श्री दुर्गा सप्तशती- प्राधानिकं रहस्यम्

श्री दुर्गा सप्तशती - प्राधानिकं रहस्यम्

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श्री दुर्गा सप्तशती - प्राधानिकं रहस्यम्

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॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ श्री कमलापति नम: ॥
॥ श्री जानकीवल्लभो विजयते ॥
॥ जय माता दी ॥

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प्राधानिकं रहस्यम्

॥विनियोगः॥

ॐ अस्य श्रीसप्तशतीरहस्यत्रयस्य नारायण ऋषिरनुष्टुप्छन्दः,
महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवता यथोक्तफलावाप्त्यर्थं जपे विनियोगः।

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राजोवाच

भगवन्नवतारा मे चण्डिकायास्त्वयोदिताः।
एतेषां प्रकृतिं ब्रह्मन् प्रधानं वक्तुमर्हसि॥१॥

आराध्यं यन्मया देव्याः स्वरूपं येन च द्विज।
विधिना ब्रूहि सकलं यथावत्प्रणतस्य मे॥२॥

ऋषिरूवाच-

इदं रहस्यं परममनाख्येयं प्रचक्षते।
भक्तोऽसीति न मे किञ्चित्तवावाच्यं नराधिप॥३॥

सर्वस्याद्या महालक्ष्मीस्त्रिगुणा परमेश्‍वरी।
लक्ष्यालक्ष्यस्वरूपा सा व्याप्य कृत्स्नं व्यवस्थिता॥४॥

ॐ सप्तशती के इन तीनों रहस्यों के नारायण ऋषि, अनुष्टुप् छन्द तथा महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती देवता हैं। शास्त्रोक्त फल की प्राप्ति के लिये जप में इनका विनियोग होता है। राजा बोले- भगवन्! आपने चण्डिका के अवतारों की कथा मुझसे कही। ब्रह्मन्! अब इन अवतारों की प्रधान प्रकृति का निरूपण कीजिये॥१॥

द्विजश्रेष्ठ! मैं आपके चरणों में पड़ा हूँ। मुझे देवी के जिस स्वरूप की और जिस विधिसे आराधना करनी है, वह सब यथार्थ रूप से बतलाइये॥२॥

ऋषि कहते हैं- राजन्! यह रहस्य परम गोपनीय है। इसे किसी से कहने- योग्य नहीं बतलाया गया है; किंतु तुम मेरे भक्त हो, इसलिये तुमसे न कहने- योग्य मेरे पास कुछ भी नहीं है॥३॥

त्रिगुणमयी परमेश्वरी महालक्ष्मी ही सबका आदि कारण हैं। वे ही दृश्य और अदृश्य रूप से सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करके स्थित हैं॥४॥

मातुलुङ्गं गदां खेटं पानपात्रं च बिभ्रती।
नागं लिङ्गं च योनिं च बिभ्रती नृप मूर्धनि॥५॥

तप्तकाञ्चनवर्णाभा तप्तकाञ्चनभूषणा।
शून्यं तदखिलं स्वेन पूरयामास तेजसा॥६॥

शून्यं तदखिलं लोकं विलोक्य परमेश्‍वरी।
बभार परमं रूपं तमसा केवलेन हि॥७॥

सा भिन्नाञ्जनसंकाशा दंष्ट्राङ्कितवरानना।
विशाललोचना नारी बभूव तनुमध्यमा॥८॥

खड्गपात्रशिरःखेटैरलङ्कृतचतुर्भुजा।
कबन्धहारं शिरसा बिभ्राणा हि शिरःस्रजम्॥९॥

सा प्रोवाच महालक्ष्मीं तामसी प्रमदोत्तमा।
नाम कर्म च मे मातर्देहि तुभ्यं नमो नमः॥१०॥

राजन्! वे अपनी चार भुजाओं में मातुलुंग (बिजौरे का फल), गदा, खेट (ढाल) एवं पानपात्र और मस्तक पर नाग, लिंग तथा योनि- इन वस्तुओं को धारण करती हैं॥५॥

तपाये हुए सुवर्ण के समान उनकी कान्ति है, तपाये हुए सुवर्ण के ही उनके भूषण हैं। उन्होंने अपने तेज से इस शून्य जगत्‌ को परिपूर्ण किया है॥६॥

परमेश्वरी महालक्ष्मी ने इस सम्पूर्ण जगत्को शून्य देखकर केवल तमोगुण रूप उपाधि के द्वारा एक अन्य उत्कृष्ट रूप धारण किया॥७॥

वह रूप एक नारी के रूप में प्रकट हुआ, जिसके शरीर की कान्ति निखरे हुए काजल की भाँति काले रंग की थी, उसका श्रेष्ठ मुख दाढ़ों से सुशोभित था। नेत्र बड़े-बड़े और कमर पतली थी॥८॥

