्पन्न महामुनि गौतम हाथ में समिधा लिये आश्रम में प्रवेश कर रहे हैं। उनका शरीर तीर्थ के जल से भीगा हुआ है और वे प्रज्वलित अग्नि के समान उद्दीप्त हो रहे हैं। २३-२४ १/२ ॥
दृष्ट्वा सुरपतिस्त्रस्तो विषण्णवदनोऽभवत्॥२५॥
अथ दृष्ट्वा सहस्राक्षं मुनिवेषधरं मुनिः।
दुर्वृत्तं वृत्तसम्पन्नो रोषाद् वचनमब्रवीत्॥२६॥
‘उनपर दृष्टि पड़ते ही देवराज इन्द्र भय से थर्रा उठे। उनके मुखपर विषाद छा गया। दुराचारी इन्द्र को मुनि का वेष धारण किये देख सदाचारसम्पन्न मुनिवर गौतमजी ने रोष भरकर कहा- ॥ २५-२६ ॥
मम रूपं समास्थाय कृतवानसि दुर्मते।
अकर्तव्यमिदं यस्माद विफलस्त्वं भविष्यसि॥ २७॥
“दुर्मते! तूने मेरा रूप धारण करके यह न करने योग्य पापकर्म किया है, इसलिये तू विफल (अण्डकोषों से रहित) हो जायगा’ ॥ २७॥
गौतमेनैवमुक्तस्य सुरोषेण महात्मना।
पेततुर्वृषणी भूमौ सहस्राक्षस्य तत्क्षणात्॥ २८॥
‘रोष में भरे हुए महात्मा गौतम के ऐसा कहते ही सहस्राक्ष इन्द्र के दोनों अण्डकोष उसी क्षण पृथ्वीपर गिर पड़े॥२८॥
तथा शप्त्वा च वै शक्रं भार्यामपि च शप्तवान्।
इह वर्षसहस्राणि बहूनि निवसिष्यसि ॥ २९॥
वातभक्षा निराहारा तप्यन्ती भस्मशायिनी।
अदृश्या सर्वभूतानामाश्रमेऽस्मिन् वसिष्यसि॥ ३०॥
इन्द्र को इस प्रकार शाप देकर गौतम ने अपनी पत्नी को भी शाप दिया—’दुराचारिणी! तू भी यहाँ कई हजार वर्षों तक केवल हवा पीकर या उपवास करके कष्ट उठाती हुई राख में पड़ी रहेगी। समस्त प्राणियों से अदृश्य रहकर इस आश्रम में निवास करेगी।
यदा त्वेतद् वनं घोरं रामो दशरथात्मजः।
आगमिष्यति दुर्धर्षस्तदा पूता भविष्यसि॥३१॥
तस्यातिथ्येन दुर्वृत्ते लोभमोहविवर्जिता।।
मत्सकाशं मुदा युक्ता स्वं वपुर्धारयिष्यसि॥३२॥
जब दुर्धर्ष दशरथ-कुमार राम इस घोर वन में पदार्पण करेंगे, उस समय तू पवित्र होगी। उनका आतिथ्य-सत्कार करने से तेरे लोभ-मोह आदि दोष दूर हो जायँगे और तू प्रसन्नतापूर्वक मेरे पास पहुँचकर अपना पूर्व शरीर धारण कर लेगी’ ॥ २९३२॥
एवमुक्त्वा महातेजा गौतमो दुष्टचारिणीम्।
इममाश्रममुत्सृज्य सिद्धचारणसेविते।
हिमवच्छिखरे रम्ये तपस्तेपे महातपाः ॥ ३३॥
‘अपनी दुराचारिणी पत्नी से ऐसा कहकर महातेजस्वी, महातपस्वी गौतम इस आश्रम को छोड़कर चले गये और सिद्धों तथा चारणों से सेवित हिमालयके रमणीय शिखर पर रहकर तपस्या करने लगे’ ॥ ३३॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डेऽष्टचत्वारिंशः सर्गः॥४८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में अड़तालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥४८॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ४९
बालकाण्डम्
एकोनपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 49)
( पितृ देवताओं द्वारा इन्द्र को भेड़े के अण्डकोष से युक्त करना तथा भगवान् श्रीराम के द्वारा अहल्या का उद्धार एवं उन दोनों दम्पति के द्वारा इनका सत्कार )
श्लोक:
अफलस्तु ततः शक्रो देवानग्निपुरोगमान्।
अब्रवीत् त्रस्तनयनः सिद्धगन्धर्वचारणान्॥१॥
भावार्थ :-
तदनन्तर इन्द्र अण्डकोष से रहित होकर बहुत डर गये। उनके नेत्रों में त्रास छा गया। वे अग्नि आदि देवताओं, सिद्धों, गन्धर्वो और चारणों से इस प्रकार बोले-॥१॥
श्लोक:
कुर्वता तपसो विनं गौतमस्य महात्मनः।
क्रोधमुत्पाद्य हि मया सुरकार्यमिदं कृतम्॥ २॥
भावार्थ :-
‘देवताओ! महात्मा गौतम की तपस्या में विघ्न डालने के लिये मैंने उन्हें क्रोध दिलाया है। ऐसा करके मैंने यह देवताओं का कार्य ही सिद्ध किया है॥२॥
श्लोक:
अफलोऽस्मि कृतस्तेन क्रोधात् सा च निराकृता।
शापमोक्षेण महता तपोऽस्यापहृतं मया॥३॥
भावार्थ :-
‘मनि ने क्रोधपूर्वक भारी शाप देकर मुझे अण्डकोष से रहित कर दिया और अपनी पत्नी का भी परित्याग कर दिया। इससे मेरे द्वारा उनकी तपस्या का अपहरण हुआ है॥३॥
तन्मां सुरवराः सर्वे सर्षिसङ्गाः सचारणाः।
सरकार्यकरं यूयं सफलं कर्तुमर्हथ॥४॥
‘यदि मैं उनकी तपस्या में विघ्न नहीं डालता तो वे देवताओं का राज्य ही छीन लेते अतः ऐसा करके मैंने देवताओं का ही कार्य सिद्ध किया है। इसलिये श्रेष्ठ देवताओ! तुम सब लोग, ऋषिसमुदाय और चारणगण मिलकर मुझे अण्डकोष से युक्त करने का प्रयत्न करो’ ॥ ४॥
शतक्रतोर्वचः श्रुत्वा देवाः साग्निपुरोगमाः।
पितृदेवानुपेत्याहुः सर्वे सह मरुद्गणैः॥५॥
इन्द्रका यह वचन सुनकर मरुद्गणों सहित अग्नि आदि समस्त देवता कव्यवाहन आदि पितृदेवताओं के पास जाकर बोले- ॥ ५॥
अयं मेषः सवृषणः शक्रो ह्यवृषणः कृतः।
मेषस्य वृषणौ गृह्य शक्रायाशु प्रयच्छत॥६॥
‘पितृगण ! यह आपका भेड़ा अण्डकोष से युक्त है और इन्द्र अण्डकोष रहित कर दिये गये हैं। अतः इस भेड़े के दोनों अण्डकोषों को लेकर आप शीघ्र ही इन्द्र को अर्पित कर दें॥६॥
अफलस्तु कृतो मेषः परां तुष्टिं प्रदास्यति।
भवतां हर्षणार्थं च ये च दास्यन्ति मानवाः।
अक्षयं हि फलं तेषां यूयं दास्यथ पुष्कलम्॥७॥
‘अण्डकोष से रहित किया हुआ यह भेड़ा इसी स्थान में आप लोगों को परम संतोष प्रदान करेगा। अतः जो मनुष्य आपलोगों की प्रसन्नता के लिये अण्डकोषरहित भेड़ा दान करेंगे, उन्हें आप लोग उस दान का उत्तम एवं पूर्ण फल प्रदान करेंगे’ ॥ ७॥
अग्नेस्तु वचनं श्रुत्वा पितृदेवाः समागताः।
उत्पाट्य मेषवृषणौ सहस्राक्षे न्यवेशयन्॥८॥
अग्नि की यह बात सुनकर पितृदेवताओं ने एकत्र हो भेड़े के अण्डकोषों को उखाड़कर इन्द्र के शरीर में उचित स्थान पर जोड़ दिया॥ ८॥
तदाप्रभृति काकुत्स्थ पितृदेवाः समागताः।
अफलान् भुञ्जते मेषान् फलैस्तेषामयोजयन्॥
ककुत्स्थनन्दन श्रीराम! तभी से वहाँ आये हए समस्त पितृ-देवता अण्डकोषरहित भेड़ों को ही उपयोग में लाते हैं और दाताओं को उनके दान जनित फलों के भागी बनाते हैं॥९॥
इन्द्रस्तु मेषवृषणस्तदाप्रभृति राघव।
गौतमस्य प्रभावेण तपसा च महात्मनः॥१०॥
