
मुख पृष्ठ अखंड रामायण वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग- ३१-४०

॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ श्री कमलापति नम: ॥
॥ श्री जानकीवल्लभो विजयते ॥
॥ श्री वाल्मीकि रामायण ॥

वाल्मीकि रामायण
(भावार्थ सहित)
सब एक ही स्थान पर

बालकाण्ड सर्ग- ३१-४०
वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ३१
बालकाण्डम्
एकत्रिंशः सर्गः (सर्ग 31)
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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-
( श्रीराम, लक्ष्मण तथा ऋषियों सहित विश्वामित्र का मिथिला को प्रस्थान तथा मार्ग में संध्या के समय शोणभद्र तट पर विश्राम )
श्लोक:
अथ तां रजनीं तत्र कृतार्थौ रामलक्ष्मणौ।
ऊषतुर्मुदितौ वीरौ प्रहृष्टेनान्तरात्मना॥१॥
भावार्थ :-
तदनन्तर (विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करके) कृतकृत्य हुए श्रीराम और लक्ष्मण ने उस यज्ञशाला में ही वह रात बितायी। उस समय वे दोनों वीर बड़े प्रसन्न थे। उनका हृदय हर्षोल्लाससे परिपूर्ण था॥१॥
श्लोक:
प्रभातायां तु शर्वर्यां कृतपौर्वाणिकक्रियौ।
विश्वामित्रमृषींश्चान्यान् सहितावभिजग्मतुः॥२॥
भावार्थ :-
रात बीतने पर जब प्रातःकाल आया, तब वे दोनों भाई पूर्वाण काल के नित्य-नियम से निवृत्त हो विश्वामित्र मुनि तथा अन्य ऋषियों के पास साथ-साथ गये॥२॥
श्लोक:
अभिवाद्य मुनिश्रेष्ठं ज्वलन्तमिव पावकम्।
ऊचतुः परमोदारं वाक्यं मधुरभाषिणौ॥३॥
भावार्थ :-
वहाँ जाकर उन्होंने प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ! विश्वामित्र को प्रणाम किया और मधुर भाषा में यह परम उदार वचन कहा-॥३॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ३२
बालकाण्डम्
द्वात्रिंशः सर्गः (सर्ग 32)
( ब्रह्मपुत्र कुश के चार पुत्रों का वर्णन, शोणभद्र-तटवर्ती प्रदेश को वसु की भूमि बताना, कुशनाभ की सौ कन्याओंका वायु के कोप से ‘कुब्जा’ होना )
श्लोक:
ब्रह्मयोनिमहानासीत् कुशो नाम महातपाः।
अक्लिष्टव्रतधर्मज्ञः सज्जनप्रतिपूजकः॥१॥
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भावार्थ :-
(विश्वामित्रजी कहते हैं-) श्रीराम! पूर्वकाल में कुश नाम से प्रसिद्ध एक महातपस्वी राजा हो गये हैं। वे साक्षात् ब्रह्माजी के पुत्र थे। उनका प्रत्येक व्रत एवं संकल्प बिना किसी क्लेश या कठिनाई के ही पूर्ण होता था। वे धर्मके ज्ञाता, सत्पुरुषों का आदर करने वाले और महान् थे॥१॥
श्लोक:
स महात्मा कुलीनायां युक्तायां सुमहाबलान्।
वैदर्थ्यां जनयामास चतुरः सदृशान् सुतान्॥२॥
भावार्थ :-
उत्तम कुल में उत्पन्न विदर्भदेश की राजकुमारी उनकी पत्नी थी। उसके गर्भ से उन महात्मा नरेश ने चार पुत्र उत्पन्न किये, जो उन्हीं के समान थे॥२॥
श्लोक:
कुशाम्बं कुशनाभं च असूर्तरजसं वसुम्।
दीप्तियुक्तान् महोत्साहान् क्षत्रधर्मचिकीर्षया॥ ३॥
तानुवाच कुशः पुत्रान् धर्मिष्ठान् सत्यवादिनः।
क्रियतां पालनं पुत्रा धर्मं प्राप्स्यथ पुष्कलम्॥४॥
भावार्थ :-
उनके नाम इस प्रकार हैं-कुशाम्ब, कुशनाभ, असूर्तरजस’ तथा वसु, ये सब-के-सब तेजस्वी तथा महान् उत्साही थे। राजा कुशने ‘प्रजारक्षणरूप’ क्षत्रिय-धर्मके पालन की इच्छा से अपने उन धर्मिष्ठ तथा सत्यवादी पुत्रों से कहा—’पुत्रो! प्रजाका पालन करो, इससे तुम्हें धर्म का पूरा-पूरा फल प्राप्त होगा’॥३-४॥
१. रामायणशिरोमणि नामक व्याख्या के निर्माता ने ‘अमूर्तिरजसम्’ पाठ माना है। महाभारत के अनुसार इनका नाम ‘अमूर्तरयस्’ या ‘अमूर्तरया’ था (वन ९५।१७)। यहाँ इनके द्वारा धर्मारण्य नामक नगर बसानेका उल्लेख है। यह नगर धर्मारण्य नामक तीर्थभूत वन में था। यह वन गया के आस-पास का ही प्रदेश है। अमूर्तरया के पुत्र गयने ही गया नामक नगर बसाया था। अतः धर्मारण्य और गया की एकता सिद्ध होती है। महाभारत वनपर्व (८४१८५) में गया के ब्रह्मसरोवर को धर्मारण्य से सुशोभित बताया गया है। (वन० ८२६४७)

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ३३
बालकाण्डम्
त्रयस्त्रिंशः सर्गः (सर्ग 33)
( राजा कुशनाभद्वारा कन्याओं के धैर्य एवं क्षमाशीलता की प्रशंसा, ब्रह्मदत्त की उत्पत्ति तथा उनके साथ कुशनाभ की कन्याओं का विवाह )
श्लोक:
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा कुशनाभस्य धीमतः।
शिरोभिश्चरणौ स्पृष्ट्वा कन्याशतमभाषत॥१॥
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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-
भावार्थ :-
बुद्धिमान् महाराज कुशनाभ का वह वचन सुनकर उन सौ कन्याओंने पिता के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा-॥१॥
श्लोक:
वायुः सर्वात्मको राजन् प्रधर्षयितुमिच्छति।
अशुभं मार्गमास्थाय न धर्मं प्रत्यवेक्षते॥२॥
भावार्थ :-
राजन्! सर्वत्र संचार करने वाले वायुदेव अशुभ मार्गका अवलम्बन करके हमपर बलात्कार करना चाहते थे धर्मपर उनकी दृष्टि नहीं थी॥२॥
श्लोक:
पितृमत्यः स्म भद्रं ते स्वच्छन्दे न वयं स्थिताः।
पितरं नो वृणीष्व त्वं यदि नो दास्यते तव॥३॥
भावार्थ :-
हमने उनसे कहा—’देव! आपका कल्याण हो, हमारे पिता विद्यमान हैं; हम स्वच्छन्द नहीं हैं। आप पिताजी के पास जाकर हमारा वरण कीजिये यदि वे हमें आपको सौंप देंगे तो हम आपकी हो जायँगी’॥३॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ३४
बालकाण्डम्
चतुस्त्रिंशः सर्गः (सर्ग 34)
( गाधि की उत्पत्ति, कौशिकी की प्रशंसा, विश्वामित्रजी का कथा बंद करके आधी रात का वर्णन करना )
श्लोक:
कृतोद्धाहे गते तस्मिन् ब्रह्मदत्ते च राघव।
अपुत्रः पुत्रलाभाय पौत्रीमिष्टिमकल्पयत्॥१॥
भावार्थ :-
रघुनन्दन! विवाह करके जब राजा ब्रह्मदत्त चले गये, तब पुत्रहीन महाराज कुशनाभ ने श्रेष्ठ पुत्र की प्राप्तिके लिये पुत्रेष्टि यज्ञका अनुष्ठान किया॥१॥
श्लोक:
इष्टयां तु वर्तमानायां कुशनाभं महीपतिम्।
उवाच परमोदारः कुशो ब्रह्मसुतस्तदा ॥२॥
भावार्थ :-
उस यज्ञ के होते समय परम उदार ब्रह्मकुमार महाराज कुशने भूपाल कुशनाभ से कहा-॥२॥