उसकी चार भुजाएँ ढाल, तलवार, प्याले और कटे हुए मस्तक से सुशोभित थीं। वह वक्ष:स्थल पर कबन्ध (धड़) की तथा मस्तक पर मुण्डों की माला धारण किये हुए थी॥९॥

इस प्रकार प्रकट हुई स्त्रियों में श्रेष्ठ तामसीदेवी ने महालक्ष्मी से कहा- ‘माताजी! आपको नमस्कार है । मुझे मेरा नाम और कर्म बताइये’॥१०॥

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तां प्रोवाच महालक्ष्मीस्तामसीं प्रमदोत्तमाम्।
ददामि तव नामानि यानि कर्माणि तानि ते॥११॥

महामाया महाकाली महामारी क्षुधा तृषा।
निद्रा तृष्णा चैकवीरा कालरात्रिर्दुरत्यया॥१२॥

इमानि तव नामानि प्रतिपाद्यानि कर्मभिः।
एभिः कर्माणि ते ज्ञात्वा योऽधीते सोऽश्‍नुते सुखम्॥१३॥

तामित्युक्त्वा महालक्ष्मीः स्वरूपमपरं नृप।
सत्त्‍‌वाख्येनातिशुद्धेन गुणेनेन्दुप्रभं दधौ॥१४॥

अक्षमालाङ्कुशधरा वीणापुस्तकधारिणी।
सा बभूव वरा नारी नामान्यस्यै च सा ददौ॥१५॥

महाविद्या महावाणी भारती वाक् सरस्वती।
आर्या ब्राह्मी कामधेनुर्वेदगर्भा च धीश्‍वरी॥१६॥

अथोवाच महालक्ष्मीर्महाकालीं सरस्वतीम्।
युवां जनयतां देव्यौ मिथुने स्वानुरूपतः॥१७॥

तब महालक्ष्मी ने स्त्रियों में श्रेष्ठ उस तामसीदेवी से कहा- ‘मैं तुम्हें नाम प्रदान करती हूँ और तुम्हारे जो-जो कर्म हैं, उनको भी बतलाती हूँ,॥११॥

महामाया, महाकाली, महामारी, क्षुधा, तृषा, निद्रा, तृष्णा, एकवीरा, कालरात्रि तथा दुरत्यया-॥१२॥

ये तुम्हारे नाम हैं, जो कर्मों के द्वारा लोक में चरितार्थ होंगे। इन नामों के द्वारा तुम्हारे कर्मों को जानकर जो उनका पाठ करता है, वह सुख भोगता है’॥१३॥

राजन्! महाकाली से यों कहकर महालक्ष्मी ने अत्यन्त शुद्ध सत्त्वगुण के द्वारा दूसरा रूप धारण किया, जो चन्द्रमा के समान गौरवर्ण था॥१४॥

वह श्रेष्ठ नारी अपने हाथों में अक्षमाला, अंकुश, वीणा तथा पुस्तक धारण किये हुए थी। महालक्ष्मी ने उसे भी नाम प्रदान किये॥१५॥

महाविद्या, महावाणी, भारती, वाक्, सरस्वती, आर्या, ब्राह्मी, कामधेनु, वेदगर्भा और धीश्वरी (बुद्धिकी स्वामिनी )- ये तुम्हारे नाम होंगे॥१६॥

तदनन्तर महालक्ष्मी ने महाकाली और महासरस्वती से कहा- ‘देवियो! तुम दोनों अपने-अपने गुणों के योग्य स्त्री-पुरुष के जोड़े उत्पन्न करो’॥१७॥

इत्युक्त्वा ते महालक्ष्मीः ससर्ज मिथुनं स्वयम्।
हिरण्यगर्भौ रुचिरौ स्त्रीपुंसौ कमलासनौ॥१८॥

ब्रह्मन् विधे विरिञ्चेति धातरित्याह तं नरम्।
श्रीः पद्मे कमले लक्ष्मीत्याह माता च तां स्त्रियम्॥१९॥

महाकाली भारती च मिथुने सृजतः सह।
एतयोरपि रूपाणि नामानि च वदामि ते॥२०॥

नीलकण्ठं रक्तबाहुं श्‍वेताङ्गं चन्द्रशेखरम्।
जनयामास पुरुषं महाकाली सितां स्त्रियम्॥२१॥

स रुद्रः शंकरः स्थाणुः कपर्दी च त्रिलोचनः।
त्रयी विद्या कामधेनुः सा स्त्री भाषाक्षरा स्वरा॥२२॥

सरस्वती स्त्रियं गौरीं कृष्णं च पुरुषं नृप।
जनयामास नामानि तयोरपि वदामि ते॥२३॥

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उन दोनों से यों कहकर महालक्ष्मी ने पहले स्वयं ही स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा उत्पन्न किया। वे दोनों हिरण्यगर्भ (निर्मल ज्ञान से सम्पन्न) सुन्दर तथा कमल के आसन पर विराजमान थे। उनमें से एक स्त्री थी और दूसरा पुरुष॥१८॥

