श्रीरामचरितमानस भावार्थ सहित- बालकाण्ड- 101-125

श्रीरामचरितमानस भावार्थ सहित- बालकाण्ड- 101-125


॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ श्री कमलापति नम: ॥
॥ श्री जानकीवल्लभो विजयते ॥
॥ श्री रामचरित मानस ॥
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बालकाण्ड- 101-125

अखंड रामायण
(भावार्थ सहित)
सब एक ही स्थान पर

बालकाण्ड भावार्थ सहित (With Meaning)

बालकाण्ड- 101-125

दोहा :
नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥101॥

भावार्थ:-
हे नाथ! यह उमा मुझे मेरे प्राणों के समान (प्यारी) है। आप इसे अपने घर की टहलनी बनाइएगा और इसके सब अपराधों को क्षमा करते रहिएगा। अब प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिए॥101॥

चौपाई :
बहु बिधि संभु सासु समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥1॥

भावार्थ:-
शिवजी ने बहुत तरह से अपनी सास को समझाया। तब वे शिवजी के चरणों में सिर नवाकर घर गईं। फिर माता ने पार्वती को बुला लिया और गोद में बिठाकर यह सुंदर सीख दी-॥1॥

चौपाई :
करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥2॥

भावार्थ:-
हे पार्वती! तू सदाशिवजी के चरणों की पूजा करना, नारियों का यही धर्म है। उनके लिए पति ही देवता है और कोई देवता नहीं है। इस प्रकार की बातें कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू भर आए और उन्होंने कन्या को छाती से चिपटा लिया॥2॥

चौपाई :
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहूँ सुखु नाहीं॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥3॥

भावार्थ:-
(फिर बोलीं कि) विधाता ने जगत में स्त्री जाति को क्यों पैदा किया? पराधीन को सपने में भी सुख नहीं मिलता। यों कहती हुई माता प्रेम में अत्यन्त विकल हो गईं, परन्तु कुसमय जानकर (दुःख करने का अवसर न जानकर) उन्होंने धीरज धरा॥3॥

चौपाई :
पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेमु कछु जाइ न बरना॥
सब नारिन्ह मिलि भेंटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥4॥

भावार्थ:-
मैना बार-बार मिलती हैं और (पार्वती के) चरणों को पकड़कर गिर पड़ती हैं। बड़ा ही प्रेम है, कुछ वर्णन नहीं किया जाता। भवानी सब स्त्रियों से मिल-भेंटकर फिर अपनी माता के हृदय से जा लिपटीं॥4॥

छन्द :
जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं। फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं॥
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले। सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥

भावार्थ:-
पार्वतीजी माता से फिर मिलकर चलीं, सब किसी ने उन्हें योग्य आशीर्वाद दिए। पार्वतीजी फिर-फिरकर माता की ओर देखती जाती थीं। तब सखियाँ उन्हें शिवजी के पास ले गईं। महादेवजी सब याचकों को संतुष्ट कर पार्वती के साथ घर (कैलास) को चले। सब देवता प्रसन्न होकर फूलों की वर्षा करने लगे और आकाश में सुंदर नगाड़े बजाने लगे।

दोहा :
चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥102॥

भावार्थ:-
तब हिमवान्‌ अत्यन्त प्रेम से शिवजी को पहुँचाने के लिए साथ चले। वृषकेतु (शिवजी) ने बहुत तरह से उन्हें संतोष कराकर विदा किया॥102॥

चौपाई :
तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥
आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥1॥

भावार्थ:-
पर्वतराज हिमाचल तुरंत घर आए और उन्होंने सब पर्वतों और सरोवरों को बुलाया। हिमवान ने आदर, दान, विनय और बहुत सम्मानपूर्वक सबकी विदाई की॥1॥

चौपाई :
जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
जगत मातु पितु संभु भवानी। तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी॥2॥

भावार्थ:-
जब शिवजी कैलास पर्वत पर पहुँचे, तब सब देवता अपने-अपने लोकों को चले गए। (तुलसीदासजी कहते हैं कि) पार्वतीजी और शिवजी जगत के माता-पिता हैं, इसलिए मैं उनके श्रृंगार का वर्णन नहीं करता॥2॥

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चौपाई :
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥3॥

भावार्थ:-
शिव-पार्वती विविध प्रकार के भोग-विलास करते हुए अपने गणों सहित कैलास पर रहने लगे। वे नित्य नए विहार करते थे। इस प्रकार बहुत समय बीत गया॥3॥

चौपाई :
जब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुरु समर जेहिं मारा॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥4॥

भावार्थ:-
तब छ: मुखवाले पुत्र (स्वामिकार्तिक) का जन्म हुआ, जिन्होंने (बड़े होने पर) युद्ध में तारकासुर को मारा। वेद, शास्त्र और पुराणों में स्वामिकार्तिक के जन्म की कथा प्रसिद्ध है और सारा जगत उसे जानता है॥4॥

छन्द :
जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा। तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥
यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं। कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥

भावार्थ:-
षडानन (स्वामिकार्तिक) के जन्म, कर्म, प्रताप और महान पुरुषार्थ को सारा जगत जानता है, इसलिए मैंने वृषकेतु (शिवजी) के पुत्र का चरित्र संक्षेप में ही कहा है। शिव-पार्वती के विवाह की इस कथा को जो स्त्री-पुरुष कहेंगे और गाएँगे, वे कल्याण के कार्यों और विवाहादि मंगलों में सदा सुख पाएँगे।

दोहा :
चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु।
बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥103॥

भावार्थ:-
गिरिजापति महादेवजी का चरित्र समुद्र के समान (अपार) है, उसका पार वेद भी नहीं पाते। तब अत्यन्त मन्दबुद्धि और गँवार तुलसीदास उसका वर्णन कैसे कर सकता है? ॥103॥

चौपाई :
संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुखु पावा॥
बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥1॥

भावार्थ:-
शिवजी के रसीले और सुहावने चरित्र को सुनकर मुनि भरद्वाजजी ने बहुत ही सुख पाया। कथा सुनने की उनकी लालसा बहुत बढ़ गई। नेत्रों में जल भर आया तथा रोमावली खड़ी हो गई॥1॥

चौपाई :
प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥
अहो धन्य तब जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥2॥

भावार्थ:-
वे प्रेम में मुग्ध हो गए, मुख से वाणी नहीं निकलती। उनकी यह दशा देखकर ज्ञानी मुनि याज्ञवल्क्य बहुत प्रसन्न हुए (और बोले-) हे मुनीश! अहा हा! तुम्हारा जन्म धन्य है, तुमको गौरीपति शिवजी प्राणों के समान प्रिय हैं॥2॥

