श्री शिव महापुराण- रुद्रसंहिता (सृष्टिखण्ड)

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रुद्रसंहिता (सृष्टिखण्ड)
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व्यासजी कहते हैं – एक समय की बात है, नैमिषारण्य में निवास करने वाले शौनक आदि ऋषियों ने सूतजी से पूछा – हे सूतजी ! हमने सुना है कि भगवान् शिव शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं, वे महान् दयालु हैं, इसलिये वे अपने भक्तों का कष्ट नहीं देख सकते।
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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-
ब्रह्मा, विष्णु और महेश- ये तीनों देवता शिव के ही अंश से उत्पन्न हुए हैं। उनके प्राकट्य की कथा तथा उनके विशेष चरित्रों का वर्णन कीजिये। प्रभो! आप उमा के आविर्भाव तथा विवाह की भी कथा कहें; विशेषतः उनके गृहस्थ धर्म का तथा अन्य लीलाओं का भी वर्णन करें। निष्पाप सूतजी ! हमारे प्रश्न के उत्तर में ये सब तथा दूसरी बातें भी अवश्य कहनी चाहिये। सूतजी बोले- हे मुनीश्वरो! जैसे आप लोग पूछ रहे हैं, उसी प्रकार नारदजी ने शिवरूपी भगवान् विष्णु से प्रेरित होकर अपने पिता ब्रह्माजी से पूछा था।
ऋषिगणों ने सूतजी से पुन: पूछा कि हे प्रभो! ब्रह्मा और नारद का यह महान् सुख देने वाला संवाद कब हुआ था, जिसमें संसार से मुक्ति प्रदान करने वाली शिवलीला वर्णित है, कृपाकर इसका वर्णन करें।
नारद मोह की कथा
सूतजी बोले – एक समय की बात है, नारदजी ने तपस्या के लिये मन में विचार किया तथा हिमालय की एक सुन्दर गुफा में तपस्या में स्थित हो गये। उसी समय उनकी तपस्या देखकर देवराज इन्द्र संतप्त होने लगे और उन्होंने कामदेव से वहाँ जाकर नारदजी की तपस्या को भंग करने का आदेश दिया। कामदेव ने अपनी सम्पूर्ण कलाओं से उनकी तपस्या में विघ्न डालने का प्रयत्न किया, परंतु वे सफल नहीं हुए। महादेवजी के अनुग्रह से कामदेव का गर्व चूर हो गया। वास्तव में महादेवजी की कृपा से ही नारदमुनि पर कामदेव का कोई प्रभाव नहीं पड़ा; क्योंकि पहले उसी आश्रम में भगवान् शिव ने उत्तम तपस्या की थी और वहीं उन्होंने कामदेव को भस्म कर डाला था।
उस समय रति की प्रार्थना एवं देवताओं की याचना करने पर भगवान् शंकर ने कुछ समय व्यतीत होने के बाद कामदेव को जीवित होने का वरदान दिया था। नारदजी को यह गर्व हो गया कि कामदेव पर मेरी विजय हुई। भगवान् शिव की माया से मोहित होने के कारण उन्हें यथार्थ बात का ज्ञान नहीं रहा। वे तत्काल कैलासपर्वत पर गये, वहाँ रुद्रदेव को उन्होंने कामदेव पर अपनी विजय का वृत्तान्त सुनाया। यह सब सुनकर भगवान् शंकर ने नारदजी की प्रशंसा करते हुए भगवान् विष्णु के सामने इसकी चर्चा कदापि न करने की बात कही, परंतु नारदजी के चित्त में मदका अंकुर जम गया था।