श्लोक:
पुत्रस्ते सदृशः पुत्र भविष्यति सुधार्मिकः।
गाधि प्राप्स्यसि तेन त्वं कीर्तिं लोके च शाश्वतीम्॥३॥
भावार्थ :-
‘बेटा! तुम्हें अपने समान ही परम धर्मात्मा पुत्र प्राप्त होगा। तुम ‘गाधि’ नामक पुत्र प्राप्त करोगे और उसके द्वारा तुम्हें संसार में अक्षय कीर्ति उपलब्ध होगी’॥३॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ३५
बालकाण्डम्
पञ्चत्रिंशः सर्गः (सर्ग 35)
( शोणभद्र पार करके विश्वामित्र आदि का गंगाजी के तटपर पहुँचकर वहाँ रात्रिवास करना, श्रीराम विश्वामित्रजीका उन्हें गंगाजी की उत्पत्तिकी कथा सुनाना )
श्लोक:
उपास्य रात्रिशेषं तु शोणाकूले महर्षिभिः।
निशायां सुप्रभातायां विश्वामित्रोऽभ्यभाषत।
भावार्थ :-
महर्षियों सहित विश्वामित्र ने रात्रि के शेषभाग में शोणभद्रके तटपर शयन किया। जब रात बीती और प्रभात हुआ, तब वे श्रीरामचन्द्र जी से इस प्रकार बोले–॥१॥
श्लोक:
सुप्रभाता निशा राम पूर्वा संध्या प्रवर्तते।
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते गमनायाभिरोचय॥२॥
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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-
भावार्थ :-
‘श्रीराम! रात बीत गयी। सबेरा हो गया। तुम्हारा कल्याण हो, उठो, उठो और चलनेकी तैयारी करो’॥२॥
श्लोक:
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य कृतपूर्वाणिकक्रियः।
गमनं रोचयामास वाक्यं चेदमुवाच ह॥३॥
भावार्थ :-
मुनिकी बात सुनकर पूर्वाह्णकालका नित्यनियम पूर्ण करके श्रीराम चलनेको तैयार हो गये और इस प्रकार बोले-॥३॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ३६
बालकाण्डम्
षट्त्रिंशः सर्गः (सर्ग 36)
( देवताओं का शिव-पार्वती को सुरतक्रीडा से निवृत्त करना तथा उमादेवी का देवताओं और पृथ्वी को शाप देना )
श्लोक:
उक्तवाक्ये मुनौ तस्मिन्नुभौ राघवलक्ष्मणौ।
प्रतिनन्द्य कथां वीरावूचतुर्मुनिपुंगवम्॥१॥
भावार्थ :-
विश्वामित्र जी की बात समाप्त होने पर श्रीराम और लक्ष्मण दोनों वीरों ने उनकी कही हुई कथा का अभिनन्दन करके मुनिवर विश्वामित्र से इस प्रकार कहा-॥१॥
श्लोक:
धर्मयुक्तमिदं ब्रह्मन् कथितं परमं त्वया।
दुहितुः शैलराजस्य ज्येष्ठाया वक्तुमर्हसि।
विस्तरं विस्तरज्ञोऽसि दिव्यमानुषसम्भवम्॥२॥
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भावार्थ :-
‘ब्रह्मन्! आपने यह बड़ी उत्तम धर्मयुक्त कथा सुनायी। अब आप गिरिराज हिमवान् की ज्येष्ठ पुत्री गंगा के दिव्यलोक तथा मनुष्यलोक से सम्बन्ध होने का वृत्तान्त विस्तार के साथ सुनाइये; क्योंकि आप विस्तृत वृत्तान्त के ज्ञाता हैं॥२॥
श्लोक:
त्रीन् पथो हेतुना केन प्लावयेल्लोकपावनी।
कथं गंगा त्रिपथगा विश्रुता सरिदुत्तमा॥३॥
भावार्थ :-
‘लोक को पवित्र करने वाली गंगा किस कारण से तीन मार्गों में प्रवाहित होती हैं? सरिताओं में श्रेष्ठ गंगाकी ‘त्रिपथगा’ नाम से प्रसिद्धि क्यों हुई?॥३॥
त्रिषु लोकेषु धर्मज्ञ कर्मभिः कैः समन्विता।
तथा ब्रुवति काकुत्स्थे विश्वामित्रस्तपोधनः॥४॥
निखिलेन कथां सर्वामृषिमध्ये न्यवेदयत्।
‘धर्मज्ञ महर्षे! तीनों लोकों में वे अपनी तीन धाराओं के द्वारा कौन-कौन-से कार्य करती हैं?’ श्रीरामचन्द्रजी के इस प्रकार पूछने पर तपोधन विश्वामित्र ने मुनिमण्डली के बीच गंगाजी से सम्बन्ध रखनेवाली सारी बातें पूर्णरूप से कह सुनायीं- ॥ ४ १/२॥
पुरा राम कृतोद्वाहः शितिकण्ठो महातपाः॥५॥
दृष्ट्वा च भगवान् देवीं मैथुनायोपचक्रमे।
‘श्रीराम! पूर्वकाल में महातपस्वी भगवान् नीलकण्ठ ने उमादेवी के साथ विवाह करके उनको नववधूके रूपमें अपने निकट आयी देख उनके साथ रति-क्रीडा आरम्भ की॥ ५ १/२॥
तस्य संक्रीडमानस्य महादेवस्य धीमतः।
शितिकण्ठस्य देवस्य दिव्यं वर्षशतं गतम्॥६॥
‘परम बुद्धिमान् महान् देवता भगवान् नीलकण्ठ के उमादेवी के साथ क्रीडा-विहार करते सौ दिव्य वर्ष बीत गये॥६॥
न चापि तनयो राम तस्यामासीत् परंतप।
सर्वे देवाः समुद्युक्ताः पितामहपुरोगमाः॥७॥
‘शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीराम! इतने वर्षोंतक विहार के बाद भी महादेवजी के उमा देवी के गर्भ से कोई पुत्र नहीं हुआ। यह देख ब्रह्मा आदि सभी देवता उन्हें रोकने का उद्योग करने लगे॥७॥
यदिहोत्पद्यते भूतं कस्तत् प्रतिसहिष्यति।
अभिगम्य सुराः सर्वे प्रणिपत्येदमब्रुवन्॥८॥
“उन्होंने सोचा-इतने दीर्घकाल के पश्चात् यदि रुद्र के तेजसे उमादेवी के गर् भसे कोई महान् प्राणी प्रकट हो भी जाय तो कौन उसके तेज को सहन करेगा? यह विचारकर सब देवता भगवान् शिवके पास जा उन्हें प्रणाम करके यों बोले- ॥८॥
देवदेव महादेव लोकस्यास्य हिते रत।
सुराणां प्रणिपातेन प्रसादं कर्तुमर्हसि॥९॥
‘इस लोक के हितमें तत्पर रहनेवाले देव देव महादेव! देवता आपके चरणोंमें मस्तक झुकाते हैं। इससे प्रसन्न होकर आप इन देवताओंपर कृपा करें॥९॥
न लोका धारयिष्यन्ति तव तेजः सुरोत्तम।
ब्राह्मण तपसा युक्तो देव्या सह तपश्चर॥१०॥
‘सुरश्रेष्ठ! ये लोक आपके तेज को नहीं धारण कर सकेंगे; अतः आप क्रीडा से निवृत्त हो वेद बोधित तपस्या से युक्त होकर उमादेवी के साथ तप कीजिये॥ १०॥
त्रैलोक्यहितकामार्थं तेजस्तेजसि धारय।
रक्ष सर्वानिमाल्लोकान् नालोकं कर्तुमर्हसि ॥ ११॥
‘तीनों लोकोंके हितकी कामनासे अपने तेज (वीर्य) को तेजःस्वरूप अपने-आप में ही धारण कीजिये। इन सब लोकों की रक्षा कीजिये लोकोंका विनाश न कर डालिये’ ॥ ११॥
देवतानां वचः श्रुत्वा सर्वलोकमहेश्वरः।
बाढमित्यब्रवीत् सर्वान् पुनश्चेदमुवाच ह॥१२॥
‘देवताओंकी यह बात सुनकर सर्वलोकमहेश्वर शिवने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया; फिर उनसे इस प्रकार कहा-॥ १२॥
धारयिष्याम्यहं तेजस्तेजसैव सहोमया।
त्रिदशाः पृथिवी चैव निर्वाणमधिगच्छतु॥१३॥
“देवताओ! उमा सहित मैं अर्थात् हम दोनों अपने तेज से ही तेज को धारण कर लेंगे। पृथ्वी आदि सभी लोकों के निवासी शान्ति लाभ करें॥ १३ ॥
यदिदं क्षुभितं स्थानान्मम तेजो ह्यनुत्तमम्।
धारयिष्यति कस्तन्मे ब्रुवन्तु सुरसत्तमाः॥१४॥
‘किंतु सुरश्रेष्ठगण! यदि मेरा यह सर्वोत्तम तेज (वीर्य) क्षुब्ध होकर अपने स्थान से स्खलित हो जाय तो उसे कौन धारण करेगा?—यह मुझे बताओ’। १४॥
एवमुक्तास्ततो देवाः प्रत्यूचुर्वृषभध्वजम्।
यत्तेजः क्षुभितं ह्यद्य तद्धरा धारयिष्यति॥१५॥
उनके ऐसा कहने पर देवताओं ने वृषभध्वज भगवान् शिव से कहा—’भगवन् ! आज आपका जो तेज क्षुब्ध होकर गिरेगा, उसे यह पृथ्वी देवी धारण करेगी’। १५॥
एवमुक्तः सुरपतिः प्रमुमोच महाबलः।
तेजसा पृथिवी येन व्याप्ता सगिरिकानना॥१६॥
‘देवताओंका यह कथन सुनकर महाबली देवेश्वर शिव ने अपना तेज छोड़ा, जिससे पर्वत और वनों सहित यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी॥ १६ ॥
ततो देवाः पुनरिदमूचुश्चापि हुताशनम्।
आविश त्वं महातेजो रौद्रं वायुसमन्वितः॥१७॥
‘तब देवताओंने अग्नि देव से कहा—’अग्ने! तुम वायु के सहयोग से भगवान् शिवके इस महान् तेज को अपने भीतर रख लो’ ॥ १७॥
तदग्निना पुनर्व्याप्तं संजातं श्वेतपर्वतम्।
दिव्यं शरवणं चैव पावकादित्यसंनिभम्॥१८॥
‘अग्नि से व्याप्त होने पर वह तेज श्वेत पर्वत के रूप में परिणत हो गया। साथ ही वहाँ दिव्य सरकंडों का वन भी प्रकट हुआ, जो अग्नि और सूर् यके समान तेजस्वी प्रतीत होता था॥ १८॥
यत्र जातो महातेजाः कार्तिकेयोऽग्निसम्भवः ।
अथोमां च शिवं चैव देवाः सर्षिगणास्तथा॥ १९॥
पूजयामासुरत्यर्थं सुप्रीतमनसस्तदा।
‘उसी वनमें अग्निजनित महातेजस्वी कार्तिकेयका प्रादुर्भाव हुआ। तदनन्तर ऋषियों सहित देवताओं ने अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर देवी उमा और भगवान् शिवका बड़े भक्तिभावसे पूजन किया। १९ १/२॥
अथ शैलसुता राम त्रिदशानिदमब्रवीत्॥२०॥
समन्युरशपत् सर्वान् क्रोधसंरक्तलोचना।
‘श्रीराम! इसके बाद गिरिराजनन्दिनी उमा के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। उन्होंने समस्त देवताओं को रोषपूर्वक शाप दे दिया। वे बोलीं- ॥२० १/२॥
यस्मान्निवारिता चाहं संगता पुत्रकाम्यया॥२१॥
अपत्यं स्वेषु दारेषु नोत्पादयितुमर्हथ।
अद्यप्रभृति युष्माकमप्रजाः सन्तु पत्नयः॥ २२॥
‘देवताओ ! मैंने पुत्र-प्राप्तिकी इच्छा से पति के साथ समागम किया था, परंतु तुमने मुझे रोक दिया अतः अब तुम लोग भी अपनी पत्नियों से संतान उत्पन्न करने योग्य नहीं रह जाओगे। आज से तुम्हारी पत्नियाँ संतानोत्पादन नहीं कर सकेंगी संतानहीन हो जायँगी’ ॥ २१-२२॥
एवमुक्त्वा सुरान् सर्वान् शशाप पृथिवीमपि।
अवने नैकरूपा त्वं बहभार्या भविष्यसि ॥२३॥
‘सब देवताओं से ऐसा कहकर उमादेवी ने पृथिवी को भी शाप दिया—’भूमे! तेरा एक रूप नहीं रह जायगा तू बहुतों की भार्या होगी॥ २३॥
न च पुत्रकृतां प्रीतिं मत्क्रोधकलुषीकृता।
प्राप्स्यसि त्वं सुदुर्मेधो मम पुत्रमनिच्छती॥ २४॥
‘खोटी बुद्धिवाली पृथ्वी! तू चाहती थी कि मेरे पुत्र न हो अतः मेरे क्रोध से कलुषित होकर तू भी पुत्रजनित सुख या प्रसन्नता का अनुभव न कर सकेगी’ ॥ २४॥
तान् सर्वान् पीडितान् दृष्ट्वा सुरान् सुरपतिस्तदा।
गमनायोपचक्राम दिशं वरुणपालिताम्॥ २५॥
‘उन सब देवताओंको उमादेवी के शाप से पीडित देख देवेश्वर भगवान् शिव ने उस समय पश्चिम दिशा की ओर प्रस्थान कर दिया॥ २५ ॥
स गत्वा तप आतिष्ठत् पार्श्वे तस्योत्तरे गिरेः।
हिमवत्प्रभवे श्रृंगे सह देव्या महेश्वरः॥२६॥
‘वहाँ से जाकर हिमालय पर्वत के उत्तर भाग में उसी के एक शिखरपर उमादेवी के साथ भगवान् महेश्वर तप करने लगे॥ २६॥
एष ते विस्तरो राम शैलपुत्र्या निवेदितः।
गंगायाः प्रभवं चैव शृणु मे सहलक्ष्मण ॥२७॥
‘लक्ष्मण सहित श्रीराम! यह मैंने तुम्हें गिरिराज हिमवान् की छोटी पुत्री उमादेवी का विस्तृत वृत्तान्त बताया है अब मुझसे गंगा के प्रादुर्भाव की कथा सुनो’ ।। २७॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे षत्रिंशः सर्गः ॥३६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में छत्तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ३७
बालकाण्डम्
सप्तत्रिंशः सर्गः (सर्ग 37)
( गंगा से कार्तिकेय की उत्पत्ति का प्रसंग )
श्लोक:
तप्यमाने तदा देवे सेन्द्राः साग्निपुरोगमाः।
सेनापतिमभीप्सन्तः पितामहमुपागमन्॥१॥
भावार्थ :-
जब महादेवजी तपस्या कर रहे थे, उस समय इन्द्र और अग्नि आदि सम्पूर्ण देवता अपने लिये सेनापति की इच्छा लेकर ब्रह्माजी के पास आये॥१॥
श्लोक:
ततोऽब्रुवन् सुराः सर्वे भगवन्तं पितामहम्।
प्रणिपत्य सुराराम सेन्द्राः साग्निपुरोगमाः॥२॥
भावार्थ :-
देवताओं को आराम देनेवाले श्रीराम! इन्द्र और अग्निसहित समस्त देवताओं ने भगवान् ब्रह्मा को प्रणाम करके इस प्रकार कहा-॥२॥
श्लोक:
येन सेनापतिर्देव दत्तो भगवता पुरा।
स तपः परमास्थाय तप्यते स्म सहोमया॥३॥
भावार्थ :-
‘प्रभो! पूर्वकाल में जिन भगवान् महेश्वरने हमें (बीजरूपसे) सेनापति प्रदान किया था, वे उमादेवी के साथ उत्तम तप का आश्रय लेकर तपस्या करते हैं॥३॥
यदत्रानन्तरं कार्यं लोकानां हितकाम्यया।
संविधत्स्व विधानज्ञ त्वं हि नः परमा गतिः॥४॥
‘विधि-विधान के ज्ञाता पितामह ! अब लोकहित के लिये जो कर्तव्य प्राप्त हो, उसको पूर्ण कीजिये; क्योंकि आप ही हमारे परम आश्रय हैं’॥ ४॥
देवतानां वचः श्रुत्वा सर्वलोकपितामहः।
सान्त्वयन् मधुरैर्वाक्यैस्त्रिदशानिदमब्रवीत्॥५॥
देवताओं की यह बात सुनकर सम्पूर्ण लोकों के पितामह ब्रह्माजी ने मधुर वचनों द्वारा उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा— ॥५॥
शैलपुत्र्या यदुक्तं तन्न प्रजाः स्वासु पत्निषु।
तस्या वचनमक्लिष्टं सत्यमेव न संशयः॥६॥
‘देवताओ! गिरिराजकुमारी पार्वती ने जो शाप दिया है, उसके अनुसार तुम्हें अपनी पत्नियों के गर्भ से अब कोई संतान नहीं होगी। उमादेवी की वाणी अमोघ है; अतः वह सत्य होकर ही रहेगी,इसमें संशय नहीं है।
इयमाकाशगंगा च यस्यां पुत्रं हुताशनः।
जनयिष्यति देवानां सेनापतिमरिंदमम्॥७॥
‘ये हैं उमा की बड़ी बहिन आकाशगंगा, जिनके गर्भ में शङ्करजी के उस तेज को स्थापित करके अग्निदेव एक ऐसे पुत्र को जन्म देंगे जो देवताओं के शत्रुओं का दमन करने में समर्थ सेनापति होगा॥७॥