चौपाई :
सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥3॥

भावार्थ:-
शिवजी के चरण कमलों में जिनकी प्रीति नहीं है, वे श्री रामचन्द्रजी को स्वप्न में भी अच्छे नहीं लगते। विश्वनाथ श्री शिवजी के चरणों में निष्कपट (विशुद्ध) प्रेम होना यही रामभक्त का लक्षण है॥3॥

चौपाई :
सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥
पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥4॥

भावार्थ:-
शिवजी के समान रघुनाथजी (की भक्ति) का व्रत धारण करने वाला कौन है? जिन्होंने बिना ही पाप के सती जैसी स्त्री को त्याग दिया और प्रतिज्ञा करके श्री रघुनाथजी की भक्ति को दिखा दिया। हे भाई! श्री रामचन्द्रजी को शिवजी के समान और कौन प्यारा है?॥4॥

दोहा :
प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥104॥

भावार्थ:-
मैंने पहले ही शिवजी का चरित्र कहकर तुम्हारा भेद समझ लिया। तुम श्री रामचन्द्रजी के पवित्र सेवक हो और समस्त दोषों से रहित हो॥104॥

चौपाई :
मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥
सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥1॥

भावार्थ:-
मैंने तुम्हारा गुण और शील जान लिया। अब मैं श्री रघुनाथजी की लीला कहता हूँ, सुनो। हे मुनि! सुनो, आज तुम्हारे मिलने से मेरे मन में जो आनंद हुआ है, वह कहा नहीं जा सकता॥1॥

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चौपाई :
राम चरित अति अमित मुनीसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥2॥

भावार्थ:-
हे मुनीश्वर! रामचरित्र अत्यन्त अपार है। सौ करोड़ शेषजी भी उसे नहीं कह सकते। तथापि जैसा मैंने सुना है, वैसा वाणी के स्वामी (प्रेरक) और हाथ में धनुष लिए हुए प्रभु श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करके कहता हूँ॥2॥

चौपाई :
सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥3॥

भावार्थ:-
सरस्वतीजी कठपुतली के समान हैं और अन्तर्यामी स्वामी श्री रामचन्द्रजी (सूत पकड़कर कठपुतली को नचाने वाले) सूत्रधार हैं। अपना भक्त जानकर जिस कवि पर वे कृपा करते हैं, उसके हृदय रूपी आँगन में सरस्वती को वे नचाया करते हैं॥3॥

चौपाई :
प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥
परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥4॥

भावार्थ:-
उन्हीं कृपालु श्री रघुनाथजी को मैं प्रणाम करता हूँ और उन्हीं के निर्मल गुणों की कथा कहता हूँ। कैलास पर्वतों में श्रेष्ठ और बहुत ही रमणीय है, जहाँ शिव-पार्वतीजी सदा निवास करते हैं॥4॥

दोहा :
सिद्ध तपोधन जोगिजन सुर किंनर मुनिबृंद।
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिव सुखकंद॥105॥

भावार्थ:-
सिद्ध, तपस्वी, योगीगण, देवता, किन्नर और मुनियों के समूह उस पर्वत पर रहते हैं। वे सब बड़े पुण्यात्मा हैं और आनंदकन्द श्री महादेवजी की सेवा करते हैं॥105॥

चौपाई :
हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥1॥

भावार्थ:-
जो भगवान विष्णु और महादेवजी से विमुख हैं और जिनकी धर्म में प्रीति नहीं है, वे लोग स्वप्न में भी वहाँ नहीं जा सकते। उस पर्वत पर एक विशाल बरगद का पेड़ है, जो नित्य नवीन और सब काल (छहों ऋतुओं) में सुंदर रहता है॥1॥

चौपाई :
त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥2॥

भावार्थ:-
वहाँ तीनों प्रकार की (शीतल, मंद और सुगंध) वायु बहती रहती है और उसकी छाया बड़ी ठंडी रहती है। वह शिवजी के विश्राम करने का वृक्ष है, जिसे वेदों ने गाया है। एक बार प्रभु श्री शिवजी उस वृक्ष के नीचे गए और उसे देखकर उनके हृदय में बहुत आनंद हुआ॥2॥

चौपाई :
निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठे सहजहिं संभु कृपाला॥
कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥3॥

भावार्थ:-
अपने हाथ से बाघम्बर बिछाकर कृपालु शिवजी स्वभाव से ही (बिना किसी खास प्रयोजन के) वहाँ बैठ गए। कुंद के पुष्प, चन्द्रमा और शंख के समान उनका गौर शरीर था। बड़ी लंबी भुजाएँ थीं और वे मुनियों के से (वल्कल) वस्त्र धारण किए हुए थे॥3॥

चौपाई :
तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥4॥

भावार्थ:-
उनके चरण नए (पूर्ण रूप से खिले हुए) लाल कमल के समान थे, नखों की ज्योति भक्तों के हृदय का अंधकार हरने वाली थी। साँप और भस्म ही उनके भूषण थे और उन त्रिपुरासुर के शत्रु शिवजी का मुख शरद (पूर्णिमा) के चन्द्रमा की शोभा को भी हरने वाला (फीकी करने वाला) था॥4॥

दोहा :
जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।
नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥106॥

भावार्थ:-
उनके सिर पर जटाओं का मुकुट और गंगाजी (शोभायमान) थीं। कमल के समान बड़े-बड़े नेत्र थे। उनका नील कंठ था और वे सुंदरता के भंडार थे। उनके मस्तक पर द्वितीया का चन्द्रमा शोभित था॥106॥

चौपाई :
बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥
पारबती भल अवसरु जानी। गईं संभु पहिं मातु भवानी॥1॥

भावार्थ:-
कामदेव के शत्रु शिवजी वहाँ बैठे हुए ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो शांतरस ही शरीर धारण किए बैठा हो। अच्छा मौका जानकर शिवपत्नी माता पार्वतीजी उनके पास गईं।

चौपाई :
जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥
बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥2॥

भावार्थ:-
अपनी प्यारी पत्नी जानकार शिवजी ने उनका बहुत आदर-सत्कार किया और अपनी बायीं ओर बैठने के लिए आसन दिया। पार्वतीजी प्रसन्न होकर शिवजी के पास बैठ गईं। उन्हें पिछले जन्म की कथा स्मरण हो आई॥2॥