रघुनन्दन! उसी समय से महात्मा गौतम के तपस्याजनित प्रभाव से इन्द्र को भेड़ों के अण्डकोष धारण करने पड़े॥१०॥
तदागच्छ महातेज आश्रमं पुण्यकर्मणः।
तारयैनां महाभागामहल्यां देवरूपिणीम्॥११॥
महातेजस्वी श्रीराम! अब तुम पुण्यकर्मा महर्षि गौतम के इस आश्रम पर चलो और इन देवरूपिणी महाभागा अहल्या का उद्धार करो॥ ११॥
विश्वामित्रवचः श्रुत्वा राघवः सहलक्ष्मणः।
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य आश्रमं प्रविवेश ह॥१२॥
विश्वामित्रजी का यह वचन सुनकर लक्ष्मणसहित श्रीराम ने उन महर्षि को आगे करके उस आश्रम में प्रवेश किया॥ १२॥
ददर्श च महाभागां तपसा द्योतितप्रभाम्।
लोकैरपि समागम्य दुर्निरीक्ष्यां सुरासुरैः ॥ १३॥
वहाँ जाकर उन्होंने देखा—महासौभाग्यशालिनी अहल्या अपनी तपस्या से देदीप्यमान हो रही हैं। इस लोक के मनुष्य तथा सम्पूर्ण देवता और असुर भी वहाँ आकर उन्हें देख नहीं सकते थे॥१३॥
प्रयत्नान्निर्मितां धात्रा दिव्यां मायामयीमिव।
धूमेनाभिपरीतांगी दीप्तामग्निशिखामिव॥१४॥
सतुषारावृतां साभ्रां पूर्णचन्द्रप्रभामिव।
मध्येऽम्भसो दुराधर्षां दीप्ता सूर्यप्रभामिव॥१५॥
उनका स्वरूप दिव्य था। विधाता ने बड़े प्रयत्न से उनके अंगों का निर्माण किया था। वे मायामयी-सी प्रतीत होती थीं। धूम से घिरी हुई प्रज्वलित अग्निशिखा-सी जान पड़ती थीं। ओले और बादलों से ढकी हुई पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा-सी दिखायी देती थीं तथा जल के भीतर उद्भासित होने वाली सूर्य की दुर्धर्ष प्रभा के समान दृष्टिगोचर होती थीं॥ १४-१५ ॥
सा हि गौतमवाक्येन दुर्निरीक्ष्या बभूव ह।
त्रयाणामपि लोकानां यावद् रामस्य दर्शनम्।
शापस्यान्तमुपागम्य तेषां दर्शनमागता॥१६॥
गौतम के शापवश श्रीरामचन्द्रजी का दर्शन होने से पहले तीनों लोकों के किसी भी प्राणी के लिये उनका दर्शन होना कठिन था। श्रीराम का दर्शन मिल जाने से जब उनके शाप का अन्त हो गया, तब वे उन सबको दिखायी देने लगीं।
राघवौ तु तदा तस्याः पादौ जगृहतुर्मुदा।
स्मरन्ती गौतमवचः प्रतिजग्राह सा हि तौ॥१७॥
पाद्यमर्थ्य तथाऽऽतिथ्यं चकार सुसमाहिता।
प्रतिजग्राह काकुत्स्थो विधिदृष्टेन कर्मणा॥१८॥
उस समय श्रीराम और लक्ष्मण ने बड़ी प्रसन्नता के साथ अहल्या के दोनों चरणोंका स्पर्श किया। महर्षिगौतम के वचनों का स्मरण करके अहल्या ने बड़ी सावधानी के साथ उन दोनों भाइयों को आदरणीय अतिथि के रूपमें अपनाया और पाद्य, अर्घ्य आदि अर्पित करके उनका आतिथ्य-सत्कार किया। श्रीरामचन्द्रजी ने शास्त्रीय विधि के अनुसार अहल्या का वह आतिथ्य ग्रहण किया॥ १७-१८ ॥
पुष्पवृष्टिर्महत्यासीद् देवदुन्दुभिनिःस्वनैः।
गन्धर्वाप्सरसां चैव महानासीत् समुत्सवः ॥१९॥
उस समय देवताओं की दुन्दुभि बज उठी। साथ ही आकाश से फूलों की बड़ी भारी वर्षा होने लगी। गन्धर्वो और अप्सराओं द्वारा महान् उत्सव मनाया जाने लगा॥ १९॥
साधु साध्विति देवास्तामहल्यां समपूजयन्।