ज्येष्ठा शैलेन्द्रदुहिता मानयिष्यति तं सुतम्।
उमायास्तबहुमतं भविष्यति न संशयः॥८॥
‘ये गंगा गिरिराज की ज्येष्ठ पुत्री हैं, अतः अपनी छोटी बहिन के उस पुत्र को अपने ही पुत्र के समान मानेंगी। उमा को भी यह बहुत प्रिय लगेगा इसमें संशय नहीं है’।
तच्छ्रत्वा वचनं तस्य कृतार्था रघुनन्दन।
प्रणिपत्य सुराः सर्वे पितामहमपूजयन्॥९॥
रघुनन्दन! ब्रह्माजीका यह वचन सुनकर सब देवता कृतकृत्य हो गये। उन्होंने ब्रह्माजी को प्रणाम करके उनका पूजन किया॥९॥
ते गत्वा परमं राम कैलासं धातुमण्डितम्।
अग्निं नियोजयामासुः पुत्रार्थं सर्वदेवताः॥१०॥
श्रीराम! विविध धातुओं से अलंकृत उत्तम कैलास पर्वत पर जाकर उन सम्पूर्ण देवताओं ने अग्निदेव को पुत्र उत्पन्न करने के कार्य में नियुक्त किया॥ १० ॥
देवकार्यमिदं देव समाधत्स्व हुताशन।
शैलपुत्र्यां महातेजो गंगायां तेज उत्सृज॥११॥
वे बोले—’देव! हुताशन! यह देवताओं का कार्य है, इसे सिद्ध कीजिये। भगवान् रुद्र के उस महान् तेज को अब आप गंगाजी में स्थापित कर दीजिये’। ११॥
देवतानां प्रतिज्ञाय गंगामभ्येत्य पावकः।
गर्भ धारय वै देवि देवतानामिदं प्रियम्॥१२॥
तब देवताओं से ‘बहुत अच्छा’ कहकर अग्निदेव गंगाजी के निकट आये और बोले—’देवि! आप इस गर्भ को धारण करें यह देवताओं का प्रिय कार्य है’। १२॥
इत्येतद् वचनं श्रुत्वा दिव्यं रूपमधारयत्।
स तस्या महिमां दृष्ट्वा समन्तादवशीर्यत॥१३॥
अग्निदेव की यह बात सुनकर गंगादेवी ने दिव्यरूप धारण कर लिया। उनकी यह महिमा—यह रूप वैभव देखकर अग्निदेव ने उस रुद्र-तेज को उनके सब ओर बिखेर दिया॥१३॥
समन्ततस्तदा देवीमभ्यषिञ्चत पावकः।
सर्वस्रोतांसि पूर्णानि गंगाया रघुनन्दन॥१४॥
रघुनन्दन ! अग्निदेव ने जब गंगादेवी को सब ओर से उस रुद्र-तेजद्वारा अभिषिक्त कर दिया, तब गंगाजी के सारे स्रोत उससे परिपूर्ण हो गये॥ १४ ॥
तमुवाच ततो गंगा सर्वदेवपुरोगमम्।
अशक्ता धारणे देव तेजस्तव समुद्धतम्॥१५॥
दह्यमानाग्निना तेन सम्प्रव्यथितचेतना।
तब गंगा ने समस्त देवताओं के अग्रगामी अग्निदेव से इस प्रकार कहा—’देव! आपके द्वारा स्थापित किये गये इस बढ़े हुए तेजको धारण करने में मैं असमर्थ हूँ। इसकी आँच से जल रही हूँ और मेरी चेतना व्यथित हो गयी है’ ॥ १५ १/२॥
अथाब्रवीदिदं गंगां सर्वदेवहुताशनः ॥१६॥
इह हैमवते पार्वे गर्भोऽयं संनिवेश्यताम्।
तब सम्पूर्ण देवताओं के हविष्य को भोग लगाने वाले अग्निदेव ने गंगादेवी से कहा—’देवि! हिमालय पर्वत के पार्श्वभाग में इस गर्भ को स्थापित कर दीजिये’ ॥ १६ १/२ ॥
श्रुत्वा त्वग्निवचो गंगा तं गर्भमतिभास्वरम्॥ १७॥
उत्ससर्ज महातेजाः स्रोतोभ्यो हि तदानघ।
निष्पाप रघुनन्दन! अग्नि की यह बात सुनकर महातेजस्विनी गंगा ने उस अत्यन्त प्रकाशमान गर्भ को अपने स्रोतों से निकालकर यथोचित स्थान में रख दिया॥
यदस्या निर्गतं तस्मात् तप्तजाम्बूनदप्रभम्॥१८॥
काञ्चनं धरणी प्राप्तं हिरण्यमतुलप्रभम्।
तानं काष्र्णायसं चैव तैक्ष्ण्यादेवाभिजायत॥ १९॥
गंगा के गर्भसे जो तेज निकला, वह तपाये हुए जाम्बूनद नामक सुवर्ण के समान कान्तिमान् दिखायी देने लगा (गंगा सुवर्णमय मेरुगिरि से प्रकट हुई हैं;अतः उनका बालक भी वैसे ही रूप-रंग का हुआ)। पृथ्वीपर जहाँ वह तेजस्वी गर्भ स्थापित हुआ,वहाँ की भूमि तथा प्रत्येक वस्तु सुवर्णमयी हो गयी। उसके आस-पास का स्थान अनुपम प्रभा से प्रकाशित होने वाला रजत हो गया। उस तेज की तीक्ष्णता से ही दूरवर्ती भूभाग की वस्तुएँ ताँबे और लोहे के रूप में परिणत हो गयीं॥ १८-१९॥
मलं तस्याभवत् तत्र त्रपु सीसकमेव च।
तदेतद्धरणीं प्राप्य नानाधातुरवर्धत ॥२०॥
उस तेजस्वी गर्भ का जो मल था, वही वहाँ राँगा और सीसा हुआ। इस प्रकार पृथ्वी पर पड़कर वहतेज नाना प्रकार के धातुओं के रूप में वृद्धि को प्राप्त हुआ॥ २०॥
निक्षिप्तमात्रे गर्भे तु तेजोभिरभिरञ्जितम्।
सर्वं पर्वतसंनद्धं सौवर्णमभवद् वनम्॥२१॥
पृथ्वी पर उस गर् भके रखे जाते ही उसके तेज से व्याप्त होकर पूर्वोक्त श्वेतपर्वत और उससे सम्बन्ध रखने वाला सारा वन सुवर्णमय होकर जगमगाने लगा॥ २१॥
जातरूपमिति ख्यातं तदाप्रभृति राघव।
सुवर्णं पुरुषव्याघ्र हुताशनसमप्रभम्।
तृणवृक्षलतागुल्मं सर्वं भवति काञ्चनम् ॥ २२॥
पुरुषसिंह रघुनन्दन! तभी से अग्नि के समान प्रकाशित होने वाले सुवर्ण का नाम जातरूप हो गया; क्योंकि उसी समय सुवर्ण का तेजस्वी रूप प्रकट हुआ था। उस गर्भ के सम्पर्क से वहाँ का तृण, वृक्ष, लता और गुल्म-सब कुछ सोने का हो गया॥ २२॥
तं कुमारं ततो जातं सेन्द्राः सह मरुद्गणाः।
क्षीरसम्भावनार्थाय कृत्तिकाः समयोजयन्॥ २३॥
तदनन्तर इन्द्र और मरुद्गणों सहित सम्पूर्ण देवताओं ने वहाँ उत्पन्न हए कमार को दूध पिलाने के लिये छहों कृत्तिकाओं को नियुक्त किया॥ २३॥ ।
ताः क्षीरं जातमात्रस्य कृत्वा समयमुत्तमम्।
ददुः पुत्रोऽयमस्माकं सर्वासामिति निश्चिताः॥ २४॥
तब उन कृत्तिकाओं ने ‘यह हम सबका पुत्र हो’ ऐसी उत्तम शर्त रखकर और इस बात का निश्चित विश्वास लेकर उस नवजात बालक को अपना दूध प्रदान किया।॥ २४॥
ततस्तु देवताः सर्वाः कार्तिकेय इति ब्रुवन्।
पुत्रस्त्रैलोक्यविख्यातो भविष्यति न संशयः॥ २५॥
उस समय सब देवता बोले—’यह बालक कार्तिकेय कहलायेगा और तुमलोगोंका त्रिभुवनविख्यात पुत्र होगा—इसमें संशय नहीं है’। २५॥
तेषां तद् वचनं श्रुत्वा स्कन्नं गर्भपरिस्रवे।
स्नापयन् परया लक्ष्या दीप्यमानं यथानलम्॥२६॥
देवताओं का यह अनुकूल वचन सुनकर शिव और पार्वती से स्कन्दित (स्खलित) तथा गंगा द्वारा गर्भस्राव होने पर प्रकट हुए अग्नि के समान उत्तम प्रभा से प्रकाशित होने वाले उस बालक को कृत्तिकाओं ने नहलाया।
स्कन्द इत्यब्रुवन् देवाः स्कन्नं गर्भपरिस्रवे।
कार्तिकेयं महाबाहुं काकुत्स्थ ज्वलनोपमम्॥२७॥
ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम! अग्नितुल्य तेजस्वी महाबाहु कार्तिकेय गर्भस्रावकाल में स्कन्दित हुए थे; इसलिये देवताओं ने उन्हें स्कन्द कहकर पुकारा॥ २७॥
प्रादुर्भूतं ततः क्षीरं कृत्तिकानामनुत्तमम्।
षण्णां षडाननो भूत्वा जग्राह स्तनजं पयः॥२८॥