इसलिये नारदजी ने वहाँ से विष्णुलोक जाकर भगवान् विष्णु से अपना सारा वृत्तान्त अभिमान के साथ कह सुनाया। नारदमुनि का अहंकार युक्त वचन सुनकर भगवान् विष्णु ने यथार्थ बातें पूर्ण रूप से जान लीं। नारदजी की प्रशंसा करते हुए भगवान् विष्णु ने कहा- आप तो नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं तथा सदा ज्ञान-वैराग्य से युक्त रहते हैं, फिर आप में काम – विकार कैसे आ सकता है? विष्णुजी की बात सुनकर नारदजी प्रसन्न होकर वहाँ से चले गये। नारदजी के आगे जाने पर मार्ग में श्रीहरि ने एक सुन्दर नगर की रचना की, जो अत्यन्त मनोहर एवं वैकुण्ठ से अधिक रमणीय था,
जिसमें शीलनिधि नाम के एक राजा की देवकन्या के समान सुन्दरी कन्या थी। नारदमुनि उस नगर को देखकर मोहित हो गये और शीलनिधि के द्वार पर गये। महाराज शीलनिधि ने श्रीमती नामक अपनी सुन्दरी कन्या को वहाँ बुलाकर नारदजी के चरणों में प्रणाम करवाया और निवेदन किया- यह मेरी पुत्री है, अपने विवाह के निमित्त स्वयंवर में जाने वाली है। महर्षे! आप इसका भाग्य बताइये। नारदजी उस कन्या के शुभ लक्षणों को देखकर अत्यधिक प्रभावित हुए तथा कन्या के पिता राजा से उसके सुख- सौभाग्य तथा गुणों की विशेष सराहना करते हुए वहाँ से विदा हो गये ।
नारदजी के मन में यह भाव आया कि किस प्रकार इस कन्या से मेरा विवाह हो। वे तत्काल भगवान् विष्णु के पास जा पहुँचे और एकान्त में विष्णु से अपनी इच्छा व्यक्त की तथा उनसे यह प्रार्थना की कि आप अपना स्वरूप मुझे दे दें, जिससे वह कन्या मेरा वरण कर ले। भगवान् विष्णु बोले- मैं पूरी तरह तुम्हारा हित साधन करूँगा। यह कहकर भगवान् विष्णु ने नारदमुनि को मुख तो वानर का दे दिया तथा शेष अंगों में अपना-सा स्वरूप देकर वे वहाँ से अन्तर्धान हो गये। इस रहस्य से अनभिज्ञ नारदजी स्वयंवर में पहुँचे।
सुलक्षणा राजकुमारी स्वयंवर के मध्य भाग में खड़ी होकर अपने मन के अनुरूप वरका अन्वेषण करने लगी। नारद का वानर-सा मुख देखकर वह कुपित हो गयी और उनकी ओर से दृष्टि हटाकर अपने मनोवांछित वर को ढूँढ़ने लगी। उसी समय राजा का वेष धारण कर विष्णु वहाँ आ पहुँचे। तब भगवान् विष्णु के गले में वरमाला डालकर वह उनके साथ अन्तर्धान हो गयी। नारदजी की इस मुखाकृति को स्वयंवर में और किसी ने तो नहीं देखा, शिवजी के दो पार्षद वहाँ उपस्थित थे; उन्होंने यह सब देखकर नारदजी का उपहास किया तथा उन्हें अपना प्रतिबिम्ब देखने के लिये कहा।
तब नारदजी को वास्तविकता का पता लगा तथा वे क्रोध से व्याकुल हो गये। उन दोनों शिवगणों को उन्होंने राक्षस होने का शाप दिया। इसके अनन्तर विष्णु लोक जाकर माया से मोहित नारद विष्णु को शाप देते हुए बोले- तुमने स्त्री के लिये मुझे व्याकुल किया है, तुम भी मनुष्य हो जाओ और स्त्री के वियोग का दुःख भोगो। तुमने जिन वानरों के समान मेरा मुख बनाया था, वे ही उस समय तुम्हारे सहायक हों।
विस्तार पूर्वक पढ़े: शिव-शक्ति श्रीराम मिलन भाग- 7 (नारद का मोह)
कुछ ही क्षणों में भगवान् शंकर ने अपनी विश्वमोहिनी माया को खींच लिया। उस माया के तिरोहित होते ही नारदजी शुद्ध बुद्धि से युक्त हो गये और उनकी सारी व्याकुलता जाती रही। श्रीनारदजी भगवान् विष्णु के चरणों में गिर पड़े और अत्यन्त पश्चात्ताप करने लगे।
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भगवान् विष्णु द्वारा नारदजी को शिवोपासना का उपदेश
भगवान् विष्णु बोले- तात! खेद न करो, भगवान् शिव तुम्हारा कल्याण करेंगे। तुमने मद से मोहित होकर जो भगवान् शिव की बात नहीं मानी थी, उसी अपराध का भगवान् शिव ने तुम्हें ऐसा फल दिया है। सबके स्वामी परमेश्वर शंकर ही परब्रह्म परमात्मा हैं, उन्हीं का सच्चिदानन्द स्वरूप है। वे ही अपनी माया को लेकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश- इन तीन रूपों में प्रकट होते हैं। अपने सारे संशयों को त्याग कर अनन्य भाव से शिव के शतनाम स्तोत्र का पाठ करो तथा निरन्तर उन्हीं की उपासना तथा उन्हीं का भजन करो।
भगवान् शंकर की उपासना से सभी प्रकार के पातक एवं दोष समाप्त हो जाते हैं। इस प्रकार प्रसन्नचित्त भगवान् विष्णु नारदमुनि को उपदेश देकर वहाँ से अन्तर्धान हो गये। इसके अनन्तर श्रीनारदजी भी अत्यन्त आनन्दित हो शिवतीर्थों का दर्शन करते हुए भू-मण्डल में विचरने लगे। अन्त में वे सबके ऊपर विराजमान शिवस्वरूपिणी काशीपुरी में पहुँचे। काशीपुरी का दर्शन करके नारदजी कृतार्थ हो गये।
उसके बाद ब्रह्मलोक पहुँचकर शिवतत्त्व का विशेष रूप से ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से नारदजी ने ब्रह्माजी को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और कहा कि जगत्प्रभो! आपकी कृपा से मैंने भगवान् विष्णु के उत्तम माहात्म्य का ज्ञान प्राप्त किया, परंतु शिवतत्त्व का ज्ञान मुझे अभी तक नहीं हुआ है। मैं भगवान् शंकर की पूजा – विधि को भी नहीं जानता। अतः प्रभो! आप भगवान् शिव के विविध चरितों को तथा उनके स्वरूप तत्त्व, प्राकट्य, विवाह, गृहस्थ – धर्म सब मुझे बताइये। कार्तिकेय के जन्म की कथा भी मुझे सुनाइये।
शिवतत्त्व का निरूपण
ब्रह्माजी ने नारद से शिवतत्त्व का वर्णन करते हुए कहा- शिवतत्त्व का स्वरूप बड़ा उत्कृष्ट तथा अद्भुत है, जिस समय प्रलय काल उपस्थित हुआ, उस समय समस्त चराचर जगत् नष्ट हो गया। सर्वत्र केवल अन्धकार-ही-अन्धकार था। इस प्रकार सब ओर निरन्तर सूची भेद्य घोर अन्धकार में उस समय ‘तत्सत् ब्रह्म’ – इस श्रुति में जो ‘सत्’ सुना जाता है, एकमात्र वही शेष था, जिसे योगी जन अपने हृदयाकाश के अन्दर निरन्तर देखते हैं।
कुछ काल के बाद (सृष्टि का समय आने पर) परमात्मा को द्वितीय की इच्छा प्रकट हुई- उसके भीतर एक-से-अनेक होने का संकल्प उदित हुआ। तब उस निराकार परमात्मा ने अपनी लीलाशक्ति से अपने लिये मूर्ति (आकार) – की कल्पना की। वह मूर्ति सम्पूर्ण ऐश्वर्य गुणों से सम्पन्न, सर्वज्ञानमयी हुई। जो मूर्ति रहित परब्रह्म है, उसी की मूर्ति (चिन्मय आकार) भगवान् सदाशिव हैं। सभी विद्वान् उन्हीं को ईश्वर कहते हैं। उस समय स्वेच्छया विहार करने वाले उन सदाशिव ने अपने विग्रह से एक स्वरूप भूता शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने श्रीअंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी।