चौपाई :
पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥
कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैल कुमारी॥3॥

भावार्थ:-
स्वामी के हृदय में (अपने ऊपर पहले की अपेक्षा) अधिक प्रेम समझकर पार्वतीजी हँसकर प्रिय वचन बोलीं। (याज्ञवल्क्यजी कहते हैं कि) जो कथा सब लोगों का हित करने वाली है, उसे ही पार्वतीजी पूछना चाहती हैं॥3॥

चौपाई :
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥4॥

भावार्थ:-
(पार्वतीजी ने कहा-) हे संसार के स्वामी! हे मेरे नाथ! हे त्रिपुरासुर का वध करने वाले! आपकी महिमा तीनों लोकों में विख्यात है। चर, अचर, नाग, मनुष्य और देवता सभी आपके चरण कमलों की सेवा करते हैं॥4॥

दोहा :
प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम।
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥107॥

भावार्थ:-
हे प्रभो! आप समर्थ, सर्वज्ञ और कल्याणस्वरूप हैं। सब कलाओं और गुणों के निधान हैं और योग, ज्ञान तथा वैराग्य के भंडार हैं। आपका नाम शरणागतों के लिए कल्पवृक्ष है॥107॥

चौपाई :
जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥
तौ प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥1॥

भावार्थ:-
हे सुख की राशि ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और सचमुच मुझे अपनी दासी (या अपनी सच्ची दासी) जानते हैं, तो हे प्रभो! आप श्री रघुनाथजी की नाना प्रकार की कथा कहकर मेरा अज्ञान दूर कीजिए॥1॥

चौपाई :
जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥2॥

भावार्थ:-
जिसका घर कल्पवृक्ष के नीचे हो, वह भला दरिद्रता से उत्पन्न दुःख को क्यों सहेगा? हे शशिभूषण! हे नाथ! हृदय में ऐसा विचार कर मेरी बुद्धि के भारी भ्रम को दूर कीजिए॥2॥

चौपाई :
प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥
सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥3॥

भावार्थ:-
हे प्रभो! जो परमार्थतत्व (ब्रह्म) के ज्ञाता और वक्ता मुनि हैं, वे श्री रामचन्द्रजी को अनादि ब्रह्म कहते हैं और शेष, सरस्वती, वेद और पुराण सभी श्री रघुनाथजी का गुण गाते हैं॥3॥

चौपाई :
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥
रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥4॥

भावार्थ:-
और हे कामदेव के शत्रु! आप भी दिन-रात आदरपूर्वक राम-राम जपा करते हैं- ये राम वही अयोध्या के राजा के पुत्र हैं? या अजन्मे, निर्गुण और अगोचर कोई और राम हैं?॥4॥

दोहा :
जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।
देखि चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥108॥

भावार्थ:-
यदि वे राजपुत्र हैं तो ब्रह्म कैसे? (और यदि ब्रह्म हैं तो) स्त्री के विरह में उनकी मति बावली कैसे हो गई? इधर उनके ऐसे चरित्र देखकर और उधर उनकी महिमा सुनकर मेरी बुद्धि अत्यन्त चकरा रही है॥108॥

चौपाई :
जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥1॥

भावार्थ:-
यदि इच्छारहित, व्यापक, समर्थ ब्रह्म कोई और हैं, तो हे नाथ! मुझे उसे समझाकर कहिए। मुझे नादान समझकर मन में क्रोध न लाइए। जिस तरह मेरा मोह दूर हो, वही कीजिए॥1॥

चौपाई :
मैं बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥
तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥2॥

भावार्थ:-
मैंने (पिछले जन्म में) वन में श्री रामचन्द्रजी की प्रभुता देखी थी, परन्तु अत्यन्त भयभीत होने के कारण मैंने वह बात आपको सुनाई नहीं। तो भी मेरे मलिन मन को बोध न हुआ। उसका फल भी मैंने अच्छी तरह पा लिया॥2॥

चौपाई :
अजहूँ कछु संसउ मन मोरें। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥3॥

भावार्थ:-
अब भी मेरे मन में कुछ संदेह है। आप कृपा कीजिए, मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ। हे प्रभो! आपने उस समय मुझे बहुत तरह से समझाया था (फिर भी मेरा संदेह नहीं गया), हे नाथ! यह सोचकर मुझ पर क्रोध न कीजिए॥3॥

चौपाई :
तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥
कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥4॥

भावार्थ:-
मुझे अब पहले जैसा मोह नहीं है, अब तो मेरे मन में रामकथा सुनने की रुचि है। हे शेषनाग को अलंकार रूप में धारण करने वाले देवताओं के नाथ! आप श्री रामचन्द्रजी के गुणों की पवित्र कथा कहिए॥4॥

दोहा :
बंदउँ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥109॥

भावार्थ:-
मैं पृथ्वी पर सिर टेककर आपके चरणों की वंदना करती हूँ और हाथ जोड़कर विनती करती हूँ। आप वेदों के सिद्धांत को निचोड़कर श्री रघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन कीजिए॥109॥

चौपाई :
जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥
गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥1॥

भावार्थ:-
यद्यपि स्त्री होने के कारण मैं उसे सुनने की अधिकारिणी नहीं हूँ, तथापि मैं मन, वचन और कर्म से आपकी दासी हूँ। संत लोग जहाँ आर्त अधिकारी पाते हैं, वहाँ गूढ़ तत्त्व भी उससे नहीं छिपाते॥1॥

चौपाई :
अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥2॥

भावार्थ:-
हे देवताओं के स्वामी! मैं बहुत ही आर्तभाव (दीनता) से पूछती हूँ, आप मुझ पर दया करके श्री रघुनाथजी की कथा कहिए। पहले तो वह कारण विचारकर बतलाइए, जिससे निर्गुण ब्रह्म सगुण रूप धारण करता है॥2॥

चौपाई :
पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥
कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥3॥

भावार्थ:-
फिर हे प्रभु! श्री रामचन्द्रजी के अवतार (जन्म) की कथा कहिए तथा उनका उदार बाल चरित्र कहिए। फिर जिस प्रकार उन्होंने श्री जानकीजी से विवाह किया, वह कथा कहिए और फिर यह बतलाइए कि उन्होंने जो राज्य छोड़ा, सो किस दोष से॥3॥

चौपाई :
बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखसीला॥4॥

भावार्थ:-
हे नाथ! फिर उन्होंने वन में रहकर जो अपार चरित्र किए तथा जिस तरह रावण को मारा, वह कहिए। हे सुखस्वरूप शंकर! फिर आप उन सारी लीलाओं को कहिए जो उन्होंने राज्य (सिंहासन) पर बैठकर की थीं॥4॥

