श्री दुर्गा सप्तशती- देवी अपराध क्षमापना स्त्रोतम

श्री दुर्गा सप्तशती - देवी अपराध क्षमापना स्त्रोतम

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श्री दुर्गा सप्तशती - देवी अपराध क्षमापना स्त्रोतम

देवी अपराध क्षमापना स्त्रोतम

न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो
न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम्॥१॥

विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया
विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत्।
तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति॥२॥

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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-

पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः
परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः।
मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति॥३॥

माँ! मैं न मन्त्र जानता हूँ, न यन्त्र; अहो! मुझे स्तुति का भी ज्ञान नहीं है। न आवाहन का पता है, न ध्यान का। स्तोत्र और कथा की भी जानकारी नहीं है। न तो तुम्हारी मुद्राएँ जानता हूँ और न मुझे व्याकुल होकर विलाप करना ही आता है; परंतु एक बात जानता हूँ, केवल तुम्हारा अनुसरण- तुम्हारे पीछे चलना। जो कि सब क्लेशों को- समस्त दुःख- विपत्तियों को हर लेने वाला है॥१॥

सबका उद्धार करने वाली कल्याणमयी माता! मैं पूजा की विधि नहीं जानता, मेरे पास धन का भी अभाव है, मैं स्वभाव से भी आलसी हूँ तथा मुझसे ठीक- ठीक पूजा का सम्पादन हो भी नहीं सकता; इन सब कारणों से तुम्हारे चरणों की सेवा में जो त्रुटि हो गयी है, उसे क्षमा करना; क्योंकि कुपुत्र का होना सम्भव है, किंतु कहीं भी कुमाता नहीं होती॥२॥

माँ! इस पृथ्वी पर तुम्हारे सीधे-सादे पुत्र तो बहुत-से हैं, किंतु उन सब में मैं ही अत्यन्त चपल तुम्हारा बालक हूँ; मेरे जैसा चंचल कोई विरला ही होगा। शिवे! मेरा जो यह त्याग हुआ है, यह तुम्हारे लिये कदापि उचित नहीं है; क्योंकि संसार में कुपुत्र का होना सम्भव है, किंतु कहीं भी कुमाता नहीं होती॥३॥

जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया।
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति॥४॥

परित्यक्ता देवा विविधविधसेवाकुलतया
मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि।
इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता
निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम्॥५॥

श्‍वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा
निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः।
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं
जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ॥६॥

जगदम्ब! माता! मैंने तुम्हारे चरणों की सेवा कभी नहीं की, देवी! तुम्हें अधिक धन भी समर्पित नहीं किया; तथापि मुझ जैसे अधम पर जो तुम अनुपम स्नेह करती हो, इसका कारण यही है कि संसार में कुपुत्र पैदा हो सकता है, किंतु कहीं भी कुमाता नहीं होती॥४॥

गणेशजी को जन्म देने वाली माता पार्वती! [अन्य देवताओं की आराधना करते समय] मुझे नाना प्रकार की सेवाओं में व्यग्र रहना पड़ता था, इसलिये पचासी वर्ष से अधिक अवस्था बीत जाने पर मैंने देवताओं को छोड़ दिया है, अब उनकी सेवा-पूजा मुझसे नहीं हो पाती; अतएव उनसे कुछ भी सहायता मिलने की आशा नहीं है। इस समय यदि तुम्हारी कृपा नहीं होगी तो मैं अवलम्ब रहित होकर किसकी शरण में जाऊँगा॥५॥

माता अपर्णा! तुम्हारे मन्त्र का एक अक्षर भी कान में पड़ जाय तो उसका फल यह होता है कि मूर्ख चाण्डाल भी मधुपाक के समान मधुर वाणी का उच्चारण करने वाला उत्तम वक्ता हो जाता है, दीन मनुष्य भी करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं से सम्पन्न हो चिरकाल तक निर्भय विहार करता रहता है। जब मन्त्र के एक अक्षर के श्रवण का ऐसा फल है तो जो लोग विधि पूर्वक जप में लगे रहते हैं, उनके जप से प्राप्त होने वाला उत्तम फल कैसा होगा? इसको कौन मनुष्य जान सकता है॥६॥

चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो
जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं
भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम्॥७॥

न मोक्षस्याकाङ्क्षा भवविभववाञ्छापि च न मे
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः।
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै
मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः॥८॥

नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः
किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः।
श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे
धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव॥९॥

भवानी! जो अपने अंगों में चिता की राख- भभूत लपेटे रहते हैं, जिनका विष ही भोजन है, जो दिगम्बरधारी (नग्न रहने वाले) हैं, मस्तक पर जटा और कण्ठ में नागराज वासुकि को हार के रूप में धारण करते हैं तथा जिनके हाथ में कपाल (भिक्षापात्र) शोभा पाता है, ऐसे भूतनाथ पशुपति भी जो एकमात्र ‘जगदीश’ की पदवी धारण करते हैं, इसका क्या कारण है? यह महत्त्व उन्हें कैसे मिला; यह केवल तुम्हारे पाणिग्रहण की परिपाटी का फल है; तुम्हारे साथ विवाह होने से ही उनका महत्त्व बढ़ गया॥७॥

मुख में चन्द्रमा की शोभा धारण करने वाली माँ! मुझे मोक्ष की इच्छा नहीं है, संसार के वैभव की भी अभिलाषा नहीं है; न विज्ञान की अपेक्षा है, न सुख की आकांक्षा; अतः तुमसे मेरी यही याचना है कि मेरा जन्म ‘मृडानी, रुद्राणी, शिव, शिव, भवानी’ – इन नामों का जप करते हुए बीते॥८॥

माँ श्यामा! नाना प्रकार की पूजन सामग्रियों से कभी विधि पूर्वक तुम्हारी आराधना मुझ से न हो सकी। सदा कठोर भाव का चिन्तन करने वाली मेरी वाणी ने कौन-सा अपराध नहीं किया है! फिर भी तुम स्वयं ही प्रयत्न करके मुझ अनाथ पर जो किंचित् कृपा दृष्टि रखती हो, माँ! यह तुम्हारे ही योग्य है। तुम्हारी जैसी दयामयी माता ही मेरे जैसे कुपुत्र को भी आश्रय दे सकती है॥९॥

आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं
करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि।
नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः
क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति॥१०॥

जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि।
अपराधपरम्परापरं न हि माता समुपेक्षते सुतम्॥११॥

मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि।
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु॥१२॥

॥इति श्रीशङ्कराचार्यविरचितं देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रं सम्पूर्णम्॥

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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-

माता दुर्गे! करुणा सिन्धु महेश्वरी! मैं विपत्तियों में फँसकर आज जो तुम्हारा स्मरण करता हूँ [पहले कभी नहीं करता रहा] इसे मेरी शठता न मान लेना; क्योंकि भूख-प्यास से पीड़ित बालक माता का ही स्मरण करते हैं॥१०॥

जगदम्ब! मुझपर जो तुम्हारी पूर्ण कृपा बनी हुई है, इसमें आश्चर्य की कौन- सी बात है, पुत्र अपराध- पर- अपराध क्यों न करता जाता हो, फिर भी माता उसकी उपेक्षा नहीं करती॥११॥

महादेवि! मेरे समान कोई पातकी नहीं है और तुम्हारे समान दूसरी कोई पापहारिणी नहीं है; ऐसा जानकर जो उचित जान पड़े, वह करो॥१२॥

श्री दुर्गा सप्तशती - देवी अपराध क्षमापना स्त्रोतम

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