तदनन्तर कृत्तिकाओं के स्तनों में परम उत्तम दूध प्रकट हुआ। उस समय स्कन्दने अपने छः मुख प्रकट करके उन छहों का एक साथ ही स्तनपान किया॥२८॥
गृहीत्वा क्षीरमेकाना सुकुमारवपुस्तदा।
अजयत् स्वेन वीर्येण दैत्यसैन्यगणान् विभुः॥ २९॥
एक ही दिन दूध पीकर उस सुकुमार शरीर वाले शक्तिशाली कुमार ने अपने पराक्रम से दैत्यों की सारी सेनाओं पर विजय प्राप्त की॥ २९॥
सुरसेनागणपतिमभ्यषिञ्चन्महाद्युतिम्।
ततस्तममराः सर्वे समेत्याग्निपुरोगमाः॥३०॥
तत्पश्चात् अग्नि आदि सब देवताओं ने मिलकर उन महातेजस्वी स्कन्दका देवसेनापति के पदपर अभिषेक किया॥ ३०॥
एष ते राम गंगाया विस्तरोऽभिहितो मया।
कुमारसम्भवश्चैव धन्यः पुण्यस्तथैव च॥३१॥
श्रीराम! यह मैंने तुम्हें गंगाजी के चरित्र को विस्तारपूर्वक बताया है। साथ ही कुमार कार्तिकेय के जन्म का भी प्रसंग सुनाया है, जो श्रोता को धन्य एवं पुण्यात्मा बनाने वाला है॥ ३१॥
भक्तश्च यः कार्तिकेये काकुत्स्थ भुवि मानवः।
आयुष्मान् पुत्रपौत्रैश्च स्कन्दसालोक्यतां व्रजेत्॥ ३२॥
काकुत्स्थ! इस पृथ्वी पर जो मनुष्य कार्तिकेय में भक्तिभाव रखता है, वह इस लोक में दीर्घायु तथा पुत्र-पौत्रों से सम्पन्न हो मृत्यु के पश्चात् स्कन्द के लोक में जाता है।
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे सप्तत्रिंशः सर्गः॥ ३७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥३७॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ३८
बालकाण्डम्
अष्टात्रिंशः सर्गः (सर्ग 38)
( राजा सगर के पुत्रों की उत्पत्ति तथा यज्ञ की तैयारी )
श्लोक:
तां कथां कौशिको रामे निवेद्य मधुराक्षराम्।
पुनरेवापरं वाक्यं काकुत्स्थमिदमब्रवीत्॥१॥
भावार्थ :-
विश्वामित्रजी ने मधुर अक्षरों से युक्त वह कथा श्रीराम को सुनाकर फिर उनसे दूसरा प्रसंग इस प्रकार कहा-॥१॥
श्लोक:
अयोध्याधिपतिर्वीर पूर्वमासीन्नराधिपः।
सगरो नाम धर्मात्मा प्रजाकामः स चाप्रजः॥२॥
भावार्थ :-
‘वीर! पहले की बात है, अयोध्या सगर नाम से प्रसिद्ध एक धर्मात्मा राजा राज्य करते थे। उन्हें कोई पुत्र नहीं था; अतः वे पुत्र-प्राप्ति के लिये सदा उत्सुक रहा करते थे॥२॥
श्लोक:
वैदर्भदुहिता राम केशिनी नाम नामतः।
ज्येष्ठा सगरपत्नी सा धर्मिष्ठा सत्यवादिनी॥३॥
भावार्थ :-
‘श्रीराम! विदर्भराजकुमारी केशिनी राजा सगर की ज्येष्ठ पत्नी थी। वह बड़ी धर्मात्मा और सत्यवादिनी थी॥३॥
अरिष्टनेमेर्दुहिता सुपर्णभगिनी तु सा।
द्वितीया सगरस्यासीत् पत्नी सुमतिसंज्ञिता॥४॥
‘सगर की दूसरी पत्नी का नाम सुमति था। वह अरिष्टनेमि कश्यप की पुत्री तथा गरुड की बहिन थी॥ ४॥
ताभ्यां सह महाराजः पत्नीभ्यां तप्तवांस्तपः।
हिमवन्तं समासाद्य भृगुप्रस्रवणे गिरौ॥५॥
‘महाराज सगर अपनी उन दोनों पत्नियों के साथ हिमालय पर्वतपर जाकर भृगुप्रस्रवण नामक शिखर पर तपस्या करने लगे।॥ ५॥
अथ वर्षशते पूर्णे तपसाऽऽराधितो मुनिः।
सगराय वरं प्रादाद् भृगुः सत्यवतां वरः॥६॥
‘सौ वर्ष पूर्ण होने पर उनकी तपस्या द्वारा प्रसन्न हुए सत्यवादियों में श्रेष्ठ महर्षि भृगुने राजा सगर को वर दिया॥६॥
अपत्यलाभः सुमहान् भविष्यति तवानघ।
कीर्तिं चाप्रतिमां लोके प्राप्स्यसे पुरुषर्षभ॥७॥
‘निष्पाप नरेश! तुम्हें बहुत-से पुत्रों की प्राप्ति होगी। । पुरुषप्रवर! तुम इस संसार में अनुपम कीर्ति प्राप्त करोगे॥७॥
एका जनयिता तात पुत्रं वंशकरं तव।
षष्टिं पुत्रसहस्राणि अपरा जनयिष्यति॥८॥
‘तात! तुम्हारी एक पत्नी तो एक ही पुत्रको जन्म देगी, जो अपनी वंशपरम्पराका विस्तार करनेवाला होगा तथा दूसरी पत्नी साठ हजार पुत्रोंकी जननी होगी॥८॥
भाषमाणं महात्मानं राजपुत्र्यौ प्रसाद्य तम्।
ऊचतुः परमप्रीते कृताञ्जलिपुटे तदा॥९॥
‘महात्मा भृगु जब इस प्रकार कह रहे थे, उस समय उन दोनों राजकुमारियों (रानियों)-ने उन्हें प्रसन्न करके स्वयं भी अत्यन्त आनन्दित हो दोनों हाथ जोड़कर पूछा- ॥९॥
एकः कस्याः सुतो ब्रह्मन् का बहूञ्जनयिष्यति।
श्रोतुमिच्छावहे ब्रह्मन् सत्यमस्तु वचस्तव॥१०॥
‘ब्रह्मन् ! किस रानी के एक पुत्र होगा और कौन बहुत-से पुत्रों की जननी होगी? हम दोनों यह सुनना चाहती हैं आपकी वाणी सत्य हो’ ।। १० ।।
तयोस्तद् वचनं श्रुत्वा भृगुः परमधार्मिकः।
उवाच परमां वाणी स्वच्छन्दोऽत्र विधीयताम्॥ ११॥
एको वंशकरो वास्तु बहवो वा महाबलाः।
कीर्तिमन्तो महोत्साहाः का वा कं वरमिच्छति॥ १२॥
“उन दोनों की यह बात सुनकर परम धर्मात्मा भृगुने उत्तम वाणी में कहा—’देवियो! तुम लोग यहाँ अपनी इच्छा प्रकट करो। तुम्हें वंश चलाने वाला एक ही पुत्र प्राप्त हो अथवा महान् बलवान्, यशस्वी एवं अत्यन्त उत्साही बहुत-से पुत्र? इन दो वरों में से किस वर को कौन-सी रानी ग्रहण करना चाहती है ?’ ।। ११-१२ ॥
मुनेस्तु वचनं श्रुत्वा केशिनी रघुनन्दन।
पुत्रं वंशकरं राम जग्राह नृपसंनिधौ॥१३॥
‘रघुकुलनन्दन श्रीराम! मुनि का यह वचन सुनकर केशिनी ने राजा सगर के समीप वंश चलाने वाले एक ही पुत्र का वर ग्रहण किया॥१३॥
षष्टिं पुत्रसहस्राणि सुपर्णभगिनी तदा।
महोत्साहान् कीर्तिमतो जग्राह सुमतिः सुतान्॥ १४॥
‘तब गरुड़ की बहिन सुमति ने महान् उत्साही और यशस्वी साठ हजार पुत्रों को जन्म देने का वर प्राप्त किया॥ १४॥
प्रदक्षिणमृषिं कृत्वा शिरसाभिप्रणम्य तम्।
जगाम स्वपुरं राजा सभार्यो रघुनन्दन॥१५॥
‘रघुनन्दन! तदनन्तर रानियों सहित राजा सगर ने महर्षि की परिक्रमा करके उनके चरणों में मस्तक झुकाया और अपने नगर को प्रस्थान किया।॥ १५ ॥
अथ काले गते तस्य ज्येष्ठा पुत्रं व्यजायत।
असमञ्ज इति ख्यातं केशिनी सगरात्मजम्॥ १६॥
‘कुछ काल व्यतीत होने पर बड़ी रानी केशिनी ने सगर के औरस पुत्र ‘असमञ्ज’ को जन्म दिया। १६॥
सुमतिस्तु नरव्याघ्र गर्भतुम्बं व्यजायत।
षष्टिः पुत्रसहस्राणि तुम्बभेदाद् विनिःसृताः॥ १७॥
‘पुरुषसिंह! (छोटी रानी) सुमति ने तूंबी के आकार का एक गर्भपिण्ड उत्पन्न किया। उसको फोड़ने से साठ हजार बालक निकले॥ १७॥
घृतपूर्णेषु कुम्भेषु धात्र्यस्तान् समवर्धयन्।
कालेन महता सर्वे यौवनं प्रतिपेदिरे॥१८॥
