गया तीर्थ


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गया तीर्थ

गया तीर्थ की कथा

शास्त्रों के अनुसार ब्रह्माजी जब सृष्टि की रचना कर रहे थे उस समय उनसे असुर कुल में एक गया नामक असुर की भी रचना हो गई। गया असुरों के संतान के रूप में पैदा नहीं हुआ था इसलिए उसके अन्दर आसुरी प्रवृति बिलकुल भी नहीं थी। वह सभी देवताओं का सम्मान करता और आराधना भी करता था।

परन्तु उसके मन में कुछ खटकता था। वह हमेशा सोचा करता था कि भले ही वह संत प्रवृति का है लेकिन वह असुर कुल में पैदा होने के कारणवश उसे कभी भी उचित सम्मान नहीं मिलेगा। इसलिए क्यों न अच्छे कर्म करके इतना पुण्य कमाया किया जाए कि उसे मरने के उपरांत स्वर्ग मिले।

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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-

तब गया ने कठोर तप करके भगवान श्री विष्णुजी को प्रसन्न किया। बिष्णुजी ने वरदान मांगने को कहा, तब गयासुर ने स्वेच्छानुसार मांगा की- आप मेरे शरीर में सदैव वास करें। और जो भी मुझे देखे उसके संपूर्ण पाप नष्ट हो जाएं। वह जीव व जन्तु पुण्यात्मा हो जाए और उसे स्वर्ग में उचित स्थान मिले।

भगवान बिष्णु जी से वरदान पाकर गयासुर घूम- घूम कर सभी लोगों के पाप दूर करने लगा। और जो भी उसे देख लेता उसके पाप स्वयं नष्ट हो जाते और वह स्वर्ग का हकदार हो जाता।

जिससे यमराज जी की व्यवस्था गड़बड़ानें लगी। अत्यंत घोर पापी भी यदि गयासुर के दर्शन कर लेता तो भी उसके पाप नष्ट हो जाने लगे। उधर यमराज उसे नर्क भेजने की तैयारी करते तो वह गयासुर के दर्शन के प्रभाव से स्वर्ग मांगने का अधिकारी हो जाता। यमराज को हिसाब रखने में संकट होने लगा था।
तब यमराज ने ब्रह्माजी से कहा कि यदि गयासुर को अभी न रोका गया तो आपके विधि का विधान समाप्त हो जाएगा जिसमें आपने सभी को उसके कर्म के अनुसार फल भोगने की व्यवस्था की थी। अब तो पापी भी गयासुर के प्रभाव से स्वर्ग भोंगेगे।

अत्यंत विमर्ष के उपरांत ब्रह्माजी​ ने उपाय निकाला। वह गयासुर के पास गये और कहा कि तुम्हारा शरीर सबसे अधिक पवित्र है इस कारण मै तुम्हारी पीठ पर बैठकर सभी देवताओं के साथ यज्ञ करना चाहता हूँ।

उसकी पीठ पर यज्ञ होगा यह सुनकर गया​ शीघ्र ही तैयार हो गया। तब ब्रह्माजी व सभी देवता पत्थर से गया को दबाकर उसपर बैठ गए। इतने भार के बावजूद भी वह अडिग नहीं हुआ। वह प्रतिदिन की तरह घूमने-फिरने में फिर भी समर्थ था।

देवताओं को फिर चिंता हुई। उन्होंने आपस में सलाह किया कि इसे श्री विष्णु ने वरदान दिया है इसलिए यदि स्वयं श्री बिष्णु भी देवताओं के साथ बैठ जाएं तो गयासुर असहाय हो जाएगा। अत्यंत विनती के उपरांत श्री बिष्णु भी उसके शरीर पर आ कर बैठ गये।
तब गयासुर ने श्री विष्णु जी को भी सभी देवताओं के साथ अपने शरीर पर बैठा देखकर कहा- आप सभी और मेरे आराध्य देव श्री बिष्णु की मर्यादा के कारण अब मैं अचल हो गया हूं। इसलिए घूम-घूमकर लोगों के पाप हरने का कार्य अब मै बंद कर दूंगा।

लेकिन मुझे श्री बिष्णुजी का आशीर्वाद है इसलिए वह कभी व्यर्थ नहीं जा सकता इसलिए श्री बिष्णुजी आप मुझे पत्थर की शिला बना दें और यहीं पर ही स्थापित करा दें।

श्री बिष्णु उसकी इस भावना से अत्यंत खुश हुए। उन्होंने कहा- गयासुर अगर तुम्हारी कोई और इच्छा हो तो वह भी मुझसे वरदान के स्वरूप में मांग लो।
तब गयासुर ने कहा- “हे नारायण जी मेरी इच्छा है कि आप सभी देवताओं के साथ अप्रत्यक्ष रूप से सदैव इसी शिला पर ही विराजमान रहें और यह स्थान मृत्यु के बाद किए जाने वाले सभी धार्मिक अनुष्ठानों के लिए तीर्थस्थल बन जाए”।