अविमुक्त क्षेत्र काशी
उन साम्ब सदाशिव ब्रह्म ने एक ही समय शक्ति के साथ ‘शिवलोक’ नामक क्षेत्र का निर्माण किया। इस क्षेत्र को ही काशी कहते हैं। यह परम निर्वाण या मोक्ष का स्थान है, जो सबके ऊपर विराजमान वे प्रिया-प्रियतम रूप शक्ति और शिव जो परमानन्द स्वरूप हैं, उस मनोरम क्षेत्र काशीपुरी में नित्य निवास करते हैं। हे मुने! शिव और शिवा ने प्रलयकाल में भी कभी उस क्षेत्र को अपने सान्निध्य से मुक्त नहीं किया। इसीलिये विद्वान् पुरुष उसे ‘अविमुक्त क्षेत्र’ भी कहते हैं। यह क्षेत्र आनन्द का हेतु है, इसलिये पिनाक धारी भगवान् शिव ने उसका नाम पहले ‘आनन्द वन’ रखा था।
सदाशिव से नारायण का प्राकट्य
हे देवर्षे! एक समय उस आनन्दवन में रमण करते हुए शिवा और शिव के मन में यह इच्छा हुई कि किसी दूसरे पुरुष की भी सृष्टि करनी चाहिये। जिसपर सृष्टि- संचालन का महान् भार रखकर हम दोनों केवल काशी में रहकर इच्छानुसार विचरण करें। वही पुरुष हमारे अनुग्रह से सदा सबकी सृष्टि करे, वही पालन करे और अन्त में वही सबका संहार भी करे। ऐसा निश्चय करके शक्ति सहित सर्वव्यापी परमेश्वर शिव ने अपने वाम भाग के दसवें अंग पर अमृत मल दिया। वहाँ उसी समय एक पुरुष प्रकट हुआ, जो तीनों लोकों में सबसे अधिक सुन्दर और शान्त था।
विस्तार पूर्वक पढ़े: भगवान विष्णु का जन्म कथा एवं सृष्टि की रचना
उसकी कान्ति इन्द्र नीलमणि के समान श्याम थी। उसके श्री अंगों पर स्वर्णसदृश कान्ति वाले दो रेशमी पीताम्बर शोभा दे रहे थे। शिवजी ने ‘विष्णु’ नाम से उसे विख्यात किया तथा अपने श्वासमार्ग से उन्हें वेदों का ज्ञान प्रदान किया। इसके अनन्तर भगवान् विष्णु ने दीर्घकाल तक तपस्या की। तपस्या के परिश्रम से विष्णु के अंगों से अनेक प्रकार की जलधाराएँ निकलने लगीं। नार अर्थात् जल में शयन करने के कारण ही उनका नारायण- यह श्रुति सम्मत नाम प्रसिद्ध हुआ।
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सदाशिव के दक्षिणांग से ब्रह्मा का प्रादुर्भाव
ब्रह्माजी कहते हैं- हे देवर्षे! जब नारायण देव जल में शयन करने लगे, उस समय उनकी नाभि से भगवान् शंकर की इच्छा से सहसा एक विशाल तथा उत्तम कमल प्रकट हुआ, जो बहुत बड़ा था, तत्पश्चात् परमेश्वर साम्बसदाशिव ने पूर्ववत् परम प्रयत्न करके मुझे अपने दाहिने अंग से उत्पन्न किया तथा मुझे तुरन्त ही अपनी माया से मोहित करके नारायणदेव के नाभिकमल में डाल दिया और लीला पूर्वक मुझे वहाँ से प्रकट किया। इस प्रकार उस कमल से पुत्र के रूप में मुझ हिरण्यगर्भ का जन्म हुआ।
विस्तार पूर्वक पढ़े: ब्रह्मा अवतार तथा ब्रह्माण्ड की रचना
