
मुख पृष्ठ अखंड रामायण वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग- २१-३०

॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ श्री कमलापति नम: ॥
॥ श्री जानकीवल्लभो विजयते ॥
॥ श्री वाल्मीकि रामायण ॥


वाल्मीकि रामायण
(भावार्थ सहित)
सब एक ही स्थान पर

बालकाण्ड सर्ग- २१-३०
वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- २१
बालकाण्डम्
एकविंशः सर्गः (सर्ग 21)
श्री दुर्गा सप्तशती जिसमें माँ दुर्गा की महिमा, शक्ति और महासागरी शक्ति का वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-
श्री दुर्गा सप्तशती पाठ (संपूर्ण भाग) 🐅
( विश्वामित्र के रोषपूर्ण वचन तथा वसिष्ठ का राजा दशरथ को समझाना )
श्लोक:
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य स्नेहपर्याकुलाक्षरम्।
समन्युः कौशिको वाक्यं प्रत्युवाच महीपतिम्॥१॥
भावार्थ :-
राजा दशरथ की बात के एक-एक अक्षर में पुत्र के प्रति स्नेह भरा हुआ था, उसे सुनकर महर्षि विश्वामित्र कुपित हो उनसे इस प्रकार बोले-॥१॥
श्लोक:
पूर्वमर्थं प्रतिश्रुत्य प्रतिज्ञा हातुमिच्छसि।
राघवाणामयुक्तोऽयं कुलस्यास्य विपर्ययः॥२॥
भावार्थ :-
‘राजन् ! पहले मेरी माँगी हुई वस्तु के देने की प्रतिज्ञा करके अब तुम उसे तोड़ना चाहते हो। प्रतिज्ञा का यह त्याग रघुवंशियों के योग्य तो नहीं है,यह बर्ताव तो इस कुल के विनाश का सूचक है॥२॥
श्लोक:
यदीदं ते क्षमं राजन् गमिष्यामि यथागतम्।
मिथ्याप्रतिज्ञः काकुत्स्थ सुखी भव सुहृवृतः॥३॥
भावार्थ :-
‘नरेश्वर! यदि तुम्हें ऐसा ही उचित प्रतीत होता है तो मैं जैसे आया था, वैसे ही लौट जाऊँगा। ककुत्स्थकुल के रत्न! अब तुम अपनी प्रतिज्ञा झूठी करके हितैषी सुहृदों से घिरे रहकर सुखी रहो’॥३॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- २२
बालकाण्डम्
द्वाविंशः सर्गः (सर्ग 22)
( राजा दशरथ का स्वस्तिवाचन पूर्वक राम-लक्ष्मण को मुनि के साथ भेजना,विश्वामित्र से बला और अतिबला नामक विद्या की प्राप्ति )
श्लोक:
तथा वसिष्ठे ब्रुवति राजा दशरथः स्वयम्।
प्रहृष्टवदनो राममाजुहाव सलक्ष्मणम्॥१॥
कृतस्वस्त्ययनं मात्रा पित्रा दशरथेन च।
पुरोधसा वसिष्ठेन मंगलैरभिमन्त्रितम्॥२॥
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भावार्थ :-
वसिष्ठ के ऐसा कहने पर राजा दशरथ का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। उन्होंने स्वयं ही लक्ष्मण सहित श्रीराम को अपने पास बुलाया,फिर माता कौसल्या, पिता दशरथ और पुरोहित वसिष्ठ ने स्वस्तिवाचन करने के पश्चात् उनका यात्रा सम्बन्धी मंगलकार्य सम्पन्न किया—श्रीराम को मंगलसूचक मन्त्रों से अभिमन्त्रित किया गया॥१-२॥
श्लोक:
स पुत्रं मूर्युपाघ्राय राजा दशरथस्तदा।
ददौ कुशिकपुत्राय सुप्रीतेनान्तरात्मना॥३॥
भावार्थ :-
तदनन्तर राजा दशरथ ने पुत्र का मस्तक सूंघकर अत्यन्त प्रसन्नचित्त से उसको विश्वामित्र को सौंप दिया॥३॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- २३
बालकाण्डम्
त्रयोविंशः सर्गः (सर्ग 23)
( विश्वामित्र सहित श्रीराम और लक्ष्मण का सरयू-गंगा संगम के समीप पुण्य आश्रम में रात को ठहरना )
श्लोक:
प्रभातायां तु शर्वर्यां विश्वामित्रो महामुनिः।