तत्पश्चात् माता महालक्ष्मी ने पुरुष को ब्रह्मन्! विधे! विरिंच! तथा धात:! इस प्रकार सम्बोधित किया और स्त्री को श्री! पद्मा! कमला! लक्ष्मी! इत्यादि नामों से पुकारा॥१९॥

इसके बाद महाकाली और महासरस्वती ने भी एक- एक जोड़ा उत्पन्न किया। इनके भी रूप और नाम मैं तुम्हें बतलाता हूँ॥२०॥

महाकाली ने कण्ठ में नील चिह्न से युक्त, लाल भुजा, श्वेत शरीर और मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट धारण करने वाले पुरुष को तथा गोरे रंग की स्त्री को जन्म दिया॥२१॥

वह पुरुष रुद्र, शंकर, स्थाणु, कपर्दी और त्रिलोचन के नाम से प्रसिद्ध हुआ तथा स्त्री के त्रयी, विद्या, कामधेनु, भाषा, अक्षरा और स्वरा- ये नाम हुए॥२२॥

राजन्! महासरस्वती ने गोरे रंग की स्त्री और श्याम रंग के पुरुष को प्रकट किया। उन दोनों के नाम भी मैं तुम्हें बतलाता हूँ॥२३॥

विष्णुः कृष्णो हृषीकेशो वासुदेवो जनार्दनः।
उमा गौरी सती चण्डी सुन्दरी सुभगा शिवा॥२४॥

एवं युवतयः सद्यः पुरुषत्वं प्रपेदिरे।
चक्षुष्मन्तो नु पश्यन्ति नेतरेऽतद्विदो जनाः॥२५॥

ब्रह्मणे प्रददौ पत्‍‌नीं महालक्ष्मीर्नृप त्रयीम्।
रुद्राय गौरीं वरदां वासुदेवाय च श्रियम्॥२६॥

स्वरया सह सम्भूय विरिञ्चोऽण्डमजीजनत्।
बिभेद भगवान् रुद्रस्तद् गौर्या सह वीर्यवान्॥२७॥

अण्डमध्ये प्रधानादि कार्यजातमभून्नृप।
महाभूतात्मकं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम्॥२८॥

उनमें पुरुष के नाम विष्णु, कृष्ण, हृषीकेश, वासुदेव और जनार्दन हुए तथा स्त्री उमा, गौरी, सती, चण्डी, सुन्दरी, सुभगा और शिवा- इन नामों से प्रसिद्ध हुई॥२४॥

इस प्रकार तीनों युवतियाँ ही तत्काल पुरुष रूप को प्राप्त हुईं। इस बात को ज्ञाननेत्र वाले लोग ही समझ सकते हैं। दूसरे अज्ञानीजन इस रहस्य को नहीं जान सकते॥२५॥

राजन्! महालक्ष्मी ने त्रयीविद्यारूपा सरस्वती को ब्रह्मा के लिये पत्नी रूप में समर्पित किया, रुद्र को वरदायिनी गौरी तथा भगवान् वासुदेव को लक्ष्मी दे दी॥२६॥

इस प्रकार सरस्वती के साथ संयुक्त होकर ब्रह्मा जी ने ब्रह्माण्ड को उत्पन्न किया और परम पराक्रमी भगवान् रुद्र ने गौरी के साथ मिलकर उसका भेदन किया॥२७॥

राजन्! उस ब्रह्माण्ड में प्रधान (महत्तत्त्व) आदि कार्य समूह- पंचमहाभूतात्मक समस्त स्थावर-जंगम रूप की उत्पत्ति हुई॥२८॥

पुपोष पालयामास तल्लक्ष्म्या सह केशवः।
संजहार जगत्सर्वं सह गौर्या महेश्‍वरः॥२९॥

महालक्ष्मीर्महाराज सर्वसत्त्‍‌वमयीश्‍वरी।
निराकारा च साकारा सैव नानाभिधानभृत्॥३०॥

नामान्तरैर्निरूप्यैषा नाम्ना नान्येन केनचित्॥ॐ॥३१॥

॥इति प्राधानिकं रहस्यं सम्पूर्णम्॥

फिर लक्ष्मी के साथ भगवान् विष्णु ने उस जगत्का पालन-पोषण किया और प्रलयकाल में गौरी के साथ महेश्वर ने उस सम्पूर्ण जगत्का संहार किया॥२९॥

महाराज! महालक्ष्मी ही सर्वसत्त्वमयी तथा सब सत्त्वों की अधीश्वरी हैं। वे ही निराकार और साकार रूप में रहकर नाना प्रकार के नाम धारण करती हैं॥३०॥

सगुणवाचक सत्य, ज्ञान, चित्, महामाया आदि नामान्तरों से इन महालक्ष्मी का निरूपण करना चाहिये। केवल एक नाम (महालक्ष्मी मात्र)- से अथवा अन्य प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से उनका वर्णन नहीं हो सकता॥३१॥

श्री दुर्गा सप्तशती - प्राधानिकं रहस्यम्

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