तपोबलविशुद्धांगी गौतमस्य वशानुगाम्॥२०॥
महर्षि गौतम के अधीन रहने वाली अहल्या अपनी तपःशक्ति से विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त हुईं—यह देख सम्पूर्ण देवता उन्हें साधुवाद देते हुए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे॥ २०॥
गौतमोऽपि महातेजा अहल्यासहितः सुखी।
रामं सम्पूज्य विधिवत् तपस्तेपे महातपाः॥२१॥
महातेजस्वी, महातपस्वी गौतम भी अहल्या को अपने साथ पाकर सुखी हो गये। उन्होंने श्रीराम की विधिवत् पूजा करके तपस्या आरम्भ की॥ २१॥
रामोऽपि परमां पूजां गौतमस्य महामुनेः।
सकाशाद् विधिवत् प्राप्य जगाम मिथिलां ततः॥२२॥
महामुनि गौतम की ओर से विधिपूर्वक उत्तम पूजा -आदर-सत्कार पाकर श्रीराम भी मुनिवर विश्वामित्रजी के साथ मिथिलापुरी को चले गये॥ २२ ॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे एकोनपञ्चाशः सर्गः॥४९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में उनचासवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ४९॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ५०
बालकाण्डम्
पञ्चाशः सर्गः (सर्ग 50)
( श्रीराम आदि का मिथिला-गमन, राजा जनक द्वारा विश्वामित्र का सत्कार तथा उनका श्रीराम और लक्ष्मण के विषय में जिज्ञासा करना एवं परिचय पाना )
श्लोक:
ततः प्रागुत्तरां गत्वा रामः सौमित्रिणा सह।
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य यज्ञवाटमुपागमत्॥१॥
भावार्थ :-
तदनन्तर लक्ष्मण सहित श्रीराम विश्वामित्रजी को – आगे करके महर्षि गौतम के आश्रम से ईशान कोण की ओर चले और मिथिला नरेश के यज्ञमण्डप में जा पहुँचे॥१॥
श्लोक:
रामस्तु मुनिशार्दूलमुवाच सहलक्ष्मणः।
साध्वी यज्ञसमृद्धिर्हि जनकस्य महात्मनः॥२॥
भावार्थ :-
वहाँ लक्ष्मण सहित श्रीरामने मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र से कहा- ’महाभाग! महात्मा जनक के यज्ञका समारोह तो बड़ा सुन्दर दिखायी दे रहा है॥२॥
श्लोक:
बहूनीह सहस्राणि नानादेशनिवासिनाम्।
ब्राह्मणानां महाभाग वेदाध्ययनशालिनाम्॥३॥
भावार्थ :-
यहाँ नाना देशोंके निवासी सहस्रों ब्राह्मण जुटे हुए हैं, जो वेदोंके स्वाध्यायसे शोभा पा रहे हैं॥३॥
ऋषिवाटाश्च दृश्यन्ते शकटीशतसंकुलाः।
देशो विधीयतां ब्रह्मन् यत्र वत्स्यामहे वयम्॥४॥
‘ऋषियों के बाड़े सैकड़ों छकड़ों से भरे दिखायी दे रहे हैं। ब्रह्मन्! अब ऐसा कोई स्थान निश्चित कीजिये, जहाँ हम लोग भी ठहरें’॥ ४॥
रामस्य वचनं श्रुत्वा विश्वामित्रो महामुनिः।
निवासमकरोद देशे विविक्ते सलिलान्विते॥५॥
श्रीरामचन्द्रजी का यह वचन सुनकर महामुनि विश्वामित्र ने एकान्त स्थान में डेरा डाला, जहाँ पानी का सुभीता था॥५॥
विश्वामित्रमनुप्राप्तं श्रुत्वा नृपवरस्तदा।
शतानन्दं पुरस्कृत्य पुरोहितमनिन्दितः॥६॥
