संपूर्ण कवच- “अ” से “त्र” तक

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॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ श्री कमलापति नम: ॥
॥ श्री जानकीवल्लभो विजयते ॥
॥ श्री गुरूदेवाय नमः ॥


संपूर्ण कवच “अ” से “त्र” तक कवच
आपके चारों ओर नकारात्मकता को खत्म करने के लिए एक शक्तिशाली मंत्रों के संग्रह को कवच कहते है। यह किसी भी बुरी आत्माओं से रक्षा करने में एक कवच के रूप में कार्य करता है।
मंत्रो में नकारात्मक, प्रतिकूल कंपन को अधिक सकारात्मक और आकर्षक कंपन में बदलने की क्षमता होती है। ऐसा कहा जाता है कि वह व्यक्ति जो ईमानदारी से भक्ति और सही उच्चारण के साथ नियमित रूप से कवच को पढ़ता है, वह सभी बुराइयों से संरक्षित रहता है।

अमोघ शिव कवच
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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-
मैं सर्व साधारण व समस्त आस्तिक भक्तो के लाभार्थ अति प्राचीन सिद्धीप्रद अमोघ शिव कवच प्रयोग दे रहा हूँ। इसके शुद्ध सत्य अनुष्ठान से भयंकर से भयंकर विपत्ति से छुटकारा मिल जाता है भक्तो की अनेक भयानक से भयानक विपत्तियों का निराकरण इस शिव कवच के अनुष्ठान से दिया है। इसके पाठ से निश्चित ही भगवान आशुतोष की कृपा होती है।
विनियोग:
ॐ अस्य श्रीशिवकवचस्तोत्रमंत्रस्य ब्रह्मा ऋषि: अनुष्टप् छन्द:। श्रीसदाशिवरुद्रो देवता। ह्रीं शक्ति :। रं कीलकम्। श्रीं ह्री क्लीं बीजम्। श्रीसदाशिवप्रीत्यर्थे शिवकवचस्तोत्रजपे विनियोग:।
करन्यास:
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ ह्रां सर्वशक्तिधाम्ने इशानात्मने अन्गुष्ठाभ्याम नम:।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ नं रिं नित्यतृप्तिधाम्ने तत्पुरुषातमने तर्जनीभ्याम नम:।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ मं रूं अनादिशक्तिधाम्ने अधोरात्मने मध्यमाभ्याम नम:।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ शिं रैं स्वतंत्रशक्तिधाम्ने वामदेवात्मने अनामिकाभ्याम नम:।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ वां रौं अलुप्तशक्तिधाम्ने सद्योजातात्मने कनिष्ठिकाभ्याम नम:।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ यं र: अनादिशक्तिधाम्ने सर्वात्मने करतल करपृष्ठाभ्याम नम:।
अंगन्यास:
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ ह्रां सर्वशक्तिधाम्ने इशानात्मने हृदयाय नम:।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ नं रिं नित्यतृप्तिधाम्ने तत्पुरुषातमने शिरसे स्वाहा।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ मं रूं अनादिशक्तिधाम्ने अधोरात्मने शिखायै वषट।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ शिं रैं स्वतंत्रशक्तिधाम्ने वामदेवात्मने नेत्रत्रयाय वौषट।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ वां रौं अलुप्तशक्तिधाम्ने सद्योजातात्मने कवचाय हुम।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ यं र: अनादिशक्तिधाम्ने सर्वात्मने अस्त्राय फट।
अथ दिग्बन्धन:
ॐ भूर्भुव: स्व:
ध्यानम:
कर्पुरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम।
सदा वसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानीसहितं नमामि॥
ऋषभ उवाच:
अथापरं सर्वपुराणगुह्यं निशे:षपापौघहरं पवित्रम्।
जयप्रदं सर्वविपत्प्रमोचनं वक्ष्यामि शैवं कवचं हिताय ते॥1॥
नमस्कृत्य महादेवं विश्वुव्यापिनमीश्वतरम्।
वक्ष्ये शिवमयं वर्म सर्वरक्षाकरं नृणाम्॥2॥
शुचौ देशे समासीनो यथावत्कल्पितासन:।
जितेन्द्रियो जितप्राणश्चिंमतयेच्छिवमव्ययम्॥3॥
ह्रत्पुंडरीक तरसन्निविष्टं स्वतेजसा व्याप्तनभोवकाशम्।
अतींद्रियं सूक्ष्ममनंतताद्यंध्यायेत्परानंदमयं महेशम्॥4॥
ध्यानावधूताखिलकर्मबन्धश्चयरं चितानन्दनिमग्नचेता:।
षडक्षरन्याससमाहितात्मा शैवेन कुर्यात्कवचेन रक्षाम्॥5॥
मां पातु देवोऽखिलदेवत्मा संसारकूपे पतितं गंभीरे तन्नाम।
दिव्यं वरमंत्रमूलं धुनोतु मे सर्वमघं ह्रदिस्थम्॥6॥
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सर्वत्रमां रक्षतु विश्वामूर्तिर्ज्योतिर्मयानंदघनश्चियदात्मा।
अणोरणीयानुरुशक्तिररेक: स ईश्व र: पातु भयादशेषात्॥7॥
यो भूस्वरूपेण बिर्भीत विश्वों पायात्स भूमेर्गिरिशोऽष्टमूर्ति:।
योऽपांस्वरूपेण नृणां करोति संजीवनं सोऽवतु मां जलेभ्य:॥8॥
कल्पावसाने भुवनानि दग्ध्वा सर्वाणि यो नृत्यति भूरिलील:।
स कालरुद्रोऽवतु मां दवाग्नेर्वात्यादिभीतेरखिलाच्च तापात्॥9॥
प्रदीप्तविद्युत्कनकावभासो विद्यावराभीति कुठारपाणि:।
चतुर्मुखस्तत्पुरुषस्त्रिनेत्र: प्राच्यां स्थितं रक्षतु मामजस्त्रम्॥10॥
कुठारवेदांकुशपाशशूलकपालढक्काक्षगुणान् दधान:।
चतुर्मुखोनीलरुचिस्त्रिनेत्र: पायादघोरो दिशि दक्षिणस्याम्॥11॥
कुंदेंदुशंखस्फटिकावभासो वेदाक्षमाला वरदाभयांक:।
त्र्यक्षश्चितुर्वक्र उरुप्रभाव: सद्योधिजातोऽवस्तु मां प्रतीच्याम्॥12॥
वराक्षमालाभयटंकहस्त: सरोज किंजल्कसमानवर्ण:।
त्रिलोचनश्चायरुचतुर्मुखो मां पायादुदीच्या दिशि वामदेव:॥13॥
वेदाभ्येष्टांकुशपाश टंककपालढक्काक्षकशूलपाणि:।
सितद्युति: पंचमुखोऽवतान्मामीशान ऊर्ध्वं परमप्रकाश:॥14॥
मूर्धानमव्यान्मम चंद्रमौलिर्भालं ममाव्यादथ भालनेत्र:।
नेत्रे ममा व्याद्भगनेत्रहारी नासां सदा रक्षतु विश्व नाथ:॥15॥
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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-
पायाच्छ्र ती मे श्रुतिगीतकीर्ति: कपोलमव्यात्सततं कपाली।
वक्रं सदा रक्षतु पंचवक्रो जिह्वां सदा रक्षतु वेदजिह्व:॥16॥
कंठं गिरीशोऽवतु नीलकण्ठ: पाणि: द्वयं पातु: पिनाकपाणि:।
दोर्मूलमव्यान्मम धर्मवाहुर्वक्ष:स्थलं दक्षमखातकोऽव्यात्॥17॥
मनोदरं पातु गिरींद्रधन्वा मध्यं ममाव्यान्मदनांतकारी।
हेरंबतातो मम पातु नाभिं पायात्कटिं धूर्जटिरीश्व रो मे॥18॥
ऊरुद्वयं पातु कुबेरमित्रो जानुद्वयं मे जगदीश्वतरोऽव्यात्।
जंघायुगंपुंगवकेतुख्यातपादौ ममाव्यत्सुरवंद्यपाद:॥19॥
महेश्वनर: पातु दिनादियामे मां मध्ययामेऽवतु वामदेव:।
त्रिलोचन: पातु तृतीययामे वृषध्वज: पातु दिनांत्ययामे॥20॥
पायान्निशादौ शशिशेखरो मां गंगाधरो रक्षतु मां निशीथे।
गौरी पति: पातु निशावसाने मृत्युंजयो रक्षतु सर्वकालम्॥21॥
अन्त:स्थितं रक्षतु शंकरो मां स्थाणु: सदापातु बहि: स्थित माम्।
तदंतरे पातु पति: पशूनां सदाशिवोरक्षतु मां समंतात्॥22॥
तिष्ठतमव्याद्भुुवनैकनाथ: पायाद्व्रेजंतं प्रथमाधिनाथ:।
वेदांतवेद्योऽवतु मां निषण्णं मामव्यय: पातु शिव: शयानम्॥23॥
मार्गेषु मां रक्षतु नीलकंठ: शैलादिदुर्गेषु पुरत्रयारि:।
अरण्यवासादिमहाप्रवासे पायान्मृगव्याध उदारशक्ति:॥24॥
कल्पांतकोटोपपटुप्रकोप-स्फुटाट्टहासोच्चलितांडकोश:।
घोरारिसेनर्णवदुर्निवारमहाभयाद्रक्षतु वीरभद्र:॥25॥
पत्त्यश्वटमातंगघटावरूथसहस्रलक्षायुतकोटिभीषणम्।
अक्षौहिणीनां शतमाततायिनां छिंद्यान्मृडोघोर कुठार धारया॥26॥
निहंतु दस्यून्प्रलयानलार्चिर्ज्वलत्रिशूलं त्रिपुरांतकस्य।
शार्दूल सिंहर्क्षवृकादिहिंस्रान्संत्रासयत्वीशधनु: पिनाक:॥27॥
दु:स्वप्नदु:शकुनदुर्गतिदौर्मनस्यर्दुर्भिक्षदुर्व्यसनदु:सहदुर्यशांसि।
उत्पाततापविषभीतिमसद्ग्रवहार्ति व्याधींश्च् नाशयतु मे जगतामधीश:॥28॥
अथ कवच:
ॐ नमो भगवते सदाशिवाय सकलतत्त्वात्मकाय सर्वमंत्रस्वरूपाय सर्वयंत्राधिष्ठिताय सर्वतंत्रस्वरूपाय सर्वत्त्वविदूराय ब्रह्मरुद्रावतारिणे नीलकंठाय पार्वतीमनोहरप्रियाय सोमसूर्याग्निलोचनाय भस्मोद्धूसलितविग्रहाय महामणिमुकुटधारणाय माणिक्यभूषणाय सृष्टिस्थितिप्रलयकालरौद्रावताराय दक्षाध्वरध्वंसकाय महाकालभेदनाय मूलाधारैकनिलयाय तत्त्वातीताय गंगाधराय सर्वदेवाधिदेवाय षडाश्रयाय वेदांतसाराय त्रिवर्गसाधनायानंतकोटिब्रह्माण्डनायकायानंतवासुकितक्षककर्कोटकङ्खिकुलिक पद्ममहापद्मेत्यष्टमहानागकुलभूषणायप्रणवस्वरूपाय चिदाकाशाय आकाशदिक्स्वरूपायग्रहनक्षत्रमालिने सकलाय कलंकरहिताय सकललोकैकर्त्रे सकललोकैकभर्त्रे सकललोकैकसंहर्त्रे सकललोकैकगुरवे सकललोकैकसाक्षिणे सकलनिगमगुह्याय सकल वेदान्तपारगाय सकललोकैकवरप्रदाय सकलकोलोकैकशंकराय शशांकशेखराय शाश्वगतनिजावासाय निराभासाय निरामयाय निर्मलाय निर्लोभाय निर्मदाय निश्चिंेताय निरहंकाराय निरंकुशाय निष्कलंकाय निर्गुणाय निष्कामाय निरुपप्लवाय निरवद्याय निरंतराय निष्कारणाय निरंतकाय निष्प्रपंचाय नि:संगाय निर्द्वंद्वाय निराधाराय नीरागाय निष्क्रोधाय निर्मलाय निष्पापाय निर्भयाय निर्विकल्पाय निर्भेदाय निष्क्रियय निस्तुलाय नि:संशयाय निरंजनाय निरुपमविभवायनित्यशुद्धबुद्ध परिपूर्णसच्चिदानंदाद्वयाय परमशांतस्वरूपाय तेजोरूपाय तेजोमयाय जय जय रुद्रमहारौद्रभद्रावतार महाभैरव कालभैरव कल्पांतभैरव कपालमालाधर खट्वांगेखड्गचर्मपाशांकुशडमरुशूलचापबाणगदाशक्तिवभिंदिपालतोमरमुसलमुद्गरपाशपरिघ भुशुण्डीशतघ्नीचक्राद्यायुधभीषणकरसहस्रमुखदंष्ट्राकरालवदनविकटाट्टहासविस्फारितब्रह्मांडमंडल नागेंद्रकुंडल नागेंद्रहार नागेन्द्रवलय नागेंद्रचर्मधरमृयुंजय त्र्यंबकपुरांतक विश्विरूप विरूपाक्ष विश्वेलश्वर वृषभवाहन विषविभूषण विश्वदतोमुख सर्वतो रक्ष रक्ष मां ज्वल ज्वल महामृत्युमपमृत्युभयं नाशयनाशयचोरभयमुत्सादयोत्सादय विषसर्पभयं शमय शमय चोरान्मारय मारय ममशमनुच्चाट्योच्चाटयत्रिशूलेनविदारय कुठारेणभिंधिभिंभधि खड्गेन छिंधि छिंधि खट्वां गेन विपोथय विपोथय मुसलेन निष्पेषय निष्पेषय वाणै: संताडय संताडय रक्षांसि भीषय भीषयशेषभूतानि निद्रावय कूष्मांडवेतालमारीच ब्रह्मराक्षसगणान्संत्रासय संत्रासय ममाभय कुरु कुरु वित्रस्तं मामाश्वा सयाश्वाासय नरकमहाभयान्मामुद्धरसंजीवय संजीवयक्षुत्तृड्भ्यां मामाप्याय-आप्याय दु:खातुरं मामानन्दयानन्दयशिवकवचेन मामाच्छादयाच्छादयमृत्युंजय त्र्यंबक सदाशिव नमस्ते नमस्ते नमस्ते।
ऋषभ उवाच:
इत्येतत्कवचं शैवं वरदं व्याह्रतं मया।
सर्वबाधाप्रशमनं रहस्यं सर्वदेहिनाम्॥29॥
य: सदा धारयेन्मर्त्य: शैवं कवचमुत्तमम्।
न तस्य जायते क्वापि भयं शंभोरनुग्रहात्॥30॥
क्षीणायुअ:प्राप्तमृत्युर्वा महारोगहतोऽपि वा।
सद्य: सुखमवाप्नोति दीर्घमायुश्चतविंदति॥31॥
सर्वदारिद्र्य शमनं सौमंगल्यविवर्धनम्।
यो धत्ते कवचं शैवं सदेवैरपि पूज्यते॥32॥
महापातकसंघातैर्मुच्यते चोपपातकै:।
देहांते मुक्तिंमाप्नोति शिववर्मानुभावत:॥33॥
त्वमपि श्रद्धया वत्स शैवं कवचमुत्तमम्।
धारयस्व मया दत्तं सद्य: श्रेयो ह्यवाप्स्यसि॥34॥
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सूत उवाच:
इत्युक्त्वाऋषभो योगी तस्मै पार्थिवसूनवे।
ददौ शंखं महारावं खड्गं चारिनिषूदनम्॥35॥
पुनश्च भस्म संमत्र्य तदंगं परितोऽस्पृशत्।
गजानां षट्सदहस्रस्य द्विगुणस्य बलं ददौ॥36॥
भस्मप्रभावात्संप्राप्तबलैश्वर्यधृतिस्मृति:।
स राजपुत्र: शुशुभे शरदर्क इव श्रिया॥37॥
तमाह प्रांजलिं भूय: स योगी नृपनंदनम्।
एष खड्गोश मया दत्तस्तपोमंत्रानुभावित:॥38॥
शितधारमिमंखड्गं यस्मै दर्शयसे स्फुटम्।
स सद्यो म्रियतेशत्रु: साक्षान्मृत्युरपि स्वयम्॥39॥
अस्य शंखस्य निर्ह्लादं ये श्रृण्वंति तवाहिता:।
ते मूर्च्छिता: पतिष्यंति न्यस्तशस्त्रा विचेतना:॥40॥
खड्गशंखाविमौ दिव्यौ परसैन्य निवाशिनौ।
आत्मसैन्यस्यपक्षाणां शौर्यतेजोविवर्धनो॥41॥
एतयोश्च प्रभावेण शैवेन कवचेन च।
द्विषट्सौहस्त्रनागानां बलेन महतापि च॥42॥
भस्मधारणसामर्थ्याच्छत्रुसैन्यं विजेष्यसि।
प्राप्य सिंहासनं पित्र्यं गोप्तासि पृथिवीमिमाम्॥43॥
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इति भद्रायुषं सम्यगनुशास्य समातृकम्।
ताभ्यां पूजित: सोऽथ योगी स्वैरगतिर्ययौ॥44॥

कात्यायनी देवी कवच
नवरात्रि का छठ वां दिन मां नव दुर्गा के कात्यायिनी स्वरुप को समर्पित माना जाता है। यदि साधक इस कवच का पाठ प्रतिदिन करने से बुराइया खुद- ब- खुद दूर होने लग जाती है साथ ही सकरात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है। अपने परिवार जनों का स्वस्थ्य ठीक रहता है और लम्बे समय से बीमार व्यक्ति को इस कवच का पाठ सच्चे मन से करने पर रोग मुक्त हो जाता है। यदि मनुष्य जीवन की सभी प्रकार के भय, डर से मुक्ति चाहता है तो वह इस कवच का पाठ करे।
कात्यायनौमुख पातु कां स्वाहास्वरूपिणी।
ललाटे विजया पातु मालिनी नित्य सुन्दरी॥
कल्याणी हृदयम् पातु जया भगमालिनी॥

कामकला काली कवच
सीधे हाथ में जल लेकर विनियोग पढ़कर जल भूमि पर छोड़ दे।
अस्य श्री त्रैलोकयमोहन रहस्य कवचस्य। त्रिपुरारि ऋषिःविराट् छन्दःभगवति कामकलाकाली देवता। फ्रेंबीजं – योगिनी शक्तिःक्लीं कीलकं डाकिनि तत्त्वंभ्गावती श्री कामकलाकाली अनुग्रह प्रसाद सिध्यर्ते जपे विनियोगः॥
कवच पाठ
ॐ ऐं श्रीं क्लीं शिरः पातु फ्रें ह्रीं छ्रीं मदनातुरा।
स्त्रीं ह्रूं क्षौं ह्रीं लं ललाटं पातु ख्फ्रें क्रौं करालिनी॥1॥
आं हौं फ्रों क्षूँ मुखं पातु क्लूं ड्रं थ्रौं चन्ण्डनायिका।
हूं त्रैं च्लूं मौः पातु दृशौ प्रीं ध्रीं क्ष्रीं जगदाम्बिका॥2॥
क्रूं ख्रूं घ्रीं च्लीं पातु कर्णौ ज्रं प्लैं रुः सौं सुरेश्वरी।
गं प्रां ध्रीं थ्रीं हनू पातु अं आं इं ईं श्मशानिनी॥3॥
जूं डुं ऐं औं भ्रुवौ पातु कं खं गं घं प्रमाथिनी।
चं छं जं झं पातु नासां टं ठं डं ढं भगाकुला॥4॥
तं थं दं धं पात्वधरमोष्ठं पं फं रतिप्रिया।
बं भं यं रं पातु दन्तान् लं वं शं सं चं कालिका॥5॥
हं क्षं क्षं हं पातु जिह्वां सं शं वं लं रताकुला।
वं यं भं वं चं चिबुकं पातु फं पं महेश्वरी॥6॥
धं दं थं तं पातु कण्ठं ढं डं ठं टं भगप्रिया।
झं जं छं चं पातु कुक्षौ घं गं खं कं महाजटा॥7॥
ह्सौः ह्स्ख्फ्रैं पातु भुजौ क्ष्मूं म्रैं मदनमालिनी।
ङां ञीं णूं रक्षताज्जत्रू नैं मौं रक्तासवोन्मदा॥8॥
ह्रां ह्रीं ह्रूं पातु कक्षौ में ह्रैं ह्रौं निधुवनप्रिया।
क्लां क्लीं क्लूं पातु हृदयं क्लैं क्लौं मुण्डावतंसिका॥9॥
श्रां श्रीं श्रूं रक्षतु करौ श्रैं श्रौं फेत्कारराविणी।
क्लां क्लीं क्लूं अङ्गुलीः पातु क्लैं क्लौं च नारवाहिनी॥10॥
च्रां च्रीं च्रूं पातु जठरं च्रैं च्रौं संहाररूपिणी।
छ्रां छ्रीं छ्रूं रक्षतान्नाभिं छ्रैं छ्रौं सिद्धकरालिनी॥11॥
स्त्रां स्त्रीं स्त्रूं रक्षतात् पार्श्वौ स्त्रैं स्त्रौं निर्वाणदायिनी।
फ्रां फ्रीं फ्रूं रक्षतात् पृष्ठं फ्रैं फ्रौं ज्ञानप्रकाशिनी॥12॥
क्षां क्षीं क्षूं रक्षतु कटिं क्षैं क्षौं नृमुण्डमालिनी।
ग्लां ग्लीं ग्लूं रक्षतादूरू ग्लैं ग्लौं विजयदायिनी॥13॥
ब्लां ब्लीं ब्लूं जानुनी पातु ब्लैं ब्लौं महिषमर्दिनी।
प्रां प्रीं प्रूं रक्षताज्जङ्घे प्रैं प्रौं मृत्युविनाशिनी॥14॥
थ्रां थ्रीं थ्रूं चरणौ पातु थ्रैं थ्रौं संसारतारिणी।
ॐ फ्रें सिद्ध्विकरालि ह्रीं छ्रीं ह्रं स्त्रीं फ्रें नमः॥15॥
सर्वसन्धिषु सर्वाङ्गं गुह्यकाली सदावतु।
ॐ फ्रें सिद्ध्विं हस्खफ्रें ह्सफ्रें ख्फ्रें करालि ख्फ्रें हस्खफ्रें ह्स्फ्रें फ्रें ॐ स्वाहा॥16॥
रक्षताद् घोरचामुण्डा तु कलेवरं वहक्षमलवरयूं।
अव्यात् सदा भद्रकाली प्राणानेकादशेन्द्रियान्॥17॥
ह्रीं श्रीं ॐ ख्फ्रें ह्स्ख्फ्रें हक्षम्लब्रयूं
न्क्ष्रीं नज्च्रीं स्त्रीं छ्रीं ख्फ्रें ठ्रीं ध्रीं नमः।
यत्रानुक्त्तस्थलं देहे यावत्तत्र च तिष्ठति॥18॥
उक्तं वाऽप्यथवानुक्तं करालदशनावतु
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं हूं स्त्रीं ध्रीं फ्रें क्षूं क्शौं
क्रौं ग्लूं ख्फ्रें प्रीं ठ्रीं थ्रीं ट्रैं ब्लौं फट् नमः स्वाहा॥19॥
सर्वमापादकेशाग्रं काली कामकलावतु॥20॥

कामाख्या कवच
श्री महादेव उवाच:
पूर्व-पीठिका:
अमायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां वा दिन-क्षये।
नवम्यां रजनी-योगे, योजयेद् भैरवी-मनुम्॥
क्षेत्रेऽस्मिन् प्रयतो भूत्वा, निर्भयः साहसं वहन्।
तस्य साक्षाद् भगवती, प्रत्यक्षं जायते ध्रुवम्॥
आत्म-संरक्षणार्थाय, मन्त्र-संसिद्धयेऽपि च।
यः पठेत् कवचं देव्यास्ततो भीतिर्न जायते॥
तस्मात् पूर्वं विधायैवं, रक्षां सावहितो नरः।
प्रजपेत् स्वेष्ट-मन्त्रस्तु, निर्भीतो मुनि-सत्तम॥
नारद उवाच:
कवचं कीदृशं देव्या, महा-भय-निवर्तकम्।
कामाख्यायास्तु तद् ब्रूहि, साम्प्रतं मे महेश्वर॥
श्री महादेव उवाच:
श्रृणुष्व परमं गुह्यं, महा-भय-निवर्तकम्।
कामाख्यायाः सुर-श्रेष्ठ, कवचं सर्व-मंगलम्॥
यस्य स्मरण-मात्रेण, योगिनी-डाकिनी-गणाः।
राक्षस्यो विघ्न-कारिण्यो।
याश्चात्म– विघ्नकारिकाः॥
क्षुत्-पिपासा तथा निद्रा, तथाऽन्ये ये विघ्नदाः।
दूरादपि पलायन्ते, कवचस्य प्रसादतः॥
निर्भयो जायते मर्त्यस्तेजस्वी भैरवोपमः।
समासक्तमनासक्तमनाश्चापि, जपहोमादिकर्मसु॥
भवेच्च मन्त्र-तन्त्राणां, निर्विघ्नेन सु-सिद्धये॥
अथ कवचम्:
ॐ प्राच्यां रक्षतु मे तारा, कामरुप-निवासिनी।
आग्नेय्यांषोडशी पातु, याम्यां धूमावती स्वयम्॥
नैऋत्यां भैरवी पातु, वारुण्यां भुवनेश्वरी।
वायव्यां सततं पातु, छिन्न-मस्ता महेश्वरी॥
कौबेर्यां पातु मे नित्यं, श्रीविद्या बगला-मुखी।
ऐशान्यां पातु मे नित्यं, महा-त्रिपुर-सुन्दरी॥
ऊर्ध्वं रक्षतु मे विद्या, मातंगी पीठ-वासिनी।
सर्वतःपातुमे नित्यं, कामाख्या-कालिका स्वयम्॥
ब्रह्म-रुपा महाविद्या, सर्वविद्यामयी-स्वयम्।
शीर्षे रक्षतु मे दुर्गा, भालं श्री भव-मोहिनी॥
त्रिपुरा भ्रू-युगे पातु, शर्वाणी पातु नासिकाम्।
चक्षुषी चण्डिका पातु, श्रोत्रे नील-सरस्वती॥
मुखं सौम्य-मुखी पातु, ग्रीवां रक्षतु पार्वती।
जिह्वां रक्षतु मे देवी, जिह्वा ललन-भीषणा॥
वाग्-देवी वदनं पातु, वक्षः पातु महेश्वरी।
बाहू महा-भुजा पातु, करांगुलीः सुरेश्वरी॥
पृष्ठतः पातु भीमास्या, कट्यां देवी दिगम्बरी।
उदरं पातु मे नित्यं, महाविद्या महोदरी॥
उग्रतारा महादेवी, जंघोरु परि-रक्षतु।
गुदं मुष्कं च मेढ्रं च, नाभिं चसुर-सुन्दरी॥
पदांगुलीः सदा पातु, भवानी त्रिदशेश्वरी।
रक्त-मांसास्थि-मज्जादीन्, पातु देवी शवासना॥
महा-भयेषु घोरेषु, महा-भय-निवारिणी।
पातु देवी महा-माया, कामाख्या पीठ-वासिनी॥
भस्माचल-गता दिव्य-सिंहासन-कृताश्रया।
पातु श्रीकालिका देवी, सर्वोत्पातेषु सर्वदा॥
रक्षा-हीनं तु यत् स्थानं, कवचेनापि वर्जितम्।
तत् सर्वं सर्वदा पातु, सर्व-रक्षण-कारिणी॥
फल-श्रुति:
इदं तु परमं गुह्यं, कवचं मुनि-सत्तम।
कामाख्यायामयोक्तं ते सर्व-रक्षा-करं परम्॥
अनेन कृत्वा रक्षां तु, निर्भयः साधको भवेत्।
न तं स्पृशेद् भयं घोरं, मन्त्र-सिद्धि-विरोधकम्॥
जायते च मनः-सिद्धिर्निर्विघ्नेन महा-मते।
इदं यो धारयेत् कण्ठे, बाही वा कवचं महत्॥
अव्याहताज्ञः स भवेत्, सर्व-विद्या-विशारदः।
सर्वत्र लभते सौख्यं, मंगलं तु दिने-दिने॥
यः पठेत् प्रयतो भूत्वा, कवचं चेदमद्भुतम्।
स देव्याः दवीं याति, सत्यं सत्यं न संशयः॥
कामाख्या कवच- 2
नारद उवाच कामाख्या कवच:
कवचं कीदृशं देव्या, महा-भय-निवर्तकम्।
कामाख्यायास्तु तद् ब्रूहि, साम्प्रतं मे महेश्वर॥
श्रीमहादेव उवाच:
श्रृणुष्व परमं गुह्यं, महा-भय-निवर्तकम्।
कामाख्यायाः सुर-श्रेष्ठ, कवचं सर्व-मंगलम्॥
यस्य स्मरण-मात्रेण, योगिनी-डाकिनी-गणाः।
राक्षस्यो विघ्न-कारिण्यो। याश्चात्म-विघ्नकारिकाः॥
क्षुत्-पिपासा तथा निद्रा, तथाऽन्ये ये च विघ्नदाः।
दूरादपि पलायन्ते, कवचस्य प्रसादतः॥
निर्भयो जायते मर्त्यस्तेजस्वी भैरवोपमः।
समासक्त-मनासक्त-मनाश्चापि, जप-होमादि-कर्मसु॥
भवेच्च मन्त्र-तन्त्राणां, निर्विघ्नेन सु-सिद्धये॥
अथ कवचम्:
ॐ प्राच्यां रक्षतु मे तारा, कामरुप-निवासिनी।
आग्नेय्यां षोडशी पातु, याम्यां धूमावती स्वयम्॥
नैऋत्यां भैरवी पातु, वारुण्यां भुवनेश्वरी।
वायव्यां सततं पातु, छिन्न-मस्ता महेश्वरी॥
कौबेर्यां पातु मे नित्यं, श्रीविद्या बगला-मुखी।
ऐशान्यां पातु मे नित्यं, महा-त्रिपुर-सुन्दरी॥
ऊर्ध्वं रक्षतु मे विद्या, मातंगी पीठ-वासिनी।
सर्वतः पातु मे नित्यं, कामाख्या-कालिका स्वयम्॥
ब्रह्म-रुपा महाविद्या, सर्वविद्यामयी-स्वयम्।
शीर्षे रक्षतु मे दुर्गा, भालं श्री भव-मोहिनी॥
त्रिपुरा भ्रू-युगे पातु, शर्वाणी पातु नासिकाम्।
चक्षुषी चण्डिका पातु, श्रोत्रे नील-सरस्वती॥
मुखं सौम्य-मुखी पातु, ग्रीवां रक्षतु पार्वती।
जिह्वां रक्षतु मे देवी, जिह्वा ललन-भीषणा॥
वाग्-देवी वदनं पातु, वक्षः पातु महेश्वरी।
बाहू महा-भुजा पातु, करांगुलीः सुरेश्वरी॥
पृष्ठतः पातु भीमास्या, कट्यां देवी दिगम्बरी।
उदरं पातु मे नित्यं, महाविद्या महोदरी॥
उग्रतारा महादेवी, जंघोरु परि-रक्षतु।
गुदं मुष्कं च मेढ्रं च, नाभिं च सुर-सुन्दरी॥
पदांगुलीः सदा पातु, भवानी त्रिदशेश्वरी।
रक्त-मांसास्थि-मज्जादीन्, पातु देवी शवासना॥
महा-भयेषु घोरेषु, महा-भय-निवारिणी।
पातु देवी महा-माया, कामाख्या पीठ-वासिनी॥
भस्माचल-गता दिव्य-सिंहासन-कृताश्रया।
पातु श्रीकालिका देवी, सर्वोत्पातेषु सर्वदा॥
रक्षा-हीनं तु यत् स्थानं, कवचेनापि वर्जितम्।
तत् सर्वं सर्वदा पातु, सर्व-रक्षण-कारिणी॥
फल-श्रुति:
इदं तु परमं गुह्यं, कवचं मुनि-सत्तम।
कामाख्याया मयोक्तं ते, सर्व-रक्षा-करं परम्॥
अनेन कृत्वा रक्षां तु, निर्भयः साधको भवेत्।
न तं स्पृशेद् भयं घोरं, मन्त्र-सिद्धि-विरोधकम्॥
जायते च मनः-सिद्धिर्निर्विघ्नेन महा-मते।
इदं यो धारयेत् कण्ठे, बाही वा कवचं महत्॥
अव्याहताज्ञः स भवेत्, सर्व-विद्या-विशारदः।
सर्वत्र लभते सौख्यं, मंगलं तु दिने-दिने॥
यः पठेत् प्रयतो भूत्वा, कवचं चेदमद्भुतम्।
स देव्याः पदवीं याति, सत्यं सत्यं न संशयः॥

कालरात्रि देवी कवच
।। कवच ।।
ॐ क्लींमें हदयं पातु पादौ श्रींकालरात्रि।
ललाटे सततं पातु दुष्टग्रह निवारिणी॥
रसनां पातु कौमारी भैरवी चक्षुणोर्मम।
कहौ पृष्ठे महेशानी कर्णो शंकर भामिनी॥
वजतानितुस्थानाभियानिचकवचेनहि।
तानिसर्वाणिमें देवी सततंपातुस्तम्भिनी॥

काली कवच
कवचं श्रोतुमिच्छामि तां च विद्यां दशाक्षरीम्।
नाथ त्वत्तो हि सर्वज्ञ भद्रकाल्याश्च साम्प्रतम्॥
नारायण उवाच:
श्रृणु नारद वक्ष्यामि महाविद्यां दशाक्षरीम्।
गोपनीयं च कवचं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम्॥
ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहेति च दशाक्षरीम्।
दुर्वासा हि ददौ राज्ञे पुष्करे सूर्यपर्वणि॥
दशलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धि: कृता पुरा।
पञ्चलक्षजपेनैव पठन् कवचमुत्तमम्॥
बभूव सिद्धकवचोऽप्ययोध्यामाजगाम स:।
कृत्स्नां हि पृथिवीं जिग्ये कवचस्य प्रसादत:॥
नारद उवाच:
श्रुता दशाक्षरी विद्या त्रिषु लोकेषु दुर्लभा।
अधुना श्रोतुमिच्छामि कवचं ब्रूहि मे प्रभो॥
अथ कवचं:
श्रृणु वक्ष्यामि विपे्रन्द्र कवचं परमाद्भुतम्।
नारायणेन यद् दत्तं कृपया शूलिने पुरा॥
त्रिपुरस्य वधे घोरे शिवस्य विजयाय च।
तदेव शूलिना दत्तं पुरा दुर्वाससे मुने॥
दुर्वाससा च यद् दत्तं सुचन्द्राय महात्मने।
अतिगुह्यतरं तत्त्वं सर्वमन्त्रौघविग्रहम्॥
ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा मे पातु मस्तकम्।
क्लीं कपालं सदा पातु ह्रीं ह्रीं ह्रीमिति लोचने॥
ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा नासिकां मे सदावतु।
क्लीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा दन्तं सदावतु॥
ह्रीं भद्रकालिके स्वाहा पातु मेऽधरयुग्मकम्।
ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा कण्ठं सदावतु॥
ह्रीं कालिकायै स्वाहा कर्णयुग्मं सदावतु।
क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा स्कन्धं पातु सदा मम॥
क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा मम वक्ष: सदावतु।
क्रीं कालिकायै स्वाहा मम नाभिं सदावतु॥
ह्रीं कालिकायै स्वाहा मम पष्ठं सदावतु।
रक्त बीजविनाशिन्यै स्वाहा हस्तौ सदावतु॥
ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा पादौ सदावतु।
ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा सर्वाङ्गं मे सदावतु॥
प्राच्यां पातु महाकाली आगेन्य्यां रक्त दन्तिका।
दक्षिणे पातु चामुण्डा नैर्ऋत्यां पातु कालिका॥
श्यामा च वारुणे पातु वायव्यां पातु चण्डिका।
उत्तरे विकटास्या च ऐशान्यां साट्टहासिनी॥
ऊध्र्व पातु लोलजिह्वा मायाद्या पात्वध: सदा।
जले स्थले चान्तरिक्षे पातु विश्वप्रसू: सदा॥
इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम्।
सर्वेषां कवचानां च सारभूतं परात्परम्॥
सप्तद्वीपेश्वरो राजा सुचन्द्रोऽस्य प्रसादत:।
कवचस्य प्रसादेन मान्धाता पृथिवीपति:॥
प्रचेता लोमशश्चैव यत: सिद्धो बभूव ह।
यतो हि योगिनां श्रेष्ठ: सौभरि: पिप्पलायन:॥
यदि स्यात् सिद्धकवच: सर्वसिद्धीश्वरो भवेत्।
महादानानि सर्वाणि तपांसि च व्रतानि च॥
निश्चितं कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥
इदं कवचमज्ञात्वा भजेत् कलीं जगत्प्रसूम्।
शतलक्षप्रप्तोऽपिन मन्त्र: सिद्धिदायक:॥

कुष्मांडा देवी कवच
हंसरै में शिर पातु कूष्माण्डे भवनाशिनीम्।
हसलकरीं नेत्रेच, हसरौश्च ललाटकम्॥
कौमारी पातु सर्वगात्रे, वाराही उत्तरे तथा,पूर्वे पातु वैष्णवी इन्द्राणी दक्षिणे मम।
दिगिव्दिक्षु सर्वत्रेव कूं बीजं सर्वदावतु॥

श्री कृष्ण ब्रह्माण्ड कवच
।। ब्रह्मोवाच ।।
राधाकान्त महाभाग! कवचं यत् प्रकाशितं।
ब्रह्माण्ड-पावनं नाम, कृपया कथय प्रभो॥1॥
मां महेशं च धर्मं च, भक्तं च भक्त-वत्सल।
त्वत्-प्रसादेन पुत्रेभ्यो, दास्यामि भक्ति-संयुतः॥2॥
ब्रह्माजी बोले– हे महाभाग! राधा-वल्लभ! प्रभो! ‘ब्रह्माण्ड-पावन’ नामक जो कवच आपने प्रकाशित किया है, उसका उपदेश कृपा-पूर्वक मुझको, महादेव जी को तथा धर्म को दीजिए। हे भक्त-वत्सल! हम तीनों आपके भक्त हैं। आपकी कृपा से मैं अपने पुत्रों को भक्ति-पूर्वक इसका उपदेश दूँगा॥1-2॥
।। श्रीकृष्ण उवाच ।।
श्रृणु वक्ष्यामि ब्रह्मेश! धर्मेदं कवचं परं।
अहं दास्यामि युष्मभ्यं, गोपनीयं सुदुर्लभम्॥1॥
यस्मै कस्मै न दातव्यं, प्राण-तुल्यं ममैव हि।
यत्-तेजो मम देहेऽस्ति, तत्-तेजः कवचेऽपि च॥2॥
श्रीकृष्ण ने कहा– हे ब्रह्मन्! महेश्वर! धर्म! तुम लोग सुनो! मैं इस उत्तम ‘कवच’ का वर्णन कर रहा हूँ। यह परम दुर्लभ और गोपनीय है। इसे जिस किसी को भी न देना, यह मेरे लिए प्राणों के समान है। जो तेज मेरे शरीर में है, वही इस कवच में भी है।
कुरु सृष्टिमिमं धृत्वा, धाता त्रि-जगतां भव।
संहर्त्ता भव हे शम्भो! मम तुल्यो भवे भव॥3॥
हे धर्म! त्वमिमं धृत्वा, भव साक्षी च कर्मणां।
तपसां फल-दाता च, यूयं भक्त मद्-वरात्॥4॥
हे ब्रह्मन्! तुम इस कवच को धारण करके सृष्टि करो और तीनों लिकों के विधाता के पद पर प्रतिष्ठित रहो। हे शम्भो! तुम भी इस कवच को ग्रहण कर, संहार का कार्य सम्पन्न करो और संसार में मेरे समान शक्ति-शाली हो जाओ। हे धर्म! तुम इस कवच को धारण कर कर्मों के साक्षी बने रहो। तुम सब लिग मेरे वर से तपस्या के फल-दाता हो जाओ।
ब्रह्माण्ड-पावनस्यास्य, कवचस्य हरिः स्वयं।
ऋषिश्छन्दश्च गायत्री, देवोऽहं जगदीश्वर॥5॥
धर्मार्थ-काम-मोक्षेषु, विनियोगः प्रकीर्तितः।
त्रि-लक्ष-वार-पठनात्, सिद्धिदं कवचं विधे॥6॥
इस ‘ब्रह्माण्ड-पावन’ कवच के ऋषि स्वयं हरि हैं, छन्द गायत्री है, देवता मैं जगदीश्वर श्रीकृष्ण हूँ तथा इसका विनियोग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हेतु है। हे विधे! ३ लाख बार ‘पाठ‘ करने पर यह ‘कवच’ सिद्ध हो जाता है।
यो भवेत् सिद्ध-कवचो, मम तुल्यो भवेत्तु सः।
तेजसा सिद्धि-योगेन, ज्ञानेन विक्रमेण च॥7॥
जो इस कवच को सिद्ध कर लेता है, वह तेज, सिद्धियों, योग, ज्ञान और बल-पराक्रम में मेरे समान हो जाता है।
।। मूल-कवच-पाठ ।।
सीधे हाथ में जल लेकर विनियोग पढ़कर जल भूमि पर छोड़ दे।
विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीब्रह्माण्ड-पावन-कवचस्य श्रीहरिः ऋषिः, गायत्री छन्दः, श्रीकृष्णो देवता, धर्म-अर्थ-काम-मोक्षेषु विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यासः
श्रीहरिः ऋषये नमः शिरसि,
गायत्री छन्दसे नमः मुखे,
श्रीकृष्णो देवतायै नमः हृदि,
धर्म-अर्थ-काम-मोक्षेषु विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
मूल कवच:
प्रणवो मे शिरः पातु, नमो रासेश्वराय च।
भालं पायान् नेत्र-युग्मं, नमो राधेश्वराय च॥1॥
कृष्णः पायात् श्रोत्र-युग्मं, हे हरे घ्राणमेव च।
जिह्विकां वह्निजाया तु, कृष्णायेति च सर्वतः॥2॥
श्रीकृष्णाय स्वाहेति च, कण्ठं पातु षडक्षरः।
ह्रीं कृष्णाय नमो वक्त्रं, क्लीं पूर्वश्च भुज-द्वयम्॥3॥
नमो गोपांगनेशाय, स्कन्धावष्टाक्षरोऽवतु।
दन्त-पंक्तिमोष्ठ-युग्मं, नमो गोपीश्वराय च॥4॥
ॐ नमो भगवते रास-मण्डलेशाय स्वाहा।
स्वयं वक्षः-स्थलं पातु, मन्त्रोऽयं षोडशाक्षरः॥5॥
ऐं कृष्णाय स्वाहेति च, कर्ण-युग्मं सदाऽवतु।
ॐ विष्णवे स्वाहेति च, कंकालं सर्वतोऽवतु॥6॥
ॐ हरये नमः इति, पृष्ठं पादं सदऽवतु।
ॐ गोवर्द्धन-धारिणे, स्वाहा सर्व-शरीरकम्॥7॥
प्राच्यां मां पातु श्रीकृष्णः, आग्नेय्यां पातु माधवः।
दक्षिणे पातु गोपीशो, नैऋत्यां नन्द-नन्दनः॥8॥
वारुण्यां पातु गोविन्दो, वायव्यां राधिकेश्वरः।
उत्तरे पातु रासेशः, ऐशान्यामच्युतः स्वयम्।
सन्ततं सर्वतः पातु, परो नारायणः स्वयं॥9॥
।। फल-श्रुति ।।
इति ते कथितं ब्रह्मन्! कवचं परमाद्भुतं।
मम जीवन-तुल्यं च, युष्मभ्यं दत्तमेव च॥

केतु कवचम
ध्यानम्
धूम्रवर्णं ध्वजाकारं द्विभुजं वरदांगदम् चित्राम्बरधरं केतुं चित्रगन्धानुलेपनम्।
वैडूर्याभरणं चैव वैडूर्य मकुटं फणिम् चित्रंकफाधिकरसं मेरुं चैवाप्रदक्षिणम्॥
केतुं करालवदनं चित्रवर्णं किरीटिनम्।
प्रणमामि सदा देवं ध्वजाकारं ग्रहेश्वरम्॥
कवचम
चित्रवर्णः शिरः पातु फालं मे धूम्रवर्णकः।
पातु नेत्रे पिङ्गलाक्षः श्रुती मे रक्तलोचनः॥
घ्राणं पातु सुवर्णाभो द्विभुजं सिंहिकासुतः।
पातु कण्ठं च मे केतुः स्कन्धौ पातु ग्रहाधिपः॥
बाहू पातु सुरश्रेष्ठः कुक्षिं पातु महोरगः।
सिंहासनः कटिं पातु मध्यं पातु महासुरः॥
ऊरू पातु महाशीर्षो जानुनी च प्रकोपनः।
पातु पादौ च मे रौद्रः सर्वाङ्गं रविमर्दकः॥
इदं च कवचं दिव्यं सर्वरोगविनाशनम्।
सर्वदुःखविनाशं च सत्यमेतन्नसंशयः॥
॥ इति पद्मपुराणे केतु कवचम् ॥

गुरु कवच
ॐ सहस्त्रारे महाचक्रे कर्पूरधवले गुरुः।
पातु मां बटुको देवो भैरवः सर्वकर्मसु॥
पूर्वस्यामसितांगो मां दिशि रक्षतु सर्वदा।
आग्नेयां च रुरुः पातु दक्षिणे चण्ड भैरवः॥
नैॠत्यां क्रोधनः पातु उन्मत्तः पातु पश्चिमे।
वायव्यां मां कपाली च नित्यं पायात् सुरेश्वरः॥
भीषणो भैरवः पातु उत्तरास्यां तु सर्वदा।
संहार भैरवः पायादीशान्यां च महेश्वरः॥
ऊर्ध्वं पातु विधाता च पाताले नन्दको विभुः।
सद्योजातस्तु मां पायात् सर्वतो देवसेवितः॥
रामदेवो वनान्ते च वने घोरस्तथावतु।
जले तत्पुरुषः पातु स्थले ईशान एव च॥
डाकिनी पुत्रकः पातु पुत्रान् में सर्वतः प्रभुः।
हाकिनी पुत्रकः पातु दारास्तु लाकिनी सुतः॥
पातु शाकिनिका पुत्रः सैन्यं वै कालभैरवः।
मालिनी पुत्रकः पातु पशूनश्वान् गंजास्तथा॥
महाकालोऽवतु क्षेत्रं श्रियं मे सर्वतो गिरा।
वाद्यम् वाद्यप्रियः पातु भैरवो नित्यसम्पदा॥

गोपालाक्षय कवच
श्री गणेशाय नमः ।
।। श्रीनारद उवाच ।।
इन्द्राद्यमरवर्गेषु ब्रह्मन्यत्परमाऽद्भुतम्।
अक्षयं कवचं नाम कथयस्व मम प्रभो॥१॥
यद्धृत्वाऽऽकर्ण्य वीरस्तु त्रैलोक्य विजयी भवेत्।
॥ ब्रह्मोवाच ॥
शृणु पुत्र मुनिश्रेष्ठ कवचं परमाद्भुतम्॥२॥
इन्द्रादिदेववृन्दैश्च नारायणमुखाच्छ्रतम्।
त्रैलोक्यविजयस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः॥३॥
ऋषिश्छन्दो देवता च सदा नारायणः प्रभुः।
अस्य श्रीत्रैलोक्यविजयाक्षयकवचस्य प्रजापतिऋर्षिः, अनुष्टुप्छन्दः, श्रीनारायणः परमात्मा देवता, धर्मार्थकाममोक्षार्थे जपे विनियोगः।
पादौ रक्षतु गोविन्दो जङ्घे पातु जगत्प्रभुः॥४॥
ऊरू द्वौ केशवः पातु कटी दामोदरस्ततः।
वदनं श्रीहरिः पातु नाडीदेशं च मेऽच्युतः॥५॥
वामपार्श्वं तथा विष्णुर्दक्षिणं च सुदर्शनः।
बाहुमूले वासुदेवो हृदयं च जनार्दनः॥६॥
कण्ठं पातु वराहश्च कृष्णश्च मुखमण्डलम्।
कर्णौ मे माधवः पातु हृषीकेशश्च नासिके॥७॥
नेत्रे नारायणः पातु ललाटं गरुडध्वजः।
कपोलं केशवः पातु चक्रपाणिः शिरस्तथा॥८॥
प्रभाते माधवः पातु मध्याह्ने मधुसूदनः।
दिनान्ते दैत्यनाशश्च रात्रौ रक्षतु चन्द्रमाः॥९॥
पूर्वस्यां पुण्डरीकाक्षो वायव्यां च जनार्दनः।
इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम्॥१०॥
तव स्नेहान्मयाऽऽख्यातं न वक्तव्यं तु कस्यचित्।
कवचं धारयेद्यस्तु साधको दक्षिणे भुजे॥११॥
देवा मनुष्या गन्धर्वा यज्ञास्तस्य न संशयः।
योषिद्वामभुजे चैव पुरुषो दक्षिणे भुजे॥१२॥
निभृयात्कवचं पुण्यं सर्वसिद्धियुतो भवेत्।
कण्ठे यो धारयेदेतत् कवचं मत्स्वरूपिणम्॥१३॥
युद्धे जयमवाप्नोति द्यूते वादे च साधकः।
सर्वथा जयमाप्नोति निश्चितं जन्मजन्मनि॥१४॥
अपुत्रो लभते पुत्रं रोगनाशस्तथा भवेत्।
सर्वतापप्रमुक्तश्च विष्णुलोकं स गच्छति॥१५॥
॥ इति ब्रह्मसंहितोक्तं श्री गोपालाक्षय कवचम् सम्पूर्णम् ॥

।। गोपाल कवच ।।
पुत्र प्राप्ति और बार-बार गर्भपात होने की स्थिति में इस स्तोत्र का उक्त स्तोत्र का पाठ नियमित करना चाहिये।
।। श्री गणेशाय नमः ।।
।। श्रीनारद उवाच ।।
इन्द्राद्यमरवर्गेषु ब्रह्मन्यत्परमाऽद्भुतम्।
अक्षयं कवचं नाम कथयस्व मम प्रभो॥1॥
यद्धृत्वाऽऽकर्ण्य वीरस्तु त्रैलोक्य विजयी भवेत्।
।। ब्रह्मोवाच ।।
श्रृणु पुत्र! मुनिश्रेष्ठ! कवचं परमाद्भुतम्॥2॥
इन्द्रादि-देव वृन्दैश्च नारायण मुखाच्छ्रतम्।
त्रैलोक्य-विजयस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः॥3॥
ऋषिश्छन्दो देवता च सदा नारायणः प्रभुः।
सीधे हाथ में जल लेकर विनियोग पढ़कर जल भूमि पर छोड़ दे।
विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीत्रैलोक्यविजयाक्षयकवचस्य प्रजापतिऋर्षिः, अनुष्टुप्छन्दः, श्रीनारायणः परमात्मा देवता, धर्मार्थकाममोक्षार्थे जपे विनियोगः।
पादौ रक्षतु गोविन्दो जङ्घे पातु जगत्प्रभुः॥4॥
ऊरू द्वौ केशवः पातु कटी दामोदरस्ततः।
वदनं श्रीहरिः पातु नाडीदेशं च मेऽच्युतः॥5॥
वाम पार्श्वं तथा विष्णुर्दक्षिणं च सुदर्शनः।
बाहुमूले वासुदेवो हृदयं च जनार्दनः॥6॥
कण्ठं पातु वराहश्च कृष्णश्च मुखमण्डलम्।
कर्णौ मे माधवः पातु हृषीकेशश्च नासिके॥7॥
नेत्रे नारायणः पातु ललाटं गरुडध्वजः।
कपोलं केशवः पातु चक्रपाणिः शिरस्तथा॥8॥
प्रभाते माधवः पातु मध्याह्ने मधुसूदनः।
दिनान्ते दैत्यनाशश्च रात्रौ रक्षतु चन्द्रमाः॥9॥
पूर्वस्यां पुण्डरीकाक्षो वायव्यां च जनार्दनः।
इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम्॥10॥
तव स्नेहान्मयाऽऽख्यातं न वक्तव्यं तु कस्यचित्।
कवचं धारयेद्यस्तु साधको दक्षिणे भुजे॥11॥
देवा मनुष्या गन्धर्वा यज्ञास्तस्य न संशयः।
योषिद्वामभुजे चैव पुरुषो दक्षिणे भुजे॥12॥
विभ्रुयात्कवचं पुण्यं सर्वसिद्धियुतो भवेत्।
कण्ठे यौ धारयेदेतत् कवचं मत्स्वरूपिणम्॥13॥
युद्धे जयमवाप्नोति द्यूते वादे च साधकः।
सर्वथा जयमाप्नोति निश्चितं जन्मजन्मनि॥14॥
अपुत्रो लभते पुत्रं रोगनाशस्तथा भवेत्।
सर्वताप प्रमुक्तश्च विष्णुलोकं स गच्छति॥15॥
।। इति ब्रह्मसंहितोक्तं श्रीगोपालाक्षयकवचं सम्पूर्णम् ।।

।। चण्डी कवच ।।
विनियोग :-
ॐ अस्य श्रीदेव्या: कवचस्य ब्रह्मा ऋषि:, अनुष्टुप् छन्द:, ख्फ्रें चामुण्डाख्या महा-लक्ष्मी: देवता, ह्रीं ह्रसौं ह्स्क्लीं ह्रीं ह्रसौं अंग-न्यस्ता देव्य: शक्तय:, ऐं ह्स्रीं ह्रक्लीं श्रीं ह्वर्युं क्ष्म्रौं स्फ्रें बीजानि, श्रीमहालक्ष्मी-प्रीतये सर्व रक्षार्थे च पाठे विनियोग:।
।। ऋष्यादि-न्यास: ।।
ब्रह्मर्षये नम: शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नम: मुखे, ख्फ्रें चामुण्डाख्या महा-लक्ष्मी: देवतायै नम: हृदि, ह्रीं ह्रसौं ह्स्क्लीं ह्रीं ह्रसौं अंग-न्यस्ता देव्य: शक्तिभ्यो नम: नाभौ, ऐं ह्स्रीं ह्रक्लीं श्रीं ह्वर्युं क्ष्म्रौं स्फ्रें बीजेभ्यो नम: लिंगे, श्रीमहालक्ष्मी-प्रीतये सर्व रक्षार्थे च पाठे विनियोगाय नम: सर्वांगे।
ध्यान:
ॐ रक्ताम्बरा रक्तवर्णा, रक्त-सर्वांग-भूषणा।
रक्तायुधा रक्त-नेत्रा, रक्त-केशाऽति-भीषणा॥1॥
रक्त-तीक्ष्ण-नखा रक्त-रसना रक्त-दन्तिका।
पतिं नारीवानुरक्ता, देवी भक्तं भजेज्जनम्॥2॥
वसुधेव विशाला सा, सुमेरू-युगल-स्तनी।
दीर्घौ लम्बावति-स्थूलौ, तावतीव मनोहरौ॥3॥
कर्कशावति-कान्तौ तौ, सर्वानन्द-पयोनिधी।
भक्तान् सम्पाययेद् देवी, सर्वकामदुघौ स्तनौ ॥4॥
खड्गं पात्रं च मुसलं, लांगलं च बिभर्ति सा।
आख्याता रक्त-चामुण्डा, देवी योगेश्वरीति च॥5॥
अनया व्याप्तमखिलं, जगत् स्थावर-जंगमम्।
इमां य: पूजयेद् भक्तो, स व्याप्नोति चराचरम्॥6॥
।। मार्कण्डेय उवाच: ।।
ॐ यद् गुह्यं परमं लोके, सर्व-रक्षा-करं नृणाम्।
यन्न कस्यचिदाख्यातं, तन्मे ब्रूहि पितामह॥1॥
।। ब्रह्मोवाच: ।।
ॐ अस्ति गुह्य-तमं विप्र सर्व-भूतोपकारकम्।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं, तच्छृणुष्व महामुने॥2॥
प्रथमं शैल-पुत्रीति, द्वितीयं ब्रह्म-चारिणी।
तृतीयं चण्ड-घण्टेति, कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥3॥
पंचमं स्कन्द-मातेति, षष्ठं कात्यायनी तथा।
सप्तमं काल-रात्रीति, महागौरीति चाष्टमम्॥4॥
नवमं सिद्धि-दात्रीति, नवदुर्गा: प्रकीर्त्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि, ब्रह्मणैव महात्मना॥5॥
अग्निना दह्य-मानास्तु, शत्रु-मध्य-गता रणे।
विषमे दुर्गमे वाऽपि, भयार्ता: शरणं गता॥6॥
न तेषां जायते किंचिदशुभं रण-संकटे।
आपदं न च पश्यन्ति, शोक-दु:ख-भयं नहि॥7॥
यैस्तु भक्त्या स्मृता नित्यं, तेषां वृद्धि: प्रजायते।
प्रेत संस्था तु चामुण्डा, वाराही महिषासना॥8॥
ऐन्द्री गज-समारूढ़ा, वैष्णवी गरूड़ासना।
नारसिंही महा-वीर्या, शिव-दूती महाबला॥9॥
माहेश्वरी वृषारूढ़ा, कौमारी शिखि-वाहना।
ब्राह्मी हंस-समारूढ़ा, सर्वाभरण-भूषिता॥10॥
लक्ष्मी: पद्मासना देवी, पद्म-हस्ता हरिप्रिया।
श्वेत-रूप-धरा देवी, ईश्वरी वृष वाहना॥11॥
इत्येता मातर: सर्वा:, सर्व-योग-समन्विता।
नानाभरण-षोभाढया, नाना-रत्नोप-शोभिता:॥12॥
श्रेष्ठैष्च मौक्तिकै: सर्वा, दिव्य-हार-प्रलम्बिभि:।
इन्द्र-नीलैर्महा-नीलै, पद्म-रागै: सुशोभने:॥13॥
दृष्यन्ते रथमारूढा, देव्य: क्रोध-समाकुला:।
शंखं चक्रं गदां शक्तिं, हलं च मूषलायुधम्॥14॥
खेटकं तोमरं चैव, परशुं पाशमेव च।
कुन्तायुधं च खड्गं च, शार्गांयुधमनुत्तमम्॥15॥
दैत्यानां देह नाशाय, भक्तानामभयाय च।
धारयन्त्यायुधानीत्थं, देवानां च हिताय वै॥16॥
नमस्तेऽस्तु महारौद्रे! महाघोर पराक्रमे।
महाबले! महोत्साहे! महाभय विनाशिनि॥17॥
त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये! शत्रूणां भयविर्द्धनि।
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री, आग्नेय्यामग्नि देवता॥18॥
दक्षिणे चैव वाराही, नैऋत्यां खड्गधारिणी।
प्रतीच्यां वारूणी रक्षेद्, वायव्यां वायुदेवता॥19॥
उदीच्यां दिशि कौबेरी, ऐशान्यां शूल-धारिणी।
ऊर्ध्वं ब्राह्मी च मां रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा॥20॥
एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शव-वाहना।
जया मामग्रत: पातु, विजया पातु पृष्ठत:॥21॥
अजिता वाम पार्श्वे तु, दक्षिणे चापराजिता।
शिखां मे द्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥22॥
मालाधरी ललाटे च, भ्रुवोर्मध्ये यशस्विनी।
नेत्रायोश्चित्र-नेत्रा च, यमघण्टा तु पार्श्वके॥23॥
शंखिनी चक्षुषोर्मध्ये, श्रोत्रयोर्द्वार-वासिनी।
कपोलौ कालिका रक्षेत्, कर्ण-मूले च शंकरी॥24॥
नासिकायां सुगन्धा च, उत्तरौष्ठे च चर्चिका।
अधरे चामृत-कला, जिह्वायां च सरस्वती॥25॥
दन्तान् रक्षतु कौमारी, कण्ठ-मध्ये तु चण्डिका।
घण्टिकां चित्र-घण्टा च, महामाया च तालुके॥26॥
कामाख्यां चिबुकं रक्षेद्, वाचं मे सर्व-मंगला।
ग्रीवायां भद्रकाली च, पृष्ठ-वंशे धनुर्द्धरी॥27॥
नील-ग्रीवा बहि:-कण्ठे, नलिकां नल-कूबरी।
स्कन्धयो: खडि्गनी रक्षेद्, बाहू मे वज्र-धारिणी॥28॥
हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदिम्बका चांगुलीषु च।
नखान् सुरेश्वरी रक्षेत्, कुक्षौ रक्षेन्नरेश्वरी॥29॥
स्तनौ रक्षेन्महादेवी, मन:-शोक-विनाशिनी।
हृदये ललिता देवी, उदरे शूल-धारिणी॥30॥
नाभौ च कामिनी रक्षेद्, गुह्यं गुह्येश्वरी तथा।
मेढ्रं रक्षतु दुर्गन्धा, पायुं मे गुह्य-वासिनी॥31॥
कट्यां भगवती रक्षेदूरू मे घन-वासिनी।
जंगे महाबला रक्षेज्जानू माधव नायिका॥32॥
गुल्फयोर्नारसिंही च, पाद-पृष्ठे च कौशिकी।
पादांगुली: श्रीधरी च, तलं पाताल-वासिनी॥33॥
नखान् दंष्ट्रा कराली च, केशांश्वोर्ध्व-केशिनी।
रोम-कूपानि कौमारी, त्वचं योगेश्वरी तथा॥34॥
रक्तं मांसं वसां मज्जामस्थि मेदश्च पार्वती।
अन्त्राणि काल-रात्रि च, पितं च मुकुटेश्वरी॥35॥
पद्मावती पद्म-कोषे, कक्षे चूडा-मणिस्तथा।
ज्वाला-मुखी नख-ज्वालामभेद्या सर्व-सन्धिषु॥36॥
शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा।
अहंकारं मनो बुद्धिं, रक्षेन्मे धर्म-धारिणी॥37॥
प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्।
वज्र-हस्ता तु मे रक्षेत्, प्राणान् कल्याण-शोभना॥38॥
रसे रूपे च गन्धे च, शब्दे स्पर्शे च योगिनी।
सत्वं रजस्तमश्चैव, रक्षेन्नारायणी सदा॥39॥
आयू रक्षतु वाराही, धर्मं रक्षन्तु मातर:।
यश: कीर्तिं च लक्ष्मीं च, सदा रक्षतु वैष्णवी॥40॥
गोत्रमिन्द्राणी मे रक्षेत्, पशून् रक्षेच्च चण्डिका।
पुत्रान् रक्षेन्महा-लक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥41॥
धनं धनेश्वरी रक्षेत्, कौमारी कन्यकां तथा।
पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमंकरी तथा॥42॥
राजद्वारे महा-लक्ष्मी, विजया सर्वत: स्थिता।
रक्षेन्मे सर्व-गात्राणि, दुर्गा दुर्गाप-हारिणी॥43॥
रक्षा-हीनं तु यत् स्थानं, वर्जितं कवचेन च।
सर्वं रक्षतु मे देवी, जयन्ती पाप-नाशिनी॥44॥
।। फल-श्रुति: ।।
सर्वरक्षाकरं पुण्यं, कवचं सर्वदा जपेत्।
इदं रहस्यं विप्रर्षे! भक्त्या तव मयोदितम्॥45॥
देव्यास्तु कवचेनैवमरक्षित-तनु: सुधी:।
पदमेकं न गच्छेत् तु, यदीच्छेच्छुभमात्मन:॥46॥
कवचेनावृतो नित्यं, यत्र यत्रैव गच्छति।
तत्र तत्रार्थ-लाभ: स्याद्, विजय: सार्व-कालिक:॥47॥
यं यं चिन्तयते कामं, तं तं प्राप्नोति निश्चितम्।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्नोत्यविकल: पुमान्॥48॥
निर्भयो जायते मर्त्य:, संग्रामेष्वपराजित:।
त्रैलोक्ये च भवेत् पूज्य:, कवचेनावृत: पुमान्॥49॥
इदं तु देव्या: कवचं, देवानामपि दुर्लभम्।
य: पठेत् प्रयतो नित्यं, त्रि-सन्ध्यं श्रद्धयान्वित:॥50॥
देवी वश्या भवेत् तस्य, त्रैलोक्ये चापराजित:।
जीवेद् वर्ष-शतं साग्रमप-मृत्यु-विवर्जित:॥51॥
नश्यन्ति व्याधय: सर्वे, लूता-विस्फोटकादय:।
स्थावरं जंगमं वापि, कृत्रिमं वापि यद् विषम्॥52॥
अभिचाराणि सर्वाणि, मन्त्र-यन्त्राणि भू-तले।
भूचरा: खेचराश्चैव, कुलजाश्चोपदेशजा:॥53॥
सहजा: कुलिका नागा, डाकिनी शाकिनी तथा।
अन्तरीक्ष-चरा घोरा, डाकिन्यश्च महा-रवा:॥54॥
ग्रह-भूत-पिशाचाश्च, यक्ष-गन्धर्व-राक्षसा:।
ब्रह्म-राक्षस-वेताला:, कूष्माण्डा भैरवादय:॥55॥
नष्यन्ति दर्शनात् तस्य, कवचेनावृता हि य:।
मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजो-वृद्धि: परा भवेत्॥56॥
यशो-वृद्धिर्भवेद् पुंसां, कीर्ति-वृद्धिश्च जायते।
तस्माज्जपेत् सदा भक्तया, कवचं कामदं मुने॥57॥
जपेत् सप्तशतीं चण्डीं, कृत्वा तु कवचं पुर:।
निर्विघ्नेन भवेत् सिद्धिश्चण्डी-जप-समुद्भवा॥58॥
यावद् भू-मण्डलं धत्ते! स-शैल-वन-काननम्।
तावत् तिष्ठति मेदिन्यां, जप-कर्तुर्हि सन्तति:॥59॥
देहान्ते परमं स्थानं, यत् सुरैरपि दुर्लभम्।
सम्प्राप्नोति मनुष्योऽसौ, महा-माया-प्रसादत:॥60॥
तत्र गच्छति भक्तोऽसौ, पुनरागमनं न हि।
लभते परमं स्थानं, शिवेन सह मोदते ॐ,ॐ,ॐ॥61॥

चंद्र कवच
अस्य श्री चंद्र कवच स्तॊत्र महा मंत्रस्य। गौतम ऋषि:।
अनुष्टुप छंद:। श्री चंद्रॊ दॆवता। चंद्र: प्रीत्यर्थॆ जपॆ विनियॊग:॥
ध्यानम्
समं चतुर्भुजं वंदॆ कॆयूर मकुटॊज्वलम्।
वासुदॆवस्य नयनं शंकरस्य च भूषणम्॥
ऎवं ध्यात्वा जपॆन्नित्यं शशिन: कवचं शुभम्॥
अथ चंद्र कवचं
शशि: पातु शिरॊ दॆशं फालं पातु कलानिधि।
चक्षुषि: चंद्रमा: पातु श्रुती पातु निशापति:॥
प्राणं कृपाकर: पातु मुखं कुमुदबांधव:।
पातु कंठं च मॆ सॊम: स्कंधॆ जैवातृकस्तथा॥
करौ सुधाकर: पातु वक्ष: पातु निशाकर:।
हृदयं पातु मॆ चंद्रॊ नाभिं शंकरभूषण:॥
मध्यं पातु सुरश्रॆष्ट: कटिं पातु सुधाकर:।
ऊरू तारापति: पातु मृगांकॊ जानुनी सदा॥
अभ्दिज: पातु मॆ जंघॆ पातु पादौ विधु: सदा।
सर्वाण्यन्यानि चांगानि पातु चंद्रॊखिलं वपु:॥
फलश्रुतिः
ऎतद्धिकवचं दिव्यं भुक्ति मुक्ति प्रदायकम्।
य: पठॆत च्छृणुयाद्वापि सर्वत्र विजयी भवॆत।
॥ इति चंद्र कवचम् संपूर्णम् ॥

छिन्नमस्ता कवच
हुं बीजात्मका देवी मुण्डकर्तृधरापरा।
हृदय पातु सा देवी वर्णिनी डाकिनीयुता॥
श्रीं ह्रीं हुं ऐं चैव देवी पुर्व्वास्यां पातु सर्वदा।
सर्व्वांगं मे सदा पातु छिन्नमस्ता महाबला॥
वज्रवैरोचनीये हुं फट् बीजसमन्विता।
उत्तरस्यां तथाग्नौ च वारुणे नैऋर्तेऽवतु॥
इन्द्राक्षी भैरवी चैवासितांगी च संहारिणी।
सर्व्वदा पातु मां देवी चान्यान्यासु हि दिक्षु वै॥
इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेच्छिन्नमस्तकाम्।
न तस्य फलसिद्धिः स्यात्कल्पकोटिशतैरपि॥
।। इति छिन्नमस्ता कवच सम्पूर्णं ।।

त्रिपुर भैरवी कवच
।। श्रीपार्वत्युवाच ।।
देव-देव महा-देव, सर्व-शास्त्र-विशारद! कृपां कुरु जगन्नाथ! धर्मज्ञोऽसि महा-मते।
भैरवी या पुरा प्रोक्ता, विद्या त्रिपुर-पूर्विका। तस्यास्तु कवचं दिव्यं, मह्यं कफय तत्त्वतः।
तस्यास्तु वचनं श्रुत्वा, जगाद् जगदीश्वरः। अद्भुतं कवचं देव्या, भैरव्या दिव्य-रुपि वै।
।। ईश्वर उवाच ।।
कथयामि महा-विद्या-कवचं सर्व-दुर्लभम्। श्रृणुष्व त्वं च विधिना, श्रुत्वा गोप्यं तवापि तत्।
यस्याः प्रसादात् सकलं, बिभर्मि भुवन-त्रयम्। यस्याः सर्वं समुत्पन्नं, यस्यामद्यादि तिष्ठति।
माता-पिता जगद्-धन्या, जगद्-ब्रह्म-स्वरुपिणी। सिद्धिदात्री च सिद्धास्या, ह्यसिद्धा दुष्टजन्तुषु।
सर्व-भूत-प्रियङ्करी, सर्व-भूत-स्वरुपिणी। ककारी पातु मां देवी, कामिनी काम-दायिनी।
एकारी पातु मां देवी, मूलाधार-स्वरुपिणी। ईकारी पातु मां देवी, भूरि-सर्व-सुख-प्रदा।
लकारी पातु मां देवी, इन्द्राणी-वर-वल्लभा। ह्रीं-कारी पातु मां देवी, सर्वदा शम्भु-सु्न्दरी।
एतैर्वर्णैर्महा-माया, शाम्भवी पातु मस्तकम्। ककारे पातु मां देवी, शर्वाणी हर-गेहिनी।
मकारे पातु मां देवी, सर्व-पाप-प्रणाशिनी। ककारे पातु मां देवी, काम-रुप-धरा सदा।
ककारे पातु मां देवी, शम्बरारि-प्रिया सदा। पकारे पातु मां देवी, धरा-धरणि-रुप-धृक्।
ह्रीं-कारी पातु मां देवी, अकारार्द्ध-शरीरिणी। एतैर्वर्णैर्महा-माया, काम-राहु-प्रियाऽवतु।
मकारः पातु मां देवी! सावित्री सर्व-दायिनी। ककारः पातु सर्वत्र, कलाम्बर-स्वरुपिणी।
लकारः पातु मां देवी, लक्ष्मीः सर्व-सुलक्षणा। ह्रीं पातु मां तु सर्वत्र, देवी त्रि-भुवनेश्वरी।
एतैर्वर्णैर्महा-माया, पातु शक्ति-स्वरुपिणी। वाग्-भवं मस्तकं पातु, वदनं काम-राजिका।
शक्ति-स्वरुपिणी पातु, हृदयं यन्त्र-सिद्धिदा। सुन्दरी सर्वदा पातु, सुन्दरी परि-रक्षतु।
रक्त-वर्णा सदा पातु, सुन्दरी सर्व-दायिनी। नानालङ्कार-संयुक्ता, सुन्दरी पातु सर्वदा।
सर्वाङ्ग-सुन्दरी पातु, सर्वत्र शिव-दायिनी। जगदाह्लाद-जननी, शम्भु-रुपा च मां सदा।
सर्व-मन्त्र-मयी पातु, सर्व-सौभाग्य-दायिनी। सर्व-लक्ष्मी-मयी देवी, परमानन्द-दायिनी।
पातु मां सर्वदा देवी, नाना-शङ्ख-निधिः शिवा। पातु पद्म-निधिर्देवी, सर्वदा शिव-दायिनी।
दक्षिणामूर्तिर्मां पातु, ऋषिः सर्वत्र मस्तके। पंक्तिशऽछन्दः-स्वरुपा तु, मुखे पातु सुरेश्वरी।
गन्धाष्टकात्मिका पातु, हृदयं शाङ्करी सदा। सर्व-सम्मोहिनी पातु, पातु संक्षोभिणी सदा।
सर्व-सिद्धि-प्रदा पातु, सर्वाकर्षण-कारिणी। क्षोभिणी सर्वदा पातु, वशिनी सर्वदाऽवतु।
आकर्षणी सदा पातु, सम्मोहिनी सर्वदाऽवतु। रतिर्देवी सदा पातु, भगाङ्गा सर्वदाऽवतु।
माहेश्वरी सदा पातु, कौमारी सदाऽवतु। सर्वाह्लादन-करी मां, पातु सर्व-वशङ्करी।
क्षेमङ्करी सदा पातु, सर्वाङ्ग-सुन्दरी तथा। सर्वाङ्ग-युवतिः सर्वं, सर्व-सौभाग्य-दायिनी।
वाग्-देवी सर्वदा पातु, वाणिनी सर्वदाऽवतु। वशिनी सर्वदा पातु, महा-सिद्धि-प्रदा सदा।
सर्व-विद्राविणी पातु, गण-नाथः सदाऽवतु। दुर्गा देवी सदा पातु, वटुकः सर्वदाऽवतु।
क्षेत्र-पालः सदा पातु, पातु चावीर-शान्तिका। अनन्तः सर्वदा पातु, वराहः सर्वदाऽवतु।
पृथिवी सर्वदा पातु, स्वर्ण-सिंहासनं तथा। रक्तामृतं च सततं, पातु मां सर्व-कालतः।
सुरार्णवः सदा पातु, कल्प-वृक्षः सदाऽवतु। श्वेतच्छत्रं सदा पातु, रक्त-दीपः सदाऽवतु।
नन्दनोद्यानं सततं, पातु मां सर्व-सिद्धये। दिक्-पालाः सर्वदा पान्तु, द्वन्द्वौघाः सकलास्तथा।
वाहनानि सदा पान्तु, अस्त्राणि पान्तु सर्वदा। शस्त्राणि सर्वदा पान्तु, योगिन्यः पान्तु सर्वदा।
सिद्धा सदा देवी, सर्व-सिद्धि-प्रदाऽवतु। सर्वाङ्ग-सुन्दरी देवी, सर्वदा पातु मां तथा।
आनन्द-रुपिणी देवी, चित्-स्वरुपां चिदात्मिका। सर्वदा सुन्दरी पातु, सुन्दरी भव-सुन्दरी।
पृथग् देवालये घोरे, सङ्कटे दुर्गमे गिरौ। अरण्ये प्रान्तरे वाऽपि, पातु मां सुन्दरी सदा।
।। फल-श्रुति ।।
त्रिपुर भैरवी कवच इदं कवचमित्युक्तो, मन्त्रोद्धारश्च पार्वति! य पठेत् प्रयतो भूत्वा, त्रि-सन्ध्यं नियतः शुचिः।
तस्य सर्वार्थ-सिद्धिः स्याद्, यद्यन्मनसि वर्तते। गोरोचना-कुंकुमेन, रक्त-चन्दनेन वा।
स्वयम्भू-कुसुमैः शुक्लैर्भूमि-पुत्रे शनौ सुरै। श्मशाने प्रान्तरे वाऽपि, शून्यागारे शिवालये।
स्व-शक्त्या गुरुणा मन्त्रं, पूजयित्वा कुमारिकाः। तन्मनुं पूजयित्वा च, गुरु-पंक्तिं तथैव च।
देव्यै बलिं निवेद्याथ, नर-मार्जार-शूकरैः। नकुलैर्महिषैर्मेषैः, पूजयित्वा विधानतः।
धृत्वा सुवर्ण-मध्यस्थं, कण्ठे वा दक्षिणे भुजे। सु-तिथौ शुभ-नक्षत्रे, सूर्यस्योदयने तथा। धारयित्वा च कवचं, सर्व-सिद्धिं लभेन्नरः।
कवचस्य च माहात्म्यं, नाहं वर्ष-शतैरपि। शक्नोमि तु महेशानि! वक्तुं तस्य फलं तु यत्।
न दुर्भिक्ष-फलं तत्र, न चापि पीडनं तथा। सर्व-विघ्न-प्रशमनं, सर्व-व्याधि-विनाशनम्।
सर्व-रक्षा-करं जन्तोः, चतुर्वर्ग-फल-प्रदम्, मन्त्रं प्राप्य विधानेन, पूजयेत् सततः सुधीः।
तत्रापि दुर्लभं मन्ये, कवचं देव-रुपिणम्। गुरोः प्रसादमासाद्य, विद्यां प्राप्य सुगोपिताम्। तत्रापि कवचं दिव्यं, दुर्लभं भुवन-त्रयेऽपि।
श्लोकं वास्तवमेकं वा, यः पठेत् प्रयतः शुचिः। तस्य सर्वार्थ-सिद्धिः, स्याच्छङ्करेण प्रभाषितम्।
गुरुर्देवो हरः साक्षात्, पत्नी तस्य च पार्वती। अभेदेन यजेद् यस्तु, तस्य सिद्धिरदूरतः।
।। इति श्री रुद्र-यामले भैरव-भैरवी-सम्वादे-श्रीत्रिपुर-भैरवी-कवचं सम्पूर्णम् ।।