दोहा :
बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥110॥

भावार्थ:-
हे कृपाधाम! फिर वह अद्भुत चरित्र कहिए जो श्री रामचन्द्रजी ने किया- वे रघुकुल शिरोमणि प्रजा सहित किस प्रकार अपने धाम को गए?॥110॥

चौपाई :
पुनि प्रभु कहहु सो तत्त्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥1॥

भावार्थ:-
हे प्रभु! फिर आप उस तत्त्व को समझाकर कहिए, जिसकी अनुभूति में ज्ञानी मुनिगण सदा मग्न रहते हैं और फिर भक्ति, ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य का विभाग सहित वर्णन कीजिए॥1॥

चौपाई :
औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥
जो प्रभु मैं पूछा नहिं होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥2॥

भावार्थ:-
(इसके सिवा) श्री रामचन्द्रजी के और भी जो अनेक रहस्य (छिपे हुए भाव अथवा चरित्र) हैं, उनको कहिए। हे नाथ! आपका ज्ञान अत्यन्त निर्मल है। हे प्रभो! जो बात मैंने न भी पूछी हो, हे दयालु! उसे भी आप छिपा न रखिएगा॥2॥

चौपाई :
तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥3॥

भावार्थ:-
वेदों ने आपको तीनों लोकों का गुरु कहा है। दूसरे पामर जीव इस रहस्य को क्या जानें! पार्वतीजी के सहज सुंदर और छलरहित (सरल) प्रश्न सुनकर शिवजी के मन को बहुत अच्छे लगे॥3॥

चौपाई :
हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥4॥

भावार्थ:-
श्री महादेवजी के हृदय में सारे रामचरित्र आ गए। प्रेम के मारे उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में जल भर आया। श्री रघुनाथजी का रूप उनके हृदय में आ गया, जिससे स्वयं परमानन्दस्वरूप शिवजी ने भी अपार सुख पाया॥4॥

दोहा :
मगन ध्यान रस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥111।

भावार्थ:-
शिवजी दो घड़ी तक ध्यान के रस (आनंद) में डूबे रहे, फिर उन्होंने मन को बाहर खींचा और तब वे प्रसन्न होकर श्री रघुनाथजी का चरित्र वर्णन करने लगे॥111॥

चौपाई :
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥1॥

भावार्थ:-
जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है और जिसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है॥1॥

चौपाई :
बंदउँ बालरूप सोइ रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥2॥

भावार्थ:-
मैं उन्हीं श्री रामचन्द्रजी के बाल रूप की वंदना करता हूँ, जिनका नाम जपने से सब सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। मंगल के धाम, अमंगल के हरने वाले और श्री दशरथजी के आँगन में खेलने वाले (बालरूप) श्री रामचन्द्रजी मुझ पर कृपा करें॥2॥

चौपाई :
करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥3॥

भावार्थ:-
त्रिपुरासुर का वध करने वाले शिवजी श्री रामचन्द्रजी को प्रणाम करके आनंद में भरकर अमृत के समान वाणी बोले- हे गिरिराजकुमारी पार्वती! तुम धन्य हो! धन्य हो!! तुम्हारे समान कोई उपकारी नहीं है॥3॥

चौपाई :
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥4॥

भावार्थ:-
जो तुमने श्री रघुनाथजी की कथा का प्रसंग पूछा है, जो कथा समस्त लोकों के लिए जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी के समान है। तुमने जगत के कल्याण के लिए ही प्रश्न पूछे हैं। तुम श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम रखने वाली हो॥4॥

दोहा :
राम कृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥112॥

भावार्थ:-
हे पार्वती! मेरे विचार में तो श्री रामजी की कृपा से तुम्हारे मन में स्वप्न में भी शोक, मोह, संदेह और भ्रम कुछ भी नहीं है॥112॥

चौपाई :
तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥
जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥1॥

भावार्थ:-
फिर भी तुमने इसीलिए वही (पुरानी) शंका की है कि इस प्रसंग के कहने-सुनने से सबका कल्याण होगा। जिन्होंने अपने कानों से भगवान की कथा नहीं सुनी, उनके कानों के छिद्र साँप के बिल के समान हैं॥1॥

चौपाई :
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥
तेसिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥2॥

भावार्थ:-
जिन्होंने अपने नेत्रों से संतों के दर्शन नहीं किए, उनके वे नेत्र मोर के पंखों पर दिखने वाली नकली आँखों की गिनती में हैं। वे सिर कड़वी तूँबी के समान हैं, जो श्री हरि और गुरु के चरणतल पर नहीं झुकते॥2॥

चौपाई :
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥3॥

भावार्थ:-
जिन्होंने भगवान की भक्ति को अपने हृदय में स्थान नहीं दिया, वे प्राणी जीते हुए ही मुर्दे के समान हैं, जो जीभ श्री रामचन्द्रजी के गुणों का गान नहीं करती, वह मेंढक की जीभ के समान है॥3॥

चौपाई :
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥4॥

भावार्थ:-
वह हृदय वज्र के समान कड़ा और निष्ठुर है, जो भगवान के चरित्र सुनकर हर्षित नहीं होता। हे पार्वती! श्री रामचन्द्रजी की लीला सुनो, यह देवताओं का कल्याण करने वाली और दैत्यों को विशेष रूप से मोहित करने वाली है॥4॥

दोहा :
रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥113॥

भावार्थ:-
श्री रामचन्द्रजी की कथा कामधेनु के समान सेवा करने से सब सुखों को देने वाली है और सत्पुरुषों के समाज ही सब देवताओं के लोक हैं, ऐसा जानकर इसे कौन न सुनेगा!॥113॥

चौपाई :
रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥1॥

भावार्थ:-
श्री रामचन्द्रजी की कथा हाथ की सुंदर ताली है, जो संदेह रूपी पक्षियों को उड़ा देती है। फिर रामकथा कलियुग रूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है। हे गिरिराजकुमारी! तुम इसे आदरपूर्वक सुनो॥1॥

चौपाई :
राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥
जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥2॥

भावार्थ:-
वेदों ने श्री रामचन्द्रजी के सुंदर नाम, गुण, चरित्र, जन्म और कर्म सभी अनगिनत कहे हैं। जिस प्रकार भगवान श्री रामचन्द्रजी अनन्त हैं, उसी तरह उनकी कथा, कीर्ति और गुण भी अनंत हैं॥2॥

चौपाई :
तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥3॥

भावार्थ:-
तो भी तुम्हारी अत्यन्त प्रीति देखकर, जैसा कुछ मैंने सुना है और जैसी मेरी बुद्धि है, उसी के अनुसार मैं कहूँगा। हे पार्वती! तुम्हारा प्रश्न स्वाभाविक ही सुंदर, सुखदायक और संतसम्मत है और मुझे तो बहुत ही अच्छा लगा है॥3॥

चौपाई :
एक बात नहिं मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥
तुम्ह जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥4॥

भावार्थ:-
परंतु हे पार्वती! एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी, यद्यपि वह तुमने मोह के वश होकर ही कही है। तुमने जो यह कहा कि वे राम कोई और हैं, जिन्हें वेद गाते और मुनिजन जिनका ध्यान धरते हैं-॥4॥

दोहा :
कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥114॥

भावार्थ:-
जो मोह रूपी पिशाच के द्वारा ग्रस्त हैं, पाखण्डी हैं, भगवान के चरणों से विमुख हैं और जो झूठ-सच कुछ भी नहीं जानते, ऐसे अधम मनुष्य ही इस तरह कहते-सुनते हैं॥114॥

चौपाई :
अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकुर मन लागी॥
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥1॥

भावार्थ:-
जो अज्ञानी, मूर्ख, अंधे और भाग्यहीन हैं और जिनके मन रूपी दर्पण पर विषय रूपी काई जमी हुई है, जो व्यभिचारी, छली और बड़े कुटिल हैं और जिन्होंने कभी स्वप्न में भी संत समाज के दर्शन नहीं किए॥1॥

चौपाई :
कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥
मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥2॥

भावार्थ:-
और जिन्हें अपने लाभ-हानि नहीं सूझती, वे ही ऐसी वेदविरुद्ध बातें कहा करते हैं, जिनका हृदय रूपी दर्पण मैला है और जो नेत्रों से हीन हैं, वे बेचारे श्री रामचन्द्रजी का रूप कैसे देखें!॥2॥

चौपाई :
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥3॥

भावार्थ:-
जिनको निर्गुण-सगुण का कुछ भी विवेक नहीं है, जो अनेक मनगढ़ंत बातें बका करते हैं, जो श्री हरि की माया के वश में होकर जगत में (जन्म-मृत्यु के चक्र में) भ्रमते फिरते हैं, उनके लिए कुछ भी कह डालना असंभव नहीं है॥3॥

चौपाई :
बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना॥4॥

भावार्थ:-
जिन्हें वायु का रोग (सन्निपात, उन्माद आदि) हो गया हो, जो भूत के वश हो गए हैं और जो नशे में चूर हैं, ऐसे लोग विचारकर वचन नहीं बोलते। जिन्होंने महामोह रूपी मदिरा पी रखी है, उनके कहने पर कान नहीं देना चाहिए॥4॥

सोरठा :
अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥115॥

भावार्थ:-
अपने हृदय में ऐसा विचार कर संदेह छोड़ दो और श्री रामचन्द्रजी के चरणों को भजो। हे पार्वती! भ्रम रूपी अंधकार के नाश करने के लिए सूर्य की किरणों के समान मेरे वचनों को सुनो!॥115॥

चौपाई :
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥1॥

भावार्थ:-
सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है- मुनि, पुराण, पण्डित और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है॥1॥

चौपाई :
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥2॥

भावार्थ:-
जो निर्गुण है वही सगुण कैसे है? जैसे जल और ओले में भेद नहीं। (दोनों जल ही हैं, ऐसे ही निर्गुण और सगुण एक ही हैं।) जिसका नाम भ्रम रूपी अंधकार के मिटाने के लिए सूर्य है, उसके लिए मोह का प्रसंग भी कैसे कहा जा सकता है?॥2॥

चौपाई :
राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥
सहज प्रकासरूप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥3॥

भावार्थ:-
श्री रामचन्द्रजी सच्चिदानन्दस्वरूप सूर्य हैं। वहाँ मोह रूपी रात्रि का लवलेश भी नहीं है। वे स्वभाव से ही प्रकाश रूप और (षडैश्वर्ययुक्त) भगवान है, वहाँ तो विज्ञान रूपी प्रातःकाल भी नहीं होता (अज्ञान रूपी रात्रि हो तब तो विज्ञान रूपी प्रातःकाल हो, भगवान तो नित्य ज्ञान स्वरूप हैं।)॥3॥

चौपाई :
हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानंद परेस पुराना॥4॥

भावार्थ:-
हर्ष, शोक, ज्ञान, अज्ञान, अहंता और अभिमान- ये सब जीव के धर्म हैं। श्री रामचन्द्रजी तो व्यापक ब्रह्म, परमानन्दस्वरूप, परात्पर प्रभु और पुराण पुरुष हैं। इस बात को सारा जगत जानता है॥4॥

दोहा :
पुरुष प्रसिद्ध प्रकाश निधि प्रगट परावर नाथ।
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥116॥

भावार्थ:-
जो (पुराण) पुरुष प्रसिद्ध हैं, प्रकाश के भंडार हैं, सब रूपों में प्रकट हैं, जीव, माया और जगत सबके स्वामी हैं, वे ही रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी मेरे स्वामी हैं- ऐसा कहकर शिवजी ने उनको मस्तक नवाया॥116॥

चौपाई :
निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी॥1॥

भावार्थ:-
अज्ञानी मनुष्य अपने भ्रम को तो समझते नहीं और वे मूर्ख प्रभु श्री रामचन्द्रजी पर उसका आरोप करते हैं, जैसे आकाश में बादलों का परदा देखकर कुविचारी (अज्ञानी) लोग कहते हैं कि बादलों ने सूर्य को ढँक लिया॥1॥

चौपाई :
चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥
उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥2॥

भावार्थ:-
जो मनुष्य आँख में अँगुली लगाकर देखता है, उसके लिए तो दो चन्द्रमा प्रकट (प्रत्यक्ष) हैं। हे पार्वती! श्री रामचन्द्रजी के विषय में इस प्रकार मोह की कल्पना करना वैसा ही है, जैसा आकाश में अंधकार, धुएँ और धूल का सोहना (दिखना)। (आकाश जैसे निर्मल और निर्लेप है, उसको कोई मलिन या स्पर्श नहीं कर सकता, इसी प्रकार भगवान श्री रामचन्द्रजी नित्य निर्मल और निर्लेप हैं।)॥2॥

चौपाई :
बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥
सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥3॥

भावार्थ:-
विषय, इन्द्रियाँ, इन्द्रियों के देवता और जीवात्मा- ये सब एक की सहायता से एक चेतन होते हैं। (अर्थात विषयों का प्रकाश इन्द्रियों से, इन्द्रियों का इन्द्रियों के देवताओं से और इन्द्रिय देवताओं का चेतन जीवात्मा से प्रकाश होता है।) इन सबका जो परम प्रकाशक है (अर्थात जिससे इन सबका प्रकाश होता है), वही अनादि ब्रह्म अयोध्या नरेश श्री रामचन्द्रजी हैं॥3॥

चौपाई :
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥4॥

भावार्थ:-
यह जगत प्रकाश्य है और श्री रामचन्द्रजी इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं। जिनकी सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य सी भासित होती है॥4॥

दोहा :
रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि।
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥117॥

भावार्थ:-
जैसे सीप में चाँदी की और सूर्य की किरणों में पानी की (बिना हुए भी) प्रतीति होती है। यद्यपि यह प्रतीति तीनों कालों में झूठ है, तथापि इस भ्रम को कोई हटा नहीं सकता॥117॥

चौपाई :
एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥1॥

भावार्थ:-
इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता॥1॥

चौपाई :
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥
आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥2॥

भावार्थ:-
हे पार्वती! जिनकी कृपा से इस प्रकार का भ्रम मिट जाता है, वही कृपालु श्री रघुनाथजी हैं। जिनका आदि और अंत किसी ने नहीं (जान) पाया। वेदों ने अपनी बुद्धि से अनुमान करके इस प्रकार (नीचे लिखे अनुसार) गाया है-॥2॥

चौपाई :
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥3॥

भावार्थ:-
वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिव्हा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना ही वाणी के बहुत योग्य वक्ता है॥3॥

चौपाई :
तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥4॥

भावार्थ:-
वह बिना ही शरीर (त्वचा) के स्पर्श करता है, बिना ही आँखों के देखता है और बिना ही नाक के सब गंधों को ग्रहण करता है (सूँघता है)। उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती॥4॥

चौपाई :
जेहि इमि गावहिं बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान।
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥118॥

भावार्थ:-
जिसका वेद और पंडित इस प्रकार वर्णन करते हैं और मुनि जिसका ध्यान धरते हैं, वही दशरथनंदन, भक्तों के हितकारी, अयोध्या के स्वामी भगवान श्री रामचन्द्रजी हैं॥118॥

चौपाई :
कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥1॥

भावार्थ:-
(हे पार्वती !) जिनके नाम के बल से काशी में मरते हुए प्राणी को देखकर मैं उसे (राम मंत्र देकर) शोकरहित कर देता हूँ (मुक्त कर देता हूँ), वही मेरे प्रभु रघुश्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजी जड़-चेतन के स्वामी और सबके हृदय के भीतर की जानने वाले हैं॥1॥

चौपाई :
बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥
सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥2॥

भावार्थ:-
विवश होकर (बिना इच्छा के) भी जिनका नाम लेने से मनुष्यों के अनेक जन्मों में किए हुए पाप जल जाते हैं। फिर जो मनुष्य आदरपूर्वक उनका स्मरण करते हैं, वे तो संसार रूपी (दुस्तर) समुद्र को गाय के खुर से बने हुए गड्ढे के समान (अर्थात बिना किसी परिश्रम के) पार कर जाते हैं॥2॥

चौपाई :
राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥
अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥3॥

भावार्थ:-
हे पार्वती! वही परमात्मा श्री रामचन्द्रजी हैं। उनमें भ्रम (देखने में आता) है, तुम्हारा ऐसा कहना अत्यन्त ही अनुचित है। इस प्रकार का संदेह मन में लाते ही मनुष्य के ज्ञान, वैराग्य आदि सारे सद्गुण नष्ट हो जाते हैं॥3॥

चौपाई :
सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥4॥

भावार्थ:-
शिवजी के भ्रमनाशक वचनों को सुनकर पार्वतीजी के सब कुतर्कों की रचना मिट गई। श्री रघुनाथजी के चरणों में उनका प्रेम और विश्वास हो गया और कठिन असम्भावना (जिसका होना- सम्भव नहीं, ऐसी मिथ्या कल्पना) जाती रही!॥4॥

दोहा :
पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।
बोलीं गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥119॥

भावार्थ:-
बार- बार स्वामी (शिवजी) के चरणकमलों को पकड़कर और अपने कमल के समान हाथों को जोड़कर पार्वतीजी मानो प्रेमरस में सानकर सुंदर वचन बोलीं॥119॥

चौपाई :
ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ॥1॥

भावार्थ:-
आपकी चन्द्रमा की किरणों के समान शीतल वाणी सुनकर मेरा अज्ञान रूपी शरद-ऋतु (क्वार) की धूप का भारी ताप मिट गया। हे कृपालु! आपने मेरा सब संदेह हर लिया, अब श्री रामचन्द्रजी का यथार्थ स्वरूप मेरी समझ में आ गया॥1॥

चौपाई :
नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥
अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड़ नारि अयानी॥2॥

भावार्थ:-
हे नाथ! आपकी कृपा से अब मेरा विषाद जाता रहा और आपके चरणों के अनुग्रह से मैं सुखी हो गई। यद्यपि मैं स्त्री होने के कारण स्वभाव से ही मूर्ख और ज्ञानहीन हूँ, तो भी अब आप मुझे अपनी दासी जानकर-॥2॥

चौपाई :
प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥3॥

भावार्थ:-
हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो जो बात मैंने पहले आपसे पूछी थी, वही कहिए। (यह सत्य है कि) श्री रामचन्द्रजी ब्रह्म हैं, चिन्मय (ज्ञानस्वरूप) हैं, अविनाशी हैं, सबसे रहित और सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करने वाले हैं॥3॥

चौपाई :
नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥
उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥4॥

भावार्थ:-
फिर हे नाथ! उन्होंने मनुष्य का शरीर किस कारण से धारण किया? हे धर्म की ध्वजा धारण करने वाले प्रभो! यह मुझे समझाकर कहिए। पार्वती के अत्यन्त नम्र वचन सुनकर और श्री रामचन्द्रजी की कथा में उनका विशुद्ध प्रेम देखकर-॥4॥

दोहा :
हियँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान।
बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥120 क॥