अनिन्द्य (उत्तम) आचार-विचार वाले नृपश्रेष्ठ महाराज जनक ने जब सुना कि विश्वामित्रजी पधारे हैं, तब वे तुरंत अपने पुरोहित शतानन्द को आगे करके [अर्घ्य लिये विनीत भाव से उनका स्वागत करने को चल दिये]॥
ऋत्विजोऽपि महात्मानस्त्वय॑मादाय सत्वरम्।
प्रत्युज्जगाम सहसा विनयेन समन्वितः॥७॥
विश्वामित्राय धर्मेण ददौ धर्मपुरस्कृतम्।
उनके साथ अर्घ्य लिये महात्मा ऋत्विज भी शीघ्रतापूर्वक चले। राजा ने विनीत भाव से सहसा आगे बढ़कर महर्षिकी अगवानी की तथा धर्मशास्त्र के अनुसार विश्वामित्र को धर्मयुक्त अर्घ्य समर्पित किया॥७ १/२॥
प्रतिगृह्य तु तां पूजां जनकस्य महात्मनः॥८॥
पप्रच्छ कुशलं राज्ञो यज्ञस्य च निरामयम्।
महात्मा राजा जनक की वह पूजा ग्रहण करके मुनि ने उनका कुशल-समाचार पूछा तथा उनके यज्ञ की निर्बाध स्थिति के विषय में जिज्ञासा की॥ ८ १/२॥
स तांश्चाथ मुनीन् पृष्ट्वा सोपाध्यायपुरोधसः॥९॥
यथार्हमृषिभिः सर्वैः समागच्छत् प्रहृष्टवत्।
राजा के साथ जो मुनि, उपाध्याय और पुरोहित आये थे, उनसे भी कुशल-मंगल पूछकर विश्वामित्र जी बड़े हर्ष के साथ उन सभी महर्षियों से यथा योग्य मिले॥ ९ १/२॥
अथ राजा मुनिश्रेष्ठं कृताञ्जलिरभाषत॥१०॥
आसने भगवानास्तां सहैभिर्मुनिपुंगवैः।
इसके बाद राजा जनक ने मुनिवर विश्वामित्र से हाथ जोड़कर कहा—’भगवन्! आप इन मुनीश्वरों के साथ आसन पर विराजमान होइये’ ॥ १० १/२॥
जनकस्य वचः श्रुत्वा निषसाद महामुनिः॥११॥
पुरोधा ऋत्विजश्चैव राजा च सहमन्त्रिभिः।
आसनेषु यथान्यायमुपविष्टाः समन्ततः॥१२॥
यह बात सुनकर महामुनि विश्वामित्र आसन पर बैठ गये। फिर पुरोहित, ऋत्विज् तथा मन्त्रियों सहित राजा भी सब ओर यथायोग्य आसनों पर विराजमान हो गये।
दृष्ट्वा स नृपतिस्तत्र विश्वामित्रमथाब्रवीत्।
अद्य यज्ञसमृद्धिर्मे सफला दैवतैः कृता॥१३॥
तत्पश्चात् राजा जनक ने विश्वामित्रजी की ओर देखकर कहा—’भगवन्! आज देवताओं ने मेरे यज्ञ की आयोजना सफल कर दी।। १३ ।।
अद्य यज्ञफलं प्राप्तं भगवदर्शनान्मया।
धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि यस्य मे मुनिपुंगवः॥१४॥
यज्ञोपसदनं ब्रह्मन् प्राप्तोऽसि मुनिभिः सह।
‘आज पूज्य चरणों के दर्शन से मैंने यज्ञ का फल पा लिया। ब्रह्मन्! आप मुनियों में श्रेष्ठ हैं आपने इतने महर्षियों के साथ मेरे यज्ञमण्डप में पदार्पण किया, – इससे मैं धन्य हो गया। यह मेरे ऊपर आपका बहुत बड़ा अनुग्रह है॥ १४ १/२॥
द्वादशाहं तु ब्रह्मर्षे दीक्षामाहुर्मनीषिणः॥ १५॥
ततो भागार्थिनो देवान् द्रष्टमर्हसि कौशिक।
‘ब्रह्मर्षे! मनीषी ऋत्विजों का कहना है कि ‘मेरी यज्ञ दीक्षा के बारह दिन ही शेष रह गये हैं,अतः कुशिकनन्दन! बारह दिनों के बाद यहाँ भाग ग्रहण करने के लिये आये हुए देवताओं का दर्शन कीजियेगा’।
इत्युक्त्वा मुनिशार्दूलं प्रहृष्टवदनस्तदा ॥१६॥
पुनस्तं परिपप्रच्छ प्राञ्जलिः प्रयतो नृपः।
मुनिवर विश्वामित्र से ऐसा कहकर उस समय प्रसन्नमुख हुए जितेन्द्रिय राजा जनक ने पुनः उनसे हाथ जोड़कर पूछा— ॥ १६ १/२ ॥