अभ्यभाषत काकुत्स्थौ शयानौ पर्णसंस्तरे॥१॥
भावार्थ :-
जब रात बीती और प्रभात हुआ, तब महामुनि विश्वामित्र ने तिनकों और पत्तों के बिछौने पर सोये हुए उन दोनों ककुत्स्थवंशी राजकुमारों से कहा-॥१॥
श्लोक:
कौसल्या सुप्रजा राम पूर्वा संध्या प्रवर्तते।
उत्तिष्ठ नरशार्दूल कर्तव्यं दैवमाह्निकम्॥२॥
भावार्थ :-
‘नरश्रेष्ठ राम! तुम्हारे-जैसे पुत्र को पाकर महारानी कौसल्या सुपुत्रजननी कही जाती हैं। यह देखो, प्रातःकाल की संध्या का समय हो रहा है; उठो और प्रतिदिन किये जाने वाले देव सम्बन्धी कार्यों को पूर्ण करो’॥२॥
श्लोक:
तस्यर्षेः परमोदारं वचः श्रुत्वा नरोत्तमौ।
स्नात्वा कृतोदकौ वीरौ जेपतुः परमं जपम्॥३॥
भावार्थ :-
महर्षि का यह परम उदार वचन सुनकर उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरों ने स्नान करके देवताओं का तर्पण किया और फिर वे परम उत्तम जपनीय मन्त्र गायत्री का जप करने लगे॥३॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- २४
बालकाण्डम्
चतुर्विंशः सर्गः (सर्ग 24)
( श्रीराम और लक्ष्मण का गंगापार होते समय तुमुलध्वनि के विषय में प्रश्न, मलद, करूष एवं ताटका वन का परिचय,ताटका वध की आज्ञा )
श्लोक:
ततः प्रभाते विमले कृताह्निकमरिन्दमौ।
विश्वामित्रं पुरस्कृत्य नद्यास्तीरमुपागतौ॥१॥
भावार्थ :-
तदनन्तर निर्मल प्रभात काल में नित्यकर्म से निवृत्त हुए विश्वामित्रजी को आगे करके शत्रुदमन वीर श्रीराम और लक्ष्मण गंगा नदी के तट पर आये॥१॥
श्लोक:
ते च सर्वे महात्मानो मुनयः संशितव्रताः।
उपस्थाप्य शुभां नावं विश्वामित्रमथाब्रवन्॥२॥
भावार्थ :-
उस समय उत्तम व्रत का पालन करने वाले उन पुण्याश्रम निवासी महात्मा मुनियों ने एक सुन्दर नाव मँगवाकर विश्वामित्रजी से कहा-॥२॥
श्लोक:
आरोहतु भवान् नावं राजपुत्रपुरस्कृतः।
अरिंष्ट गच्छ पन्थानं मा भूत् कालस्य पर्ययः॥३॥
भावार्थ :-
‘महर्षे! आप इन राजकुमारों को आगे करके इस नाव पर बैठ जाइये और मार्ग को निर्विघ्नतापूर्वक तय कीजिये, जिससे विलम्ब न हो’॥३॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- २५
बालकाण्डम्
पञ्चविंशः सर्गः (सर्ग 25 )
( श्रीराम के पूछने पर विश्वामित्रजी का ताटका की उत्पत्ति, विवाह एवं शाप आदि का प्रसंग सुनाकर उन्हें ताटका-वध के लिये प्रेरित करना )
श्लोक:
अथ तस्याप्रमेयस्य मुनेर्वचनमुत्तमम्।
श्रुत्वा पुरुषशार्दूलः प्रत्युवाच शुभां गिरम्॥१॥
भावार्थ :-
अपरिमित प्रभावशाली विश्वामित्र मुनि का यह उत्तम वचन सुनकर पुरुषसिंह श्रीराम ने यह शुभ बात कही-॥१॥
श्लोक:
अल्पवीर्या यदा यक्षी श्रूयते मुनिपुंगव।
कथं नागसहस्रस्य धारयत्यबला बलम्॥२॥
भावार्थ :-
‘मुनिश्रेष्ठ! जब वह यक्षिणी एक अबला सुनी जाती है, तब तो उसकी शक्ति थोड़ी ही होनी चाहिये; फिर वह एक हजार हाथियों का बल कैसे धारण करती है?’॥२॥
श्लोक:
इत्युक्तं वचनं श्रुत्वा राघवस्यामितौजसः।
हर्षयन् श्लक्ष्णया वाचा सलक्ष्मणमरिंदमम्॥३॥
विश्वामित्रोऽब्रवीद् वाक्यं शृणु येन बलोत्कटा।
वरदानकृतं वीर्यं धारयत्यबला बलम्॥४॥
भावार्थ :-