“उन्हें घी से भरे हुए घड़ों में रखकर धाइयाँ उनका पालन-पोषण करने लगीं। धीरे-धीरे जब बहुत दिन बीत गये, तब वे सभी बालक युवावस्था को प्राप्त हुए॥
अथ दीर्पण कालेन रूपयौवनशालिनः।
षष्टिः पुत्रसहस्राणि सगरस्याभवंस्तदा॥१९॥
‘इस तरह दीर्घकाल के पश्चात् राजा सगर के रूप और युवावस्था से सुशोभित होने वाले साठ हजार पुत्र तैयार हो गये॥ १९॥
स च ज्येष्ठो नरश्रेष्ठ सगरस्यात्मसम्भवः।
बालान् गृहीत्वा तु जले सरय्वा रघुनन्दन ॥२०॥
प्रक्षिप्य प्राहसन्नित्यं मज्जतस्तान् निरीक्ष्य वै।
‘नरश्रेष्ठ रघुनन्दन! सगर का ज्येष्ठ पुत्र असमञ्ज नगर के बालकों को पकड़कर सरयू के जल में फेंक देता और जब वे डूबने लगते, तब उनकी ओर देखकर हँसा करता॥ २० १/२॥
एवं पापसमाचारः सज्जनप्रतिबाधकः॥२१॥
पौराणामहिते युक्तः पित्रा निर्वासितः पुरात्।
‘इस प्रकार पापाचार में प्रवृत्त होकर जब वह सत्पुरुषों को पीडा देने और नगर-निवासियों का अहित करने लगा, तब पिता ने उसे नग रसे बाहर निकाल दिया॥ २१ १/२॥
तस्य पुत्रोंऽशुमान् नाम असमञ्जस्य वीर्यवान्॥२२॥
सम्मतः सर्वलोकस्य सर्वस्यापि प्रियंवदः।
‘असमञ्ज के पुत्र का नाम था अंशुमान्,वह बड़ा ही पराक्रमी, सबसे मधुर वचन बोलनेवाला तथा सब लोगों को प्रिय था॥ २२ १/२॥
ततः कालेन महता मतिः समभिजायत॥२३॥
सगरस्य नरश्रेष्ठ यजेयमिति निश्चिता।
‘नरश्रेष्ठ! कुछ काल के अनन्तर महाराज सगर के मन में यह निश्चित विचार हुआ कि ‘मैं यज्ञ करूँ’॥ २३ १/२॥
स कृत्वा निश्चयं राजा सोपाध्यायगणास्तदा।
यज्ञकर्मणि वेदज्ञो यष्टुं समुपचक्रमे ॥२४॥
‘यह दृढ़ निश्चय करके वे वेदवेत्ता नरेश अपने उपाध्यायों के साथ यज्ञ करने की तैयारी में लग गये’। २४॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डेऽष्टात्रिंशः सर्गः॥३८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में अड़तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३८॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ३९
बालकाण्डम्
एकोनचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 39)
( इन्द्र के द्वारा राजा सगर के यज्ञ सम्बन्धी अश्व का अपहरण, सगरपुत्रों द्वारा सारी पृथ्वी का भेदन )
श्लोक:
विश्वामित्रवचः श्रुत्वा कथान्ते रघुनन्दनः।
उवाच परमप्रीतो मुनिं दीप्तमिवानलम्॥१॥
भावार्थ :-
विश्वामित्रजी की कही हुई कथा सुनकर श्रीरामचन्द्र जी बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कथा के अन्त में अग्नितुल्य तेजस्वी विश्वामित्र मुनि से कहा–॥१॥
श्लोक:
श्रोतुमिच्छामि भद्रं ते विस्तरेण कथामिमाम्।
पूर्वजो मे कथं ब्रह्मन् यज्ञं वै समुपाहरत्॥२॥
भावार्थ :-
‘ब्रह्मन्! आपका कल्याण हो मैं इस कथा को विस्तार के साथ सुनना चाहता हूँ। मेरे पूर्वज महाराज सगर ने किस प्रकार यज्ञ किया था?’॥२॥
श्लोक:
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा कौतूहलसमन्वितः।
विश्वामित्रस्तु काकुत्स्थमुवाच प्रहसन्निव॥३॥
भावार्थ :-
उनकी वह बात सुनकर विश्वामित्रजी को बड़ा कौतूहल हुआ। वे यह सोचकर कि मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ, उसी के लिये ये प्रश्न कर रहे हैं, जोर-जोर से हँस पड़े। हँसते हुए-से ही उन्होंने श्रीराम से कहा-॥३॥
श्रूयतां विस्तरो राम सगरस्य महात्मनः ।
शंकरश्वशुरो नाम्ना हिमवानिति विश्रुतः॥४॥
विन्ध्यपर्वतमासाद्य निरीक्षेते परस्परम्।
तयोर्मध्ये समभवद् यज्ञः स पुरुषोत्तम॥५॥
‘राम! तुम महात्मा सगर के यज्ञ का विस्तारपूर्वक वर्णन सुनो। पुरुषोत्तम! शङ्करजी के श्वशुर हिमवान् नाम से विख्यात पर्वत विन्ध्याचल तक पहुँचकर तथा विन्ध्यपर्वत हिमवान् तक पहुँचकर दोनों एक दूसरेको देखते हैं (इन दोनों के बीच में दूसरा कोई ऐसा ऊँचा पर्वत नहीं है, जो दोनों के पारस्परिक दर्शन में बाधा उपस्थित कर सके)। इन्हीं दोनों पर्वतों के बीच आर्यावर्त की पुण्यभूमि में उस यज्ञ का अनुष्ठान हुआ था॥ ४-५॥
स हि देशो नरव्याघ्र प्रशस्तो यज्ञकर्मणि।
तस्याश्वचयाँ काकुत्स्थ दृढधन्वा महारथः॥६॥
अंशुमानकरोत् तात सगरस्य मते स्थितः।
‘पुरुषसिंह! वही देश यज्ञ करनेके लिये उत्तम माना गया है। तात ककुत्स्थनन्दन! राजा सगरकी आज्ञासे यज्ञिय अश्वकी रक्षाका भार सुदृढ़ धनुर्धर महारथी अंशुमान् ने स्वीकार किया था। ६ १/२॥
तस्य पर्वणि तं यज्ञं यजमानस्य वासवः॥७॥
राक्षसी तनुमास्थाय यज्ञियाश्वमपाहरत्।
‘परंतु पर्व के दिन यज्ञ में लगे हुए राजा सगर के यज्ञ सम्बन्धी घोड़े को इन्द्र ने राक्षस का रूप धारण करके चुरा लिया॥ ७ १/२ ॥
ह्रियमाणे तु काकुत्स्थ तस्मिन्नश्वे महात्मनः॥ ८॥
उपाध्यायगणाः सर्वे यजमानमथाब्रुवन्।
अयं पर्वणि वेगेन यज्ञियाश्वोऽपनीयते॥९॥
हर्तारं जहि काकुत्स्थ हयश्चैवोपनीयताम्।
यज्ञच्छिद्रं भवत्येतत् सर्वेषामशिवाय नः॥१०॥
तत् तथा क्रियतां राजन् यज्ञोऽच्छिद्रः कृतो भवेत्
‘काकुत्स्थ! महामना सग रके उस अश्व का अपहरण होते समय समस्त ऋत्विजों ने यजमान सगर से कहा—’ककुत्स्थनन्दन! आज पर् वके दिन कोई इस यज्ञ सम्बन्धी अश्व को चुराकर बड़े वेग से लिये जा रहा है। आप चोर को मारिये और घोड़ा वापस लाइये, नहीं तो यज्ञ में विघ्न पड़ जायगा और वह हम सब लोगों के लिये अमंगल का कारण होगा। राजन्! आप ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे यह यज्ञ बिना किसी विघ्न-बाधा के परिपूर्ण हो’।
सोपाध्यायवचः श्रुत्वा तस्मिन् सदसि पार्थिवः॥ ११॥
षष्टिं पुत्रसहस्राणि वाक्यमेतदुवाच ह।
गतिं पुत्रा न पश्यामि रक्षसां पुरुषर्षभाः॥१२॥
मन्त्रपूतैर्महाभागैरास्थितो हि महाक्रतुः।
‘उस यज्ञ-सभा में बैठे हुए राजा सगर ने उपाध्यायों की बात सुनकर अपने साठ हजार पुत्रों से कहा—’पुरुषप्रवर पुत्रो! यह महान् यज्ञ वेदमन्त्रों से पवित्र अन्तःकरण वाले महाभाग महात्माओं द्वारा सम्पादित हो रहा है; अतः यहाँ राक्षसों की पहुँच हो,ऐसा मुझे नहीं दिखायी देता (अतः यह अश्व चुरानेवाला कोई देवकोटि का पुरुष होगा)।
तद् गच्छथ विचिन्वध्वं पुत्रका भद्रमस्तु वः॥ १३॥
समुद्रमालिनी सर्वां पृथिवीमनुगच्छथ।
एकैकं योजनं पुत्रा विस्तारमभिगच्छत॥१४॥
यावत् तुरगसंदर्शस्तावत् खनत मेदिनीम्।
तमेव हयहर्तारं मार्गमाणा ममाज्ञया॥१५॥
‘अतः पुत्रो! तुम लोग जाओ, घोड़े की खोज करो तुम्हारा कल्याण हो समुद्रसे घिरी हुई इस सारी पृथ्वी को छान डालो। एक-एक योजन विस्तृत भूमि को बाँटकर उसका चप्पा-चप्पा देख डालो। जब तक घोड़े का पता न लग जाय, तब तक मेरी आज्ञा से इस पृथ्वी को खोदते रहो। इस खोदने का एक ही लक्ष्य है—उस अश्व के चोर को ढूँढ़ निकालना॥ १३–१५ ॥
दीक्षितः पौत्रसहितः सोपाध्यायगणस्त्वहम्।
इह स्थास्यामि भद्रं वो यावत् तुरगदर्शनम्॥ १६॥
‘मैं यज्ञ की दीक्षा ले चुका हूँ, अतः स्वयं उसे ढूँढ़ने के लिये नहीं जा सकता; इसलिये जब तक उस” अश्व का दर्शन न हो, तब तक मैं उपाध्यायों और पौत्र अंशुमान् के साथ यहीं रहूँगा’ ॥ १६ ॥
ते सर्वे हृष्टमनसो राजपुत्रा महाबलाः।
जग्मुर्महीतलं राम पितुर्वचनयन्त्रिताः॥१७॥
‘श्रीराम! पिता के आदेशरूपी बन्धन से बँधकर वे सभी महाबली राजकुमार मन-ही-मन हर्ष का अनुभव करते हुए भूतलपर विचरने लगे॥ १७॥
गत्वा तु पृथिवीं सर्वामदृष्ट्वा तं महाबलाः।
योजनायामविस्तारमेकैको धरणीतलम्।
बिभिदुः पुरुषव्याघ्रा वज्रस्पर्शसमैर्भुजैः॥१८॥
‘सारी पृथ्वी का चक्कर लगाने के बाद भी उस अश्व को न देखकर उन महाबली पुरुषसिंह राजपुत्रों ने प्रत्येक के हिस्से में एक-एक योजन भूमि का बँटवारा करके अपनी भुजाओं द्वारा उसे खोदना आरम्भ किया। उनकी उन भुजाओं का स्पर्श वज्र के स्पर्श की भाँति दुस्सह था॥ १८॥
शूलैरशनिकल्पैश्च हलैश्चापि सुदारुणैः।
भिद्यमाना वसुमती ननाद रघुनन्दन॥१९॥
‘रघुनन्दन! उस समय वज्रतुल्य शूलों और अत्यन्त दारुण हलों द्वारा सब ओर से विदीर्ण की जाती हुई वसुधा आर्तनाद करने लगी॥ १९॥
नागानां वध्यमानानामसुराणां च राघव।
राक्षसानां दुराधर्षं सत्त्वानां निनदोऽभवत्॥२०॥
‘रघुवीर ! उन राजकुमारोंद्वारा मारे जाते हुए नागों, असुरों, राक्षसों तथा दूसरे-दूसरे प्राणियोंका भयंकर आर्तनाद गूंजने लगा॥ २०॥
योजनानां सहस्राणि षष्टिं तु रघुनन्दन।
बिभिदुर्धरणी राम रसातलमनुत्तमम्॥२१॥
‘रघुकुल को आनन्दित करने वाले श्रीराम ! उन्होंने साठ हजार योजन की भूमि खोद डाली मानो वे सर्वोत्तम रसातल का अनुसंधान कर रहे हों॥ २१॥
एवं पर्वतसम्बाधं जम्बूद्वीपं नृपात्मजाः।
खनन्तो नृपशार्दूल सर्वतः परिचक्रमुः॥२२॥
‘नृपश्रेष्ठ राम! इस प्रकार पर्वतों से युक्त जम्बूद्वीप की भूमि खोदते हुए वे राजकुमार सब ओर चक्कर लगाने लगे॥
ततो देवाः सगन्धर्वाः सासुराः सहपन्नगाः।
सम्भ्रान्तमनसः सर्वे पितामहमुपागमन्॥२३॥
‘इसी समय गन्धों , असुरों और नागोंसहित सम्पूर्ण देवता मन-ही-मन घबरा उठे और ब्रह्माजीके पास गये॥ २३॥
ते प्रसाद्य महात्मानं विषण्णवदनास्तदा।
ऊचुः परमसंत्रस्ताः पितामहमिदं वचः॥२४॥
‘उनके मुख पर विषाद छा रहा था। वे भय से अत्यन्त संत्रस्त हो गये थे। उन्होंने महात्मा ब्रह्माजी को प्रसन्न करके इस प्रकार कहा- ॥२४॥
भगवन् पृथिवी सर्वा खन्यते सगरात्मजैः।
बहवश्च महात्मानो वध्यन्ते जलचारिणः॥ २५॥
‘भगवन् ! सगर के पुत्र इस सारी पृथ्वी को खोदे डालते हैं और बहुत-से महात्माओं तथा जलचारी जीवों का वध कर रहे हैं ॥ २५॥
अयं यज्ञहरोऽस्माकमनेनाश्वोऽपनीयते।
इति ते सर्वभूतानि हिंसन्ति सगरात्मजाः॥२६॥
‘यह हमारे यज्ञ में विघ्न डालने वाला है। यह हमारा अश्व चुराकर ले जाता है’ ऐसा कहकर वे सगर के पुत्र समस्त प्राणियों की हिंसा कर रहे हैं’ ॥२६॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे एकोनचत्वारिंशः सर्गः॥ ३९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में उनतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥३९॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ४०
बालकाण्डम्
चत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 40)
( सगर के पुत्रों का पृथ्वी को खोदते हुए कपिलजी के पास पहुँचना और उनके रोष से जलकर भस्म होना )
श्लोक:
देवतानां वचः श्रुत्वा भगवान् वै पितामहः।
प्रत्युवाच सुसंत्रस्तान् कृतान्तबलमोहितान्॥१॥
भावार्थ :-
देवताओं की बात सुनकर भगवान् ब्रह्माजी ने कितने ही प्राणियों का अन्त करने वाले सगरपुत्रों के बल से मोहित एवं भयभीत हुए उन देवताओं से इस प्रकार कहा-॥१॥
श्लोक:
यस्येयं वसुधा कृत्स्ना वासुदेवस्य धीमतः।
महिषी माधवस्यैषा स एव भगवान् प्रभुः॥२॥
कापिलं रूपमास्थाय धारयत्यनिशं धराम्।
तस्य कोपाग्निना दग्धा भविष्यन्ति नृपात्मजाः॥३॥
भावार्थ :-
‘देवगण! यह सारी पृथ्वी जिन भगवान् वासुदेव की वस्तु है तथा जिन भगवान् लक्ष्मीपति की यह रानी है, वे ही सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि कपिल मुनि का रूप धारण करके निरन्तर इस पृथ्वी को धारण करते हैं। उनकी कोपाग्नि से ये सारे राजकुमार जलकर भस्म हो जायँगे॥२-३॥
श्लोक:
पृथिव्याश्चापि निर्भेदो दृष्ट एव सनातनः।
सगरस्य च पुत्राणां विनाशो दीर्घदर्शिनाम्॥४॥
भावार्थ :-
‘पृथ्वी का यह भेदन सनातन है- प्रत्येक कल्प में अवश्यम्भावी है। (श्रुतियों और स्मृतियों में आये हुए सागर आदि शब्दों से यह बात सुस्पष्ट ज्ञात होती है।) इसी प्रकार दूरदर्शी पुरुषों ने सगर के पुत्रों का भावी विनाश भी देखा ही है; अतः इस विषय में शोक करना अनुचित है॥४॥
पितामहवचः श्रुत्वा त्रयस्त्रिंशदरिंदमाः।
देवाः परमसंहृष्टाः पुनर्जग्मुर्यथागतम्॥५॥
ब्रह्माजी का यह कथन सुनकर शत्रुओं का दमन करने वाले तैंतीस देवता बड़े हर्ष में भरकर जैसे आये थे, उसी तरह पुनः लौट गये॥५॥
सगरस्य च पुत्राणां प्रादुरासीन्महास्वनः ।
पृथिव्यां भिद्यमानायां निर्घातसमनिःस्वनः॥६॥
सगरपुत्रों के हाथ से जब पृथ्वी खोदी जा रही थी,उस समय उससे वज्रपात के समान बड़ा भयंकर शब्द होता था।
ततो भित्त्वा महीं सर्वां कृत्वा चापि प्रदक्षिणम्।
सहिताः सागराः सर्वे पितरं वाक्यमब्रुवन्॥७॥
इस तरह सारी पृथ्वी खोदकर तथा उसकी परिक्रमा करके वे सभी सगरपुत्र पिता के पास खाली हाथ लौट आये और बोले- ॥७॥
परिक्रान्ता मही सर्वा सत्त्ववन्तश्च सूदिताः।
देवदानवरक्षांसि पिशाचोरगपन्नगाः॥८॥