मेरे चार मुख हुए और शरीर की कान्ति लाल हुई। हे मुने! उस समय भगवान् शिव की इच्छा से परम मंगलमयी तथा उत्तम आकाशवाणी प्रकट हुई। उस वाणी ने कहा – तप करो। उस आकाशवाणी को सुनकर अपने जन्मदाता पिता का दर्शन करने के लिये उस समय पुनः बारह वर्षों तक मैंने घोर तपस्या की। तब मुझ पर अनुग्रह करने के लिये ही चार भुजाओं और सुन्दर नेत्रों से सुशोभित भगवान् विष्णु वहाँ सहसा प्रकट हो गये।
तदनन्तर अपनी श्रेष्ठता को लेकर हम दोनों में विवाद होने लगा। इसे शान्त करने के लिये हम दोनों के सामने एक लिंग प्रकट हुआ। मैं और विष्णु दोनों उन ज्योतिर्मय शिव को प्रणामकर बार-बार कहने लगे- हे महाप्रभो! हम आपके स्वरूप को नहीं जानते; आप जो हैं, वही हैं। आपको हमारा नमस्कार है। आप शीघ्र ही हमें अपने स्वरूप का दर्शन करायें।
भगवान् शिव के शब्दमय शरीर का वर्णन
भगवान् शंकर हम दोनों पर दयालु हो गये। उस समय वहाँ उन सुरश्रेष्ठ से ‘ॐ ॐ’ ऐसा शब्दरूप नाद प्रकट हुआ, जो स्पष्ट रूप से सुनायी दे रहा था। उस परब्रह्म परमात्मा शिव का वाचक एकाक्षर प्रणव ही है। परब्रह्म को इस एकाक्षर के द्वारा ही जाना जा सकता है। इसी बीच विश्वपालक भगवान् विष्णु ने मेरे साथ एक और भी अद्भुत और सुन्दर रूप को देखा। हे मुने! वह रूप पाँच मुखों और दस भुजाओं से अलंकृत था, उसकी कान्ति कर्पूर के समान गौर थी।
उस परम उदार महापुरुष के उत्तम लक्षणों से सम्पन्न अत्यन्त उत्कृष्ट रूप का दर्शन करके मेरे साथ श्रीहरि कृतार्थ हो गये। तत्पश्चात् भगवान् महेश प्रसन्न होकर दिव्य शब्दमय रूप को प्रकट करके खड़े हो गये। उसी समय सम्पूर्ण धर्म तथा अर्थ का साधक बुद्धि स्वरूप, अत्यन्त हितकारक गायत्री महामन्त्र लक्षित हुआ। आठ कलाओं से युक्त पंचाक्षर मन्त्र ( नमः शिवाय ) तथा मृत्युंजय मन्त्र, चिन्तामणि मन्त्र और दक्षिणा मूर्ति मन्त्र को भगवान् विष्णु ने देखा। इसके बाद भगवान् विष्णु ने शंकर को ‘तत्त्वमसि’ वही तुम हो – यह महावाक्य कहा।
इस प्रकार उक्त पंचमन्त्रों को प्राप्त करके वे भगवान् श्रीहरि उनका जप करने लगे। तदनन्तर उन्होंने शिव की स्तुति की। विष्णु द्वारा की हुई अपनी स्तुति सुनकर करुणा निधि महेश्वर प्रसन्न हुए और उमादेवी के साथ सहसा वहाँ प्रकट हो गये। भगवान् विष्णु ने पूछा – हे देव! आप कैसे प्रसन्न होते हैं? आपकी पूजा किस प्रकार की जाय, हम लोगों को क्या करना चाहिये? कौन-सा कार्य अच्छा है और कौन बुरा है? – इन सब बातों को हम दोनों के कल्याण हेतु आप प्रसन्न होकर बताने की कृपा करें।
भगवान् शिव प्रसन्न होकर हम दोनों से कहने लगे- मेरा लिंग सदा पूज्य है और सदा ही ध्येय है। लिंगरूप से पूजा गया मैं प्रसन्न होकर सभी लोगों को अनेक प्रकार के फल तो दूँगा ही साथ ही उनकी अभिलाषाएँ भी पूरी करूँगा। आगे शंकरजी ने कहा- मेरी पार्थिव मूर्ति बनाकर आप दोनों अनेक प्रकार से उसकी पूजा करें। ऐसा करने पर आपलोगों को सुख प्राप्त होगा।
त्रिदेवों के एकत्व का प्रतिपादन