तब श्री विष्णु ने कहा- गयासुर तुम धन्य हो। जो तुमने लोगों के जीवित अवस्था में भी कल्याण का वरदान मांगा और मृत्यु के बाद भी मृत आत्माओं के कल्याण के लिए वरदान मांग रहे हो। तुम्हारी इस कल्याणकारी भावना से हम सब बंध हो गये हैं।

तब भगवान ने आशीर्वाद दिया कि जहां गयासुर स्थापित हुआ है वहां पितरों के श्राद्ध-तर्पण आदि करने से मृत आत्माओं को पीड़ा से मुक्ति प्रदान होगी। तथा क्षेत्र का नाम अब गयासुर के अर्धभाग गया नाम से तीर्थ रूप में विख्यात होगा। तथा मैं स्वयं यहां पर विराजमान रहूंगा।

इस गया तीर्थ से समस्त मानव जाति का कल्याण होगा। साथ ही वहा “श्री विष्णुजी​” ने स्वयं अपने पेरो का निशान स्थापित किया जो आज भी वहा के मंदिर मे दर्शनीय है।

[गया विधि के अनुसार श्राद्ध और तर्पण फल्गू नदी के तट पर श्री बिष्णु पद मंदिर में व अक्षयवट के नीचे ही किया जाता है।
यह स्थान बिहार में स्थित है जहां श्राद्ध आदि करने से पितरों का कल्याण होता है]

प्रथम पिंडदान की शुरुआत

सनातन संस्कृति मे प्रथम पिंडदान की शुरुआत कब और किसने की, यह बताना उतना ही कठिन है जितना कि भारतीय धर्म और संस्कृति के उद्भव की कोई तिथि निश्चित करना। परंतु गया के स्थानीय पंडों का कहना है कि सर्व प्रथम सतयुग में ब्रह्माजी ने पिंडदान किया था। एवं महाभारत के ‘वन पर्व’ में भी भीष्म पितामह और पांडवों की गया यात्रा का उल्लेख मिलता है। श्रीराम ने भी महाराजा दशरथ का पिण्ड दान यहीं (गया) में ही किया था। गया के पंडों के पास उपस्थित साक्ष्यों से स्पष्ट है कि मौर्य और गुप्त राजाओं से लेकर कुमारिल भट्ट, चाणक्य, रामकृष्ण परमहंस व चैतन्य महाप्रभु जैसे महापुरुषों का भी गया में पिंडदान करने का प्रमाण मिलता है। गया में फल्गू नदी प्रायः सूखी ही रहती है। इस संदर्भ में भी एक कथा प्रचलित है।

भगवान श्रीराम जब अपनी पत्नि सीताजी के साथ पिता दशरथ का श्राद्ध करने गया धाम पहुंचे। तब वे श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री लाने चले गये। तब तक वहा राजा दशरथ की आत्मा ने पिंड की मांग कर दी। तब फल्गू नदी तट पर अकेली बैठी सीताजी अत्यंत असमंजस में पड़ गई। और माता सीताजी​ ने फल्गु नदी, गाय, वटवृक्ष और केतकी के फूल को साक्षी मानकर पिंडदान कर दिया। जब भगवान श्री राम आए तो उन्हें पूरी कहानी सुनाई, परंतु भगवान को विश्वास नहीं हुआ।

तब जिन्हें साक्षी मानकर सीताजी ने पिंडदान किया था, उन सबको सामने लाया गया। तब पंडा, फल्गु नदी, गाय और केतकी फूल ने झूठ बोल दिया परंतु अक्षयवट ने सत्यवादिता का परिचय देते हुए माता की लाज रख ली।

इससे क्रोधित होकर सीताजी ने फल्गू नदी को श्राप दे दिया कि तुम सदा सूखी ही रहोगी जबकि गाय को मैला खाने का श्राप दिया और केतकी के फूल को पितृ पूजन मे निषेध का। वटवृक्ष पर प्रसन्न होकर सीताजी ने उसे सदैव दूसरों को छाया प्रदान करने एंव लंबी आयु का वरदान दिया।

तब से ही फल्गू नदी हमेशा सूखी रहती हैं, जबकि वटवृक्ष अभी भी तीर्थयात्रियों को छाया प्रदान करता है। आज भी फल्गू तट पर स्थित सीता कुंड में बालू का पिंड दान करने की क्रिया (परंपरा) संपन्न होती है।

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