इमौ कुमारौ भद्रं ते देवतुल्यपराक्रमौ॥१७॥
गजतुल्यगती वीरौ शार्दूलवृषभोपमौ।
पद्मपत्रविशालाक्षौ खड्गतूणीधनुर्धरौ।
अश्विनाविव रूपेण समुपस्थितयौवनौ॥१८॥
‘महामुने! आपका कल्याण हो देवताके समान पराक्रमी और सुन्दर आयुध धारण करने वाले ये दोनों वीर राजकुमार जो हाथी के समान मन्दगति से चलते हैं, सिंह और साँड़ के समान जान पड़ते हैं, प्रफुल्ल कमल दल के समान सुशोभित हैं, तलवार, तरकस और धनुष धारण किये हुए हैं, अपने मनोहर रूप से अश्विनीकुमारों को भी लज्जित कर रहे हैं, जिन्होंने अभी-अभी यौवनावस्था में प्रवेश किया है तथा
यदृच्छयेव गां प्राप्तौ देवलोकादिवामरौ।
कथं पद्भ्यामिह प्राप्तौ किमर्थं कस्य वा मुने॥ १९॥
वरायुधधरौ वीरौ कस्य पुत्रौ महामुने।
भूषयन्ताविमं देशं चन्द्रसूर्याविवाम्बरम्॥२०॥
परस्परस्य सदृशौ प्रमाणेङ्गितचेष्टितैः।
काकपक्षधरौ वीरौ श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ २१॥
जो स्वेच्छानुसार देवलोक से उतरकर पृथ्वी पर आये हुए दो देवताओं के समान जान पड़ते हैं, किसके पुत्र हैं? और यहाँ कैसे, किसलिये अथवा किस उद्देश्य से पैदल ही पधारे हैं? जैसे चन्द्रमा और सूर्य आकाश की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार ये अपनी उपस्थिति से इस देश को विभूषित कर रहे हैं। ये दोनों एक-दूसरे से बहुत मिलते-जुलते हैं। इनके शरीर की ऊँचाई, संकेत और चेष्टाएँ प्रायः एक-सी हैं। मैं इन दोनों काकपक्षधारी वीरों का परिचय एवं वृत्तान्त यथार्थरूप से सुनना चाहता हूँ’॥ १७–२१॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा जनकस्य महात्मनः।
न्यवेदयदमेयात्मा पुत्रौ दशरथस्य तौ॥२२॥
महात्मा जनक का यह प्रश्न सुनकर अमित आत्मबल से सम्पन्न विश्वामित्रजी ने कहा—’राजन् ! ये दोनों महाराज दशरथ के पुत्र हैं’ ॥ २२ ॥
सिद्धाश्रमनिवासं च राक्षसानां वधं तथा।
तत्रागमनमव्यग्रं विशालायाश्च दर्शनम्॥२३॥
अहल्यादर्शनं चैव गौतमेन समागमम्।
महाधनुषि जिज्ञासां कर्तुमागमनं तथा॥२४॥
इसके बाद उन्होंने उन दोनों के सिद्धाश्रम में निवास, राक्षसों के वध, बिना किसी घबराहट के मिथिला तक आगमन, विशालापुरी के दर्शन, अहल्या के साक्षात्कार तथा महर्षि गौतम के साथ समागम आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया। फिर अन्त में यह भी बताया कि ‘ये आपके यहाँ रखे हुए महान् धनुष के सम्बन्ध में कुछ जानने की इच्छा से यहाँ तक आये हैं’। २३-२४॥
एतत् सर्वं महातेजा जनकाय महात्मने।
निवेद्य विररामाथ विश्वामित्रो महामुनिः॥२५॥
महात्मा राजा जनक से ये सब बातें निवेदन करके महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र चुप हो गये॥ २५ ॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे पञ्चाशः सर्गः॥५०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में पचासवाँ सर्ग पूरा हुआ। ५०॥

