दुर्गाकुण्ड मंदिर | Durgakund Mandir

दुर्गाकुण्ड मंदिर जिसके दर्शन मात्र से मिट जाते है कष्ट और पुरी होती है संपूर्ण मनोकामनाऐ भी।

दुर्गाकुण्ड मंदिर

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दुर्गाकुण्ड मंदिर

दुर्गाकुण्ड मंदिर

काशी में केवल बाबा भोलेनाथ का ही मंदिर नहीं है बल्कि यहाँ माँ दुर्गा का दिव्य और पुरातन मंदिर भी है। इस मंदिर का उल्लेख “काशी खंड” में भी देखने को मिलता है। यह मंदिर वाराणसी कैन्ट से लगभग 13 कि॰मी॰ की दूरी पर है। लाल पत्थरों से बने इस दिव्य मंदिर के एक तरह दुर्गाकुण्ड भी है। मानना है कि इस कुंड में पानी पाताल से आता है। तभी इसका पानी कभी नहीं सूखता।

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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-

इस मंदिर में माता के कई स्वरूपों का दर्शन करने का सौभाग्य मिलता है। इसकी भव्यता ऐसी है कि कहा जाता है कि मंदिर परिसर में जाने वाले भक्त माँ की प्रतिमा को देखकर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। मंदिर में एक अलग तरह की सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह महसूस होता है। सावन महिने में एक माह का बहुत मनमोहक मेला लगता है। आइए जानते हैं काशी के माँ दुर्गा के दिव्य मंदिर के बिषय में..

यंत्र के रूप में विराजमान है माँ दुर्गा

माँ का यह मंदिर काशी के पुरातन मंदिरों में से एक है। बताया जाता है कि मंदिर का निर्माण साल 1760 में बंगाल की रानी भवानी ने कराया था। उस समय मंदिर निर्माण में लगभग 50 हजार रुपए की लागत आई थी। इस मंदिर में माता दुर्गा यंत्र के रूप में विराजमान हैं। इस मंदिर में बाबा भैरोनाथ, लक्ष्मीजी, सरस्वतीजी, एवं माता काली की मूर्ति रूप में अलग से मंदिर है।

लक्ष्मी-सरस्वती-और-माता-काली

दुर्गा माता स्वयं यहाँ कुष्मांडा के रूप मे पुजी जाती है। यहाँ प्रतिदिन श्रद्धालु मांगलिक कार्य, मुंडन इत्यादि के साथ-साथ माँ के दर्शन कॆ लिये भी आतॆ है। मंदिर के अंदर हवन कुण्ड है, जहाँ प्रतिदिन सैंकड़ो हवन होते हैं। माता के दर्शन के बाद यहाँ पुजारी के मंदिर का दर्शन करना अनिवार्य है। तभी माँ की पूजा पूर्ण होती है।

मान्यता है कि असुर शुंभ और निशुंभ का वध करने के बाद माँ दुर्गा ने यहाँ विश्राम किया था। कहा जाता है कि माता यहाँ पर आदि शक्ति कूष्माण्डा के स्वरूप में विराजमान रहती हैं और यह मंदिर आदिकाल से है। आदिकाल में काशी में केवल तीन ही मंदिर थे, पहला काशी विश्वनाथ, दूसरा दुर्गा मंदिर और तीसरा माँ अन्नपूर्णा का ही मंदिर था। कुछ लोग यहाँ तंत्र पूजा भी करते हैं।

मंदिर से जुड़ी अद्भुद कहानी

इस भव्य मंदिर में एक तरह दुर्गा कुंड भी है। इस कुंड से जुड़ी एक अद्भुद कहानी बताई जाती है। बताया जाता है कि जब काशी नरेश राजा सुबाहू ने अपनी पुत्री के विवाह के लिए स्वयंवर की घोषणा की थी। तब स्वयंवर से पहले सुबाहू की पुत्री को सपने में माता ने अयोध्या के राजकुमार सुदर्शन से काशी नरेश सुबाहु की बेटी के संग विवाह होते दिखाया। अगली सुबह राजकुमारी ने यह बात अपने पिता राजा सुबाहू को बताया।

काशी नरेश ने जब यह बात स्वयंवर में आए राजा-महाराजाओं को बताया तो सभी राजा राजकुमार सुदर्शन के खिलाफ हो गए और युद्ध की चुनौती दी। राजकुमार सुदर्शन ने उनकी चुनौती को स्वीकार कर माँ भगवती से युद्ध में विजयी होने का आशीर्वाद मांगा। राजकुमार सुदर्शन ने जिस स्थल पर आदि शक्ति की आराधना की, वहाँ देवी माँ प्रकट हुई और सुदर्शन को विजय का वरदान देकर स्वयं उसकी प्राण रक्षा की। कहा जाता है कि जब राजा-महाराजाओं से युद्ध करते हुए सुदर्शन कमजोर पड़ने लगे तब माँ आदि शक्ति ने युद्धभूमि में प्रकट होकर सभी विरोधियों का वध कर डाला।

युद्ध में इतना रक्तपात हुआ कि वहाँ रक्त का कुंड बन गया, जो दुर्गाकुण्ड के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सुदर्शन की रक्षा के बाद देवी माँ ने काशी नरेश को दर्शन देकर उनकी पुत्री का विवाह राजकुमार सुदर्शन से करने का निर्देश दिया और कहा कि किसी भी युग में इस स्थल पर जो भी मनुष्य सच्चे मन से मेरी आराधना करेगा मैं उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी करूंगी।

पौराणिक मान्यता के अनुसार, जहाँ माता स्वयं प्रकट होती हैं, वहाँ मूर्ति स्थापित नहीं की जाती। ऐसे मंदिरों में केवल चिन्ह की पूजा की जाती है। दुर्गा मंदिर भी उन्ही श्रेणियों में आता है। यहाँ माता के मुखौटे और चरण पादुका की पूजा की जाती है। काशी का दुर्गा मंदिर बीसा यंत्र पर आधारित है। बीसा यंत्र का मतलब बीस कोण की यांत्रिक संरचना जिसके ऊपर मंदिर की आधारशीला रखी गई है।

कुक्कुटेश्वर महादेव के दर्शन के बिना अधूरी मानी जाती है माँ की पूजा

मंदिर से जुड़ी एक अन्य कथा इसकी विशिष्टता को प्रतिपादित करती है। घटना प्राचीन काल की है एक बार काशी क्षेत्र के कुछ लुटेरों ने इस मंदिर में देवी दुर्गा के दर्शन कर संकल्प लिया था कि जिस कार्य के लिए वह जा रहे हैं, यदि उसमें सफलता मिली तो वे माँ आद्य शक्ति को नरबलि चढ़ाएंगे। माँ की कृपा से उन्हें अपने कार्य में सफलता मिली और वे मंदिर आकर बलि देने के लिए ऐसे व्यक्ति को खोजने लगे जिसमें कोई दाग न हो। तब उन्हें मंदिर के पुजारी ही बलि के लिए उपयुक्त नजर आए। जब उन्होंने पुजारी से यह बात कहते हुए उनको बलि के लिए पकड़ा तो पुजारी बोले- “रुको! मैं माता रानी की नित्य पूजा कर लूं, फिर मेरी बलि चढ़ा देना।”

पूजा के बाद ज्यों ही लुटेरों ने पुजारी की बलि चढ़ाई तत्क्षण माता ने प्रकट होकर पुजारी को पुनर्जीवित कर दिया व वर मांगने को कहा। तब पुजारी ने माता से कहा कि उन्हें जीवन नहीं, उनके चरणों में चिरविश्राम चाहिए। माता प्रसन्न हुई और उन्होंने वरदान दिया कि उनके दर्शन के बाद जो कोई भी उस पुजारी का दर्शन नहीं करेगा, उसकी पूजा फलित नहीं होगी। इसके कुछ समय बाद पुजारी ने उसी मंदिर प्रांगण में समाधि ली, जिसे आज कुक्कुटेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है।

कैसे पहुंचे: यहाँ आप ऑटो, रिक्शा या टैक्सी के जरिए जा सकते हैं। यह बीएचयू से 2 किमी और कैंट वाराणसी से 13 किमी की दूरी पर स्थित है।

मंदिर जाने का सही समय: साल में कभी भी सुबह 7:00 बजे से रात 8:00 बजे तक।

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संबन्धित लेख: माँ कुष्मांडा

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