हे ब्रह्मन्! आप मेरी आज्ञा का पालन करते हुए जगत्की सृष्टि कीजिये और हे विष्णु! आप इस चराचर जगत्का पालन कीजिये। आगे भगवान् शिव कहते हैं – हे ब्रह्मन्! मेरा ऐसा ही परम उत्कृष्ट रूप हमारे इस शरीर से लोक में प्रकट होगा, जो नाम से रुद्र कहलायेगा। मेरे अंश से प्रकट हुए रुद्र की सामर्थ्य मुझसे कम नहीं होगी। जो मैं हूँ, वही यह रुद्र है। पूजा की दृष्टि से भी मुझमें और उसमें कोई अन्तर नहीं है। यह मेरा शिवस्वरूप है। हे महामुने! उनमें परस्पर भेद नहीं करना चाहिये। वास्तव में सारा विश्व ही मेरा शिवस्वरूप है। मैं, आप, ब्रह्मा तथा जो ये रुद्र प्रकट होंगे- ये सब-के-सब एक रूप हैं, इनमें भेद मानने पर अवश्य ही बन्धन होगा।
हे विष्णु! अब आप मेरी आज्ञा से जगत्में ( सब लोगों के लिये ) मुक्ति दाता बनें। मेरा दर्शन होने पर जो फल प्राप्त होता है, वही फल आपका दर्शन होने पर भी प्राप्त होगा। मैंने आज आपको यह वर दे दिया। मेरे हृदय में विष्णु हैं, विष्णु के हृदय में मैं हूँ। रुद्र शिवके पूर्णावतार हैं।
हे विष्णु! जो आप की शरण में आ गया, वह निश्चय ही मेरी शरण में आ गया। जो मुझमें – आप में अन्तर समझता है, वह निश्चय ही नरक में गिरता है। इसके बाद भक्तवत्सल भगवान् शम्भु शीघ्र वहीं अन्तर्धान हो गये। तभी से इस लोक में लिंगपूजा का विधान प्रचलित हुआ है। लिंग में प्रतिष्ठित भगवान् शिव भोग और मोक्ष देने वाले हैं। शिवलिंग की वेदी महादेवी का स्वरूप है और लिंग साक्षात् महेश्वर है, इसी में सम्पूर्ण जगत् स्थित रहता है।
आगे के अध्यायों में शिवपूजन की विधि तथा उसके फल का वर्णन किया गया है। जो शिवभक्ति परायण होकर प्रतिदिन पूजन करता है, उसे अवश्य ही पग-पग पर सब प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है। रोग, दुःख, शोक, उद्वेग, कुटिलता, विष तथा अन्य जो भी कष्ट उपस्थित होता है, उसे कल्याणकारी शिव अवश्य नष्ट कर देते हैं । अतः भगवान् सदाशिव की प्रसन्नता के लिये सदैव अपने वर्णाश्रमविहित कर्म करते रहना चाहिये।
बिना ज्ञान प्राप्त किये ही जो प्रतिमा का पूजन छोड़ देता है, उसका निश्चित ही पतन हो जाता है। जब तक शरीर में पाप रहता है, तब तक सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती। पाप के दूर हो जाने पर उसका सब कुछ सफल हो जाता है। विज्ञान का मूल अनन्य भक्ति है और ज्ञान का मूल भी भक्ति ही कही जाती है। भक्ति का मूल सत्कर्म और अपने इष्टदेव आदि का पूजन है।
पंचदेवोपासना
जब तक मनुष्य गृहस्थाश्रम में रहे तब तक प्रेम पूर्वक उसे पाँच देवताओं (गणेश, विष्णु, शिव, सूर्य एवं देवी) – की और उनमें भी सर्वश्रेष्ठ भगवान् सदाशिव की मूर्ति का पूजन करना चाहिये। एकमात्र सदाशिव ही सबके मूल हैं। अतः सदाशिव के पूजन से ही सब देवताओं का पूजन हो जाता है और वे प्रसन्न हो जाते हैं। आगे के अध्यायों में मनुष्य की दैनिकचर्या का वर्णन शास्त्रीय विधि से किया गया है तथा शिव पूजन – विधि विस्तार से बतायी गयी है। इसके अनन्तर ब्रह्मा की सृष्टि के सृजन का विस्तार से वर्णन हुआ है। इस प्रकार रुद्रसंहिता का सृष्टिखण्ड पूर्ण हुआ।

