वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- १-१०

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॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ श्री कमलापति नम: ॥
॥ श्री जानकीवल्लभो विजयते ॥
॥ श्री वाल्मीकि रामायण ॥
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बालकाण्ड सर्ग- १-१०

वाल्मीकि रामायण
(भावार्थ सहित)
सब एक ही स्थान पर

बालकाण्ड सर्ग- १-१०


वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- १

बालकाण्डम्
प्रथमः सर्गः (सर्ग 1)

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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-

( नारदजी का वाल्मीकि मुनि को संक्षेप से श्रीरामचरित्र सुनाना )

श्लोक:
ॐ तपःस्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम्।
नारदं परिपप्रच्छ वाल्मीकिर्मुनिपुंगवम्॥१॥

भावार्थ :-
तपस्वी वाल्मीकि जी ने तपस्या और स्वाध्याय में लगे हुए विद्वानों में श्रेष्ठ मुनिवर नारदजी से पूछा-॥१॥

श्लोक:
को न्वस्मिन् साम्प्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान्।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रतः॥२॥

भावार्थ :-
‘[मुने!] इस समय इस संसार में गुणवान्, वीर्यवान्, धर्मज्ञ, उपकार मानने वाला, सत्यवक्ता और दृढ़प्रतिज्ञ कौन है?॥२॥

श्लोक:
चारित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः।
विद्वान् कः कः समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शनः॥३॥

भावार्थ :-
‘सदाचार से युक्त, समस्त प्राणियों का हितसाधक, विद्वान्, सामर्थ्यशाली और एकमात्र प्रियदर्शन (सुन्दर) पुरुष कौन है?॥३॥

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वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- २

बालकाण्डम्
द्वितीयः सर्गः (सर्ग 2)

( रामायण काव्य का उपक्रम- तमसा के तटपर क्रौञ्चवध से संतप्त हुए महर्षि वाल्मीकि के शोक का श्लोक-रूप में प्रकट होना तथा ब्रह्माजी का उन्हें रामचरित्रमय काव्य के निर्माण का आदेश देना )

श्लोक:
नारदस्य तु तद् वाक्यं श्रुत्वा वाक्यविशारदः।
पूजयामास धर्मात्मा सहशिष्यो महामुनिम्॥१॥

भावार्थ :-
देवर्षि नारदजी के उपर्युक्त वचन सुनकर वाणी विशारद धर्मात्मा ऋषि वाल्मीकिजी ने अपने शिष्यों सहित उन महामुनि का पूजन किया॥१॥

श्लोक:
यथावत् पूजितस्तेन देवर्षि रदस्तथा।
आपृच्छयेवाभ्यनुज्ञातः स जगाम विहायसम्॥२॥

भावार्थ :-
वाल्मीकिजी से यथावत् सम्मानित हो देवर्षि नारदजी ने जाने के लिये उनसे आज्ञा माँगी और उनसे अनुमति मिल जाने पर वे आकाशमार्ग से चले गये॥२॥

श्लोक:
स मुहूर्तं गते तस्मिन् देवलोकं मुनिस्तदा।
जगाम तमसातीरं जाह्नव्यास्त्वविदूरतः॥३॥

भावार्थ :-
उनके देवलोक पधारने के दो ही घड़ी बाद वाल्मीकि जी तमसा नदी के तटपर गये, जो गंगाजी से अधिक दूर नहीं था॥३॥

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वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ३

बालकाण्डम्
तृतीयः सर्गः (सर्गः 3)

( वाल्मीकि मुनि द्वारा रामायण काव्य में निबद्ध विषयों का संक्षेप से उल्लेख )

श्लोक:
श्रुत्वा वस्तु समग्रं तद्धर्मार्थसहितं हितम्।
व्यक्तमन्वेषते भूयो यद् वृत्तं तस्य धीमतः॥१॥

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भावार्थ :- नारदजी के मुख से धर्म, अर्थ एवं कामरूपी फल से युक्त, हितकर (मोक्षदायक) तथा प्रकट और गुप्त सम्पूर्ण रामचरित्र को, जो रामायण महाकाव्य की प्रधान कथावस्तु था, सुनकर महर्षि वाल्मीकि जी बुद्धिमान श्रीराम के उस जीवन वृत्त का पुनः भली भाँति साक्षात्कार करने के लिये प्रयत्न करने लगे॥१॥

श्लोक:
उपस्पृश्योदकं सम्यमुनिः स्थित्वा कृताञ्जलिः।
प्राचीनाग्रेषु दर्भेषु धर्मेणान्वेषते गतिम्॥२॥

भावार्थ :- वे पूर्वाग्र कुशों के आसन पर बैठ गये और विