
॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ श्री कमलापति नम: ॥
॥ श्री जानकीवल्लभो विजयते ॥
॥ श्री गुरूदेवाय नमः ॥

।मुख पृष्ठ।।कैसे करें आरती।



कैसे करें आरती..?
घर में कैसा और कौनसा दीपक, बाती जलाएं?
क्या है नियम ? शास्त्र प्रमाण सहित पढ़िए
प्रत्येक देवी-देवता की पूजन के पश्चात हम उनकी आरती करते हैं। आरती को ‘आरार्तिक’ और ‘नीरांजन’ भी कहते हैं। पूजन में जो हमसे गलती हो जाती है आरती करने से उसकी पूर्ति हो जाती है।
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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-
पुराण में कहा है –
मंत्रहीनं क्रियाहीनं यत;पूजनं हरे:। सर्वे सम्पूर्णतामेति कृते नीरांजने शिवे॥
अर्थात- पूजन मंत्रहीन और क्रियाहीन होने पर भी (आरती) नीरांजन कर लेने से सारी पूर्णता आ जाती है।
आरती ढोल, नगाड़े, शंख, घड़ियाल आदि महावाद्यों के तथा जय-जयकार के शब्द के साथ शुद्ध पात्र में घी या कपूर से अनेक बत्तियां जलाकर आरती करनी चाहिए।
ततश्च मूलमन्त्रेण दत्वा पुष्पांजलित्रयम्।
महानीराजनं कुर्यान्महावाधजयस्वनै: ॥
प्रज्वालयेत् तदार्थ च कर्पूरेण घृतेन वा।
आरार्तिकं शुभे पात्रे विष्मा नेकवार्तिकम् ॥
एक, पांच, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है।
जब भी आप आरती करें तो पहले भगवान के सामनें ॐ बनाने का प्रयास करें (यानी ॐ में घुमाए)।
आरती को कितनी बार घुमाना चाहिए ?
आदौ पाद चतुष्तले च विष्णौः
द्वौ : नाभि देशे मुखबिम्ब एकैम् ।
सर्वेषु चांगेषु च सप्तवाराः
नारार्तिकं भक्त जनस्तु कुर्यात्
सबसे पहले भगवान के श्री चरणों की चार बार
नाभि की दो बार
मुख की एक बार
और फिर भगवान के समस्त श्री अंगों में यानी सिर से चरणों तक सात बार आरती घुमाएं।
इसका कारण है
(4+2+1+7 = 14) इस तरह से आरती करने में चौदहों भवन जो भगवान में समाए हैं उन्ह तक आपका प्रणाम पहुंचता है।
(आरती हमेशा श्री चरणों से ही प्रारम्भ करनी चाहिए)
कितने दीपों से आरती करें ?
शास्त्रों में कहा है-
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वर्तिकाः सप्त वा पंच कृत्वा वा दीप वर्तिकाम्। कुर्यात् सप्त प्रदीपेन शंख घण्टादिवाद्यकैः ॥
यानी आरती को पंचमुखी ज्योति या सप्तमुखी ज्योति से करना ही सर्वोतम है, जिसमें साथ साथ शंख और घन्टी अवश्य चले।
दीपक को कैसे और कहाँ रखें ?
कालिका पुराण में आता है-
सर्वसहा वसुमती सहते न त्विदं द्वयम्। अकार्यपादघातं च दीपतापं तथैव च ॥
दीपक को धरती पर रखने से धरती पर ताप बड़ता है, इसलिए कभी दीपक को घरती पर न रखें।
कालिका पुराण में ही कहा है-
“न चैव स्थापेयदीपं
साक्षातभूमौ कदाचन”
(दीपक को आसन या थाली में ही रखें)
दीपक को स्थापित कर, उसका पूजन कर और उसको प्रज्ज्वलित करने (यानी जलाने) के बाद हाथ को प्रक्षालित (जल से धोना या हाथों पर छीटा देना) अवश्य किया जाए, ऐसा वारह पुराण में आता है-
दीपं स्पृष्ट्वा तु यो देवी मम कर्माणि कारयेत्। तस्यापराधाद्वैभूमे पापं प्राप्नोति मानवः ॥
(ऐसा न करने से पाप का भागीदार होता है)
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घी का दीपक जलाएं या तेल का ?
घृतेन दीपो दातव्य: तिल तैलेन वा पुनः
(शास्त्रों में या तो शुद्ध घी का या तिल के तेल का दीपक जलाने का प्रमाण है, पर सरसों, नारियल आदि का कहीं नहीं )
इसी के साथ ध्यान रखिए –
“घृत दीपो दक्षिणेस्यात तैलदीपस्तु वामत:”
घी का दोपक हमेशा भगवान के दक्षिण तरह यानी (right side) और तिल के तेल का दीपक वाम भाग यानी (left side) रखा जाता है।
दीपक का मुख किस और हो ?
आहानिक सूत्रावली में आता है-
आयुर्दः प्रांगमुखो दीपो धनदः स्यादु उदंग मुखः। प्रत्यंगमुखो दुखदोऽसौ हानिदो दक्षिणामुखः ॥
(दीपक का मुख पूर्व दिशा में होगा तो वह आयु बढाने वाला होगा, उत्तर की तरफ वाला धन-धान्य देने वाला होता है, पश्चिम की तरफ दुख और दक्षिण की तरफ हानि देने वाला होता है)
दीपक कि कौन सी बाती ?
घी के दीपक में हमेशा कपास (रुई) की बाती और तिल के तेल में लाल मौली की बाती लगाई जाए।
इसके बारे में शास्त्र कहता है-
दीप घृतं दक्षे तैलयुक्तं च वामतः। दक्षिणेच सितावर्ति वामतो रक्तः वर्तिकाम् ॥
परन्तु घी को तेल के साथ मिलाकर कभी भी दीप में न डालें।
दीपक की लोह कैसी हो ?
(कालिका पुराण से)
लभ्यते यस्य तापस्तु दीपस्य चतुरगुंलात्। न स दीप इति ख्यातो ह्येघव हिन्स्तु स श्रुतः ॥
(अगर दीपक की लोह चार उंगल से ऊपर का ताप दे रही है तो वह दीपक नहीं अग्नि है।
दीपक की लोह 4 अंगुल से कम हो दीपक में से चड़चड़ की आवाज न आए और न ही दीपक में से धुंआ उठे, इस प्रकार की लोह सर्वश्रेष्ठ है)
अब कुछ नियम सुनें
- आरती कभी भी अखण्ड दीप या उस दीप से न करें जो आपने पूजा के लिए जलाया था।
- आरती कभी भी बैठे-बैठे न करें।
- आरती हमेशा दायने हाथ से करें।
- कोई आरती कर रहा हो तो उस समय उसके ऊपर से ही हाथ घुमाना नही चाहिए, यह काम आरती खत्म होने के बाद करें
- आरती के बीच में बोलने, चींखने, छिंखने आदि से आरती खंडित होती है,
- दिए कि वयवस्था इस प्रकार करें कि वह पूरी आरती में चलें
- आरती कभी भी उल्टी न घुमाएं, आरती को हमेशा,
Clockwise (यानी दक्षिणावर्त, जैसे घड़ी चलती है) में घुमाएं।