अमित तेजस्वी श्रीरघुनाथ के कहे हुए इस वचन को सुनकर विश्वामित्र जी अपनी मधुर वाणीद् वारा लक्ष्मण सहित शत्रुदमन श्रीराम को हर्ष प्रदान करते हुए बोले- ’रघुनन्दन! जिस कारण से ताटका अधिक बलशालिनी हो गयी है, वह बताता हूँ, सुनो। उसमें वरदानजनित बल का उदय हुआ है; अतः वह अबला होकर भी बल धारण करती है (सबला हो गयी है)॥३-४॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- २६
बालकाण्डम्
षड्विंशः सर्गः(सर्ग 26 )
( श्रीराम द्वारा ताटका का वध )
श्लोक:
मुनेर्वचनमक्लीबं श्रुत्वा नरवरात्मजः।
राघवः प्राञ्जलिभूत्वा प्रत्युवाच दृढव्रतः॥१॥
भावार्थ :-
मुनि के ये उत्साह भरे वचन सुनकर दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले राजकुमार श्रीराम ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया-॥१॥
श्लोक:
पितुर्वचननिर्देशात् पितुर्वचनगौरवात्।
वचनं कौशिकस्येति कर्तव्यमविशङ्कया॥२॥
अनुशिष्टोऽस्म्ययोध्यायां गुरुमध्ये महात्मना।
पित्रा दशरथेनाहं नावज्ञेयं हि तद्वचः॥३॥
भावार्थ :-
‘भगवन्! अयोध्या में मेरे पिता महामना महाराजदशरथ ने अन्य गुरुजनों के बीच मुझे यह उपदेश दिया था कि ‘बेटा! तुम पिता के कहने से पिता के वचनों का गौरव रखने के लिये कुशिकनन्दन विश्वामित्र की आज्ञा का निःशङ्क होकर पालन करना कभी भी उनकी बात की अवहेलना न करना’॥२-३॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- २७
बालकाण्डम्
सप्तविंशः सर्गः (सर्ग 27)
( विश्वामित्र द्वारा श्रीराम को दिव्यास्त्र )
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श्लोक:
दान अथ तां रजनीमुष्य विश्वामित्रो महायशाः।
प्रहस्य राघवं वाक्यमुवाच मधुरस्वरम्॥१॥
भावार्थ :-
ताटका वन में वह रात बिताकर महायशस्वी विश्वामित्र हँसते हुए मीठे स्वर में श्रीरामचन्द्रजी से बोले-॥१॥
श्लोक:
परितुष्टोऽस्मि भद्रं ते राजपुत्र महायशः।
प्रीत्या परमया युक्तो ददाम्यस्त्राणि सर्वशः॥२॥
भावार्थ :-
‘महायशस्वी राजकुमार! तुम्हारा कल्याण हो। ताटका वध के कारण मैं तुम पर बहुत संतुष्ट हूँ; अतः बड़ी प्रसन्नता के साथ तुम्हें सब प्रकार के अस्त्र दे रहा हूँ॥२॥
श्लोक:
देवासुरगणान् वापि सगन्धर्वोरगान् भुवि।
यैरमित्रान् प्रसह्याजौ वशीकृत्य जयिष्यसि॥३॥
भावार्थ :-
‘इनके प्रभाव से तुम अपने शत्रुओं को–चाहे वे देवता, असुर, गन्धर्व अथवा नाग ही क्यों न हों, “रणभूमि में बलपूर्वक अपने अधीन करके उनपर विजय पा जाओगे॥३॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- २८
बालकाण्डम्
अष्टाविंशः सर्गः (सर्ग 28)
( विश्वामित्र का श्रीराम को अस्त्रों की संहारविधि बताना,अस्त्रोंका उपदेश करना, श्रीराम का आश्रम एवं यज्ञस्थानके विषय में मुनि से प्रश्न )
श्लोक:
प्रतिगृह्य ततोऽस्त्राणि प्रहृष्टवदनः शुचिः।
गच्छन्नेव च काकुत्स्थो विश्वामित्रमथाब्रवीत्॥१॥
भावार्थ :-
उन अस्त्रों को ग्रहण करके परम पवित्र श्रीराम का मुख प्रसन्नता से खिल उठा था। वे चलते-चलते ही विश्वामित् रसे बोले-॥१॥
श्लोक:
गृहीतास्त्रोऽस्मि भगवन् दुराधर्षः सुरैरपि।
अस्त्राणां त्वहमिच्छामि संहारान् मुनिपुंगव॥२॥
भावार्थ :-
‘भगवन्! आपकी कृपा से इन अस्त्रों को ग्रहण करके मैं देवताओं के लिये भी दुर्जय हो गया हूँ। मुनिश्रेष्ठ! अब मैं अस्त्रों की संहार विधि जानना चाहता हूँ’॥२॥
श्लोक:
एवं ब्रुवति काकुत्स्थे विश्वामित्रो महातपाः।