भावार्थ:-
तब कामदेव के शत्रु, स्वाभाविक ही सुजान, कृपा निधान शिवजी मन में बहुत ही हर्षित हुए और बहुत प्रकार से पार्वती की बड़ाई करके फिर बोले- ॥120 (क)॥

नवाह्न पारायण, पहला विश्राम
मासपारायण, चौथा विश्राम

सोरठा :
सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड़॥120 ख॥

भावार्थ:-
हे पार्वती! निर्मल रामचरितमानस की वह मंगलमयी कथा सुनो जिसे काकभुशुण्डि ने विस्तार से कहा और पक्षियों के राजा गरुड़जी ने सुना था॥120 (ख)॥

सोरठा :
सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।
सुनहु राम अवतार चरति परम सुंदर अनघ॥120 ग॥

भावार्थ:-
वह श्रेष्ठ संवाद जिस प्रकार हुआ, वह मैं आगे कहूँगा। अभी तुम श्री रामचन्द्रजी के अवतार का परम सुंदर और पवित्र (पापनाशक) चरित्र सुनो॥120(ग)॥

सोरठा :
हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥120 घ॥

भावार्थ:-
श्री हरि के गुण, मान, कथा और रूप सभी अपार, अगणित और असीम हैं। फिर भी हे पार्वती! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहता हूँ, तुम आदरपूर्वक सुनो॥120 (घ)॥

चौपाई :
सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥1॥

भावार्थ:-
हे पार्वती! सुनो, वेद-शास्त्रों ने श्री हरि के सुंदर, विस्तृत और निर्मल चरित्रों का गान किया है। हरि का अवतार जिस कारण से होता है, वह कारण ‘बस यही है’ ऐसा नहीं कहा जा सकता (अनेकों कारण हो सकते हैं और ऐसे भी हो सकते हैं, जिन्हें कोई जान ही नहीं सकता)॥1॥

चौपाई :
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥2॥

भावार्थ:-
हे सयानी! सुनो, हमारा मत तो यह है कि बुद्धि, मन और वाणी से श्री रामचन्द्रजी की तर्कना नहीं की जा सकती। तथापि संत, मुनि, वेद और पुराण अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार जैसा कुछ कहते हैं॥2॥

चौपाई :
तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥
जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥3॥

भावार्थ:-
और जैसा कुछ मेरी समझ में आता है, हे सुमुखि! वही कारण मैं तुमको सुनाता हूँ। जब-जब धर्म का ह्रास होता है और नीच अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं॥3॥

चौपाई :
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥4॥

भावार्थ:-
और वे ऐसा अन्याय करते हैं कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता तथा ब्राह्मण, गो, देवता और पृथ्वी कष्ट पाते हैं, तब-तब वे कृपानिधान प्रभु भाँति-भाँति के (दिव्य) शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा हरते हैं॥4॥

दोहा :
असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥121॥

भावार्थ:-
वे असुरों को मारकर देवताओं को स्थापित करते हैं, अपने (श्वास रूप) वेदों की मर्यादा की रक्षा करते हैं और जगत में अपना निर्मल यश फैलाते हैं। श्री रामचन्द्रजी के अवतार का यह कारण है॥121॥

चौपाई :
सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥
राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥1॥

भावार्थ:-
उसी यश को गा-गाकर भक्तजन भवसागर से तर जाते हैं। कृपासागर भगवान भक्तों के हित के लिए शरीर धारण करते हैं। श्री रामचन्द्रजी के जन्म लेने के अनेक कारण हैं, जो एक से एक बढ़कर विचित्र हैं॥1॥

चौपाई :
जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥2॥

भावार्थ:-
हे सुंदर बुद्धि वाली भवानी! मैं उनके दो-एक जन्मों का विस्तार से वर्णन करता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो। श्री हरि के जय और विजय दो प्यारे द्वारपाल हैं, जिनको सब कोई जानते हैं॥2॥

चौपाई :
बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
कनककसिपु अरु हाटकलोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥3॥

भावार्थ:-
उन दोनों भाइयों ने ब्राह्मण (सनकादि) के शाप से असुरों का तामसी शरीर पाया। एक का नाम था हिरण्यकशिपु और दूसरे का हिरण्याक्ष। ये देवराज इन्द्र के गर्व को छुड़ाने वाले सारे जगत में प्रसिद्ध हुए॥3॥

चौपाई :
बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥4॥

भावार्थ:-
वे युद्ध में विजय पाने वाले विख्यात वीर थे। इनमें से एक (हिरण्याक्ष) को भगवान ने वराह (सूअर) का शरीर धारण करके मारा, फिर दूसरे (हिरण्यकशिपु) का नरसिंह रूप धारण करके वध किया और अपने भक्त प्रह्लाद का सुंदर यश फैलाया॥4॥

दोहा :
भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।
कुंभकरन रावन सुभट सुर बिजई जग जान॥122॥

भावार्थ:-
वे ही (दोनों) जाकर देवताओं को जीतने वाले तथा बड़े योद्धा, रावण और कुम्भकर्ण नामक बड़े बलवान और महावीर राक्षस हुए, जिन्हें सारा जगत जानता है॥122॥

चौपाई :
मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥
एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥1॥

भावार्थ:-
भगवान के द्वारा मारे जाने पर भी वे (हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु) इसीलिए मुक्त नहीं हुए कि ब्राह्मण के वचन (शाप) का प्रमाण तीन जन्म के लिए था। अतः एक बार उनके कल्याण के लिए भक्तप्रेमी भगवान ने फिर अवतार लिया॥1॥

चौपाई :
कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित पवित्र किए संसारा॥2॥

भावार्थ:-
वहाँ (उस अवतार में) कश्यप और अदिति उनके माता-पिता हुए, जो दशरथ और कौसल्या के नाम से प्रसिद्ध थे। एक कल्प में इस प्रकार अवतार लेकर उन्होंने संसार में पवित्र लीलाएँ कीं॥2॥

चौपाई :
एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥
संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥3॥

भावार्थ:-
एक कल्प में सब देवताओं को जलन्धर दैत्य से युद्ध में हार जाने के कारण दुःखी देखकर शिवजी ने उसके साथ बड़ा घोर युद्ध किया, पर वह महाबली दैत्य मारे नहीं मरता था॥3॥

चौपाई :
परम सती असुराधिप नारी। तेहिं बल ताहि न जितहिं पुरारी॥4॥

भावार्थ:-
उस दैत्यराज की स्त्री परम सती (बड़ी ही पतिव्रता) थी। उसी के प्रताप से त्रिपुरासुर (जैसे अजेय शत्रु) का विनाश करने वाले शिवजी भी उस दैत्य को नहीं जीत सके॥4॥

दोहा :
छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह।
जब तेहिं जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥123॥

भावार्थ:-
प्रभु ने छल से उस स्त्री का व्रत भंग कर देवताओं का काम किया। जब उस स्त्री ने यह भेद जाना, तब उसने क्रोध करके भगवान को शाप दिया॥123॥

चौपाई :
तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥
तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥1॥

भावार्थ:-
लीलाओं के भंडार कृपालु हरि ने उस स्त्री के शाप को प्रामाण्य दिया (स्वीकार किया)। वही जलन्धर उस कल्प में रावण हुआ, जिसे श्री रामचन्द्रजी ने युद्ध में मारकर परमपद दिया॥1॥

चौपाई :
एक जनम कर कारन एहा। जेहि लगि राम धरी नरदेहा॥
प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥2॥

भावार्थ:-
एक जन्म का कारण यह था, जिससे श्री रामचन्द्रजी ने मनुष्य देह धारण किया। हे भरद्वाज मुनि! सुनो, प्रभु के प्रत्येक अवतार की कथा का कवियों ने नाना प्रकार से वर्णन किया है॥2॥

चौपाई :
नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥
गिरिजा चकित भईं सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानी॥3॥

भावार्थ:-
एक बार नारदजी ने शाप दिया, अतः एक कल्प में उसके लिए अवतार हुआ। यह बात सुनकर पार्वतीजी बड़ी चकित हुईं (और बोलीं कि) नारदजी तो विष्णु भक्त और ज्ञानी हैं॥3॥

चौपाई :
कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥4॥

भावार्थ:-
मुनि ने भगवान को शाप किस कारण से दिया। लक्ष्मीपति भगवान ने उनका क्या अपराध किया था? हे पुरारि (शंकरजी)! यह कथा मुझसे कहिए। मुनि नारद के मन में मोह होना बड़े आश्चर्य की बात है॥4॥

दोहा :
बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥124 क॥

भावार्थ:-
तब महादेवजी ने हँसकर कहा- न कोई ज्ञानी है न मूर्ख। श्री रघुनाथजी जब जिसको जैसा करते हैं, वह उसी क्षण वैसा ही हो जाता है॥124 (क)॥

सोरठा :
कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥124 ख॥

भावार्थ:-
(याज्ञवल्क्यजी कहते हैं-) हे भरद्वाज! मैं श्री रामचन्द्रजी के गुणों की कथा कहता हूँ, तुम आदर से सुनो। तुलसीदासजी कहते हैं- मान और मद को छोड़कर आवागमन का नाश करने वाले रघुनाथजी को भजो॥124 (ख)॥

चौपाई :
हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥1॥

भावार्थ:-
हिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उसके समीप ही सुंदर गंगाजी बहती थीं। वह परम पवित्र सुंदर आश्रम देखने पर नारदजी के मन को बहुत ही सुहावना लगा॥1॥

चौपाई :
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥2॥

भावार्थ:-
पर्वत, नदी और वन के (सुंदर) विभागों को देखकर नादरजी का लक्ष्मीकांत भगवान के चरणों में प्रेम हो गया। भगवान का स्मरण करते ही उन (नारद मुनि) के शाप की (जो शाप उन्हें दक्ष प्रजापति ने दिया था और जिसके कारण वे एक स्थान पर नहीं ठहर सकते थे) गति रुक गई और मन के स्वाभाविक ही निर्मल होने से उनकी समाधि लग गई॥2॥

चौपाई :
मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह सनमाना॥
सहित सहाय जाहु मम हेतू। चलेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥3॥

भावार्थ:-
नारद मुनि की (यह तपोमयी) स्थिति देखकर देवराज इंद्र डर गया। उसने कामदेव को बुलाकर उसका आदर-सत्कार किया (और कहा कि) मेरे (हित के) लिए तुम अपने सहायकों सहित (नारद की समाधि भंग करने को) जाओ। (यह सुनकर) मीनध्वज कामदेव मन में प्रसन्न होकर चला॥3॥

चौपाई :
सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥
जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥4॥

भावार्थ:-
इन्द्र के मन में यह डर हुआ कि देवर्षि नारद मेरी पुरी (अमरावती) का निवास (राज्य) चाहते हैं। जगत में जो कामी और लोभी होते हैं, वे कुटिल कौए की तरह सबसे डरते हैं॥4॥

दोहा :
सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥125॥

भावार्थ:-
जैसे मूर्ख कुत्ता सिंह को देखकर सूखी हड्डी लेकर भागे और वह मूर्ख यह समझे कि कहीं उस हड्डी को सिंह छीन न ले, वैसे ही इन्द्र को (नारदजी मेरा राज्य छीन लेंगे, ऐसा सोचते) लाज नहीं आई॥125॥

चौपाई :
तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहिं भृंगा॥1॥

भावार्थ:-
जब कामदेव उस आश्रम में गया, तब उसने अपनी माया से वहाँ वसन्त ऋतु को उत्पन्न किया। तरह-तरह के वृक्षों पर रंग-बिरंगे फूल खिल गए, उन पर कोयलें कूकने लगीं और भौंरे गुंजार करने लगे॥1॥

चौपाई :
चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥
रंभादिक सुर नारि नबीना। सकल असमसर कला प्रबीना॥2॥

भावार्थ:-
कामाग्नि को भड़काने वाली तीन प्रकार की (शीतल, मंद और सुगंध) सुहावनी हवा चलने लगी। रम्भा आदि नवयुवती देवांगनाएँ, जो सब की सब कामकला में निपुण थीं,॥2॥

चौपाई :
करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हिं पानि पतंगा॥
देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥3॥

भावार्थ:-
वे बहुत प्रकार की तानों की तरंग के साथ गाने लगीं और हाथ में गेंद लेकर नाना प्रकार के खेल खेलने लगीं। कामदेव अपने इन सहायकों को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और फिर उसने नाना प्रकार के मायाजाल किए॥3॥

चौपाई :
काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासू। बड़ रखवार रमापति जासू॥4॥

भावार्थ:-
परन्तु कामदेव की कोई भी कला मुनि पर असर न कर सकी। तब तो पापी कामदेव अपने ही (नाश के) भय से डर गया। लक्ष्मीपति भगवान जिसके बड़े रक्षक हों, भला, उसकी सीमा (मर्यादा) को कोई दबा सकता है? ॥4॥

बालकाण्ड 126-150

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