न च पश्यामहेऽश्वं ते अश्वहर्तारमेव च।
किं करिष्याम भद्रं ते बुद्धिरत्र विचार्यताम्॥९॥
‘पिताजी! हमने सारी पृथ्वी छान डाली। देवता, दानव, राक्षस, पिशाच और नाग आदि बड़े-बड़े बलवान् प्राणियों को मार डाला। फिर भी हमें न तो कहीं घोड़ा दिखायी दिया और न घोड़े का चुराने वाला ही। आपका भला हो अब हम क्या करें? इस विषय में आप ही कोई उपाय सोचिये ॥ ८-९॥
तेषां तद् वचनं श्रुत्वा पुत्राणां राजसत्तमः ।
समन्युरब्रवीद् वाक्यं सगरो रघुनन्दन॥१०॥
‘रघुनन्दन! पुत्रों का यह वचन सुनकर राजाओं में श्रेष्ठ सगर ने उनसे कुपित होकर कहा- ॥ १० ॥
भूयः खनत भद्रं वो विभेद्य वसुधातलम्।
अश्वहर्तारमासाद्य कृतार्थाश्च निवर्तत॥११॥
‘जाओ, फिर से सारी पृथ्वी खोदो और इसे विदीर्ण करके घोड़े के चोर का पता लगाओ। चोर तक पहुँचकर काम पूरा होने पर ही लौटना’ ॥ ११॥
पितुर्वचनमासाद्य सगरस्य महात्मनः।
षष्टिः पुत्रसहस्राणि रसातलमभिद्रवन्॥१२॥
अपने महात्मा पिता सगर की यह आज्ञा शिरोधार्य करके वे साठ हजार राजकुमार रसातल की ओर बढ़े (और रोष में भरकर पृथ्वी खोदने लगे) ॥ १२॥
खन्यमाने ततस्तस्मिन् ददृशुः पर्वतोपमम्।
दिशागजं विरूपाक्षं धारयन्तं महीतलम्॥१३॥
उस खुदाई के समय ही उन्हें एक पर्वताकार दिग्गज दिखायी दिया, जिसका नाम विरूपाक्ष है वह इस भूतलको धारण किये हुए था॥ १३॥
सपर्वतवनां कृत्स्नां पृथिवीं रघुनन्दन।
धारयामास शिरसा विरूपाक्षो महागजः॥१४॥
रघुनन्दन! महान् गजराज विरूपाक्ष ने पर्वत और वनोंसहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने मस्तक पर धारण कर रखा था॥ १४ ॥
यदा पर्वणि काकुत्स्थ विश्रमार्थं महागजः। १५॥
काकुत्स्थ! वह महान् दिग्गज जिस समय थककर विश्राम के लिये अपने मस्तक को इधर-उधर हटाता था, उस समय भूकम्प होने लगता था॥ १५ ॥
ते तं प्रदक्षिणं कृत्वा दिशापालं महागजम्।
मानयन्तो हि ते राम जग्मुर्भित्त्वा रसातलम्॥ १६॥
श्रीराम! पूर्व दिशा की रक्षा करने वाले विशाल गजराज विरूपाक्ष की परिक्रमा करके उसका सम्मान करते हुए वे सगरपुत्र रसातल का भेदन करके आगे बढ़ गये॥ १६॥
ततः पूर्वां दिशं भित्त्वा दक्षिणां बिभिदुः पुनः।
दक्षिणस्यामपि दिशि ददृशुस्ते महागजम्॥१७॥
पूर्व दिशा का भेदन करने के पश्चात् वे पुनः दक्षिण दिशा की भूमिको खोदने लगे। दक्षिण दिशा में भी उन्हें एक महान् दिग्गज दिखायी दिया॥१७॥
महापद्मं महात्मानं सुमहत्पर्वतोपमम्।
शिरसा धारयन्तं गां विस्मयं जग्मुरुत्तमम्॥१८॥
उसका नाम था महापद्म महान् पर्वत के समान ऊँचा वह विशालकाय गजराज अपने मस्तक पर पृथ्वी को धारण करता था उसे देखकर उन राजकुमारों को बड़ा विस्मय हुआ॥ १८॥
ते तं प्रदक्षिणं कृत्वा सगरस्य महात्मनः।
षष्टिः पुत्रसहस्राणि पश्चिमां बिभिदुर्दिशम्॥ १९॥
महात्मा सगर के वे साठ हजार पुत्र उस दिग्गज की परिक्रमा करके पश्चिम दिशाकी भूमिका भेदन करने लगे॥ १९॥
पश्चिमायामपि दिशि महान्तमचलोपमम्।
दिशागजं सौमनसं ददृशुस्ते महाबलाः॥२०॥
पश्चिम दिशा में भी उन महाबली सगरपुत्रों ने महान् पर्वताकार दिग्गज सौमनस का दर्शन किया॥ २० ॥
ते तं प्रदक्षिणं कृत्वा पृष्ट्वा चापि निरामयम्।
खनन्तः समुपाक्रान्ता दिशं सोमवतीं तदा ॥२१॥
उसकी भी परिक्रमा करके उसका कुशल-समाचार पूछकर वे सभी राजकुमार भूमि खोदते हुए उत्तर दिशा में जा पहुँचे॥ २१॥
उत्तरस्यां रघुश्रेष्ठ ददृशुर्हिमपाण्डुरम्।
भद्रं भद्रेण वपुषा धारयन्तं महीमिमाम्॥ २२॥
रघुश्रेष्ठ! उत्तर दिशा में उन्हें हिमके समान श्वेतभद्र नामक दिग्गज दिखायी दिया, जो अपने कल्याणमय शरीर से इस पृथ्वी को धारण किये हुए था॥ २२ ॥
समालभ्य ततः सर्वे कृत्वा चैनं प्रदक्षिणम्।
षष्टिः पुत्रसहस्राणि बिभिदुर्वसुधातलम्॥२३॥
उसका कुशल-समाचार पूछकर राजा सगर के वे सभी साठ हजार पुत्र उसकी परिक्रमा करने के पश्चात् भूमि खोदने के काम में जुट गये॥२३॥
ततः प्रागुत्तरां गत्वा सागराः प्रथितां दिशम्।
रोषादभ्यखनन् सर्वे पृथिवीं सगरात्मजाः॥२४॥
तदनन्तर सुविख्यात पूर्वोत्तर दिशा में जाकर उन सगरकुमारों ने एक साथ होकर रोषपूर्वक पृथ्वी को खोदना आरम्भ किया॥२४॥
ते तु सर्वे महात्मानो भीमवेगा महाबलाः।
ददृशुः कपिलं तत्र वासुदेवं सनातनम्॥ २५॥
” इस बार उन सभी महामना, महाबली एवं भयानक वेगशाली राजकुमारों ने वहाँ सनातन वासुदेवस्वरूप भगवान् कपिल को देखा॥ २५ ॥
हयं च तस्य देवस्य चरन्तमविदूरतः।
प्रहर्षमतुलं प्राप्ताः सर्वे ते रघुनन्दन ॥२६॥
राजा सगर के यज्ञ का वह घोड़ा भी भगवान् कपिल के पास ही चर रहा था। रघुनन्दन! उसे देखकर उन सबको अनुपम हर्ष प्राप्त हुआ॥ २६॥
ते तं यज्ञहनं ज्ञात्वा क्रोधपर्याकुलेक्षणाः।
खनित्रलांगलधरा नानावृक्षशिलाधराः॥२७॥
भगवान् कपिल को अपने यज्ञ में विघ्न डालने वाला जानकर उनकी आँखें क्रोध से लाल हो गयीं। उन्होंने अपने हाथों में खंती, हल और नाना प्रकार के वृक्ष एवं पत्थरों के टुकड़े ले रखे थे॥२७॥
अभ्यधावन्त संक्रुद्धास्तिष्ठ तिष्ठति चाब्रुवन्।।
अस्माकं त्वं हि तुरगं यज्ञियं हृतवानसि॥२८॥
दुर्मेधस्त्वं हि सम्प्राप्तान् विद्धि नः सगरात्मजान्।
वे अत्यन्त रोष में भरकर उनकी ओर दौड़े और बोले- ‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह। तू ही हमारे यज्ञ के घोड़े को यहाँ चुरा लाया है। दुर्बुद्धे ! अब हम आ गये। तू समझ ले, हम महाराज सगर के पुत्र हैं’। २८ १/२॥
श्रुत्वा तद् वचनं तेषां कपिलो रघुनन्दन॥२९॥
रोषेण महताविष्टो हुङ्कारमकरोत् तदा।
रघुनन्दन! उनकी बात सुनकर भगवान् कपिल को बड़ा रोष हुआ और उस रोष के आवेश में ही उनके मुँह से एक हुंकार निकल पड़ा॥२९ १/२॥
ततस्तेनाप्रमेयेण कपिलेन महात्मना।
भस्मराशीकृताः सर्वे काकुत्स्थ सगरात्मजाः॥ ३०॥
श्रीराम! उस हुंकार के साथ ही उन अनन्त प्रभावशाली महात्मा कपिल ने उन सभी सगरपुत्रों को जलाकर राखका ढेर कर दिया॥३०॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे चत्वारिंशः सर्गः॥४०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में चालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ। ४०॥