संहारान् व्याजहाराथ धृतिमान् सुव्रतः शुचिः॥३॥
भावार्थ :-
ककुत्स्थकुलतिलक श्रीराम के ऐसा कहने पर महातपस्वी, धैर्यवान्, उत्तम व्रतधारी और पवित्र विश्वामित्र मुनि ने उन्हें अस्त्रों की संहार विधि का उपदेश दिया॥३॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- २९
बालकाण्डम्
एकोनत्रिंशः सर्गः (सर्ग 29 )
( विश्वामित्रजी का श्रीराम से सिद्धाश्रम का पूर्ववृत्तान्त बताना और उन दोनों भाइयों के साथ अपने आश्रम पहुँचकर पूजित होना )
श्लोक:
अथ तस्याप्रमेयस्य वचनं परिपृच्छतः।
विश्वामित्रो महातेजा व्याख्यातुमुपचक्रमे॥१॥
भावार्थ :-
अपरिमित प्रभावशाली भगवान् श्रीराम का वचन सुनकर महातेजस्वी विश्वामित्र ने उनके प्रश्नका उत्तर देना आरम्भ किया-॥१॥
श्लोक:
इह राम महाबाहो विष्णुर्देवनमस्कृतः।
वर्षाणि सुबहूनीह तथा युगशतानि च॥२॥
तपश्चरणयोगार्थमुवास सुमहातपाः।
एष पूर्वाश्रमो राम वामनस्य महात्मनः॥३॥
भावार्थ :-
‘महाबाहु श्रीराम! पूर्वकाल में यहाँ देववन्दित भगवान् विष्णु ने बहुत वर्षों एवं सौ युगों तक तपस्या के लिये निवास किया था। उन्होंने यहाँ बहुत बड़ी तपस्या की थी। यह स्थान महात्मा वामन का वामन अवतार धारण करने को उद्यत हुए श्री विष्णुका अवतार ग्रहण से पूर्व आश्रम था॥२-३॥
श्लोक:
सिद्धाश्रम इति ख्यातः सिद्धो ह्यत्र महातपाः।
एतस्मिन्नेव काले तु राजा वैरोचनिर्बलिः॥४॥
निर्जित्य दैवतगणान् सेन्द्रान् सहमरुद्गणान्।
कारयामास तद्राज्यं त्रिषु लोकेषु विश्रुतः॥५॥
भावार्थ :-
‘इसकी सिद्धाश्रम के नाम से प्रसिद्धि थी; क्योंकि यहाँ महातपस्वी विष्णु को सिद्धि प्राप्त हुई थी। जब वे तपस्या करते थे, उसी समय विरोचन कुमार राजा बलि ने इन्द्र और मरुद्गणों सहित समस्त देवताओं को पराजित करके उनका राज्य अपने अधिकार में कर लिया था। वे तीनों लोकों में विख्यात हो गये थे॥४-५॥

वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ३०
बालकाण्डम्
त्रिंशः सर्गः (सर्ग 30 )
( श्रीराम द्वारा विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा तथा राक्षसों का संहार )
श्लोक:
अथ तौ देशकालज्ञौ राजपुत्रावरिंदमौ।
देशे काले च वाक्यज्ञावब्रूतां कौशिकं वचः॥
भावार्थ :-
तदनन्तर देश और काल को जानने वाले शत्रुदमन राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण जो देश और काल के अनुसार बोलने योग्य वचन के मर्मज्ञ थे, कौशिक मुनि से इस प्रकार बोले॥१॥
श्लोक:
भगवञ्छ्रोतुमिच्छावो यस्मिन् काले निशाचरौ।
संरक्षणीयौ तौ ब्रूहि नातिवर्तेत तत्क्षणम्॥२॥
भावार्थ :-
‘भगवन्! अब हम दोनों यह सुनना चाहते हैं कि किस समय उन दोनों निशाचरों का आक्रमण होता है? जब कि हमें उन दोनों को यज्ञ भूमि में आने से रोकना है,कहीं ऐसा न हो, असावधानी में ही वह समय हाथ से निकल जाय; अतः उसे बता दीजिये’॥२॥।
श्लोक:
एवं ब्रुवाणौ काकुत्स्थौ त्वरमाणौ युयुत्सया।
सर्वे ते मुनयः प्रीताः प्रशशंसुर्नृपात्मजौ॥३॥
भावार्थ :-
ऐसी बात कहकर युद्ध की इच्छा से उतावले हुए उन दोनों ककुत्स्थवंशी राजकुमारों की ओर देखकर वे सब मुनि बड़े प्रसन्न हुए और उन दोनों बन्धुओं की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे॥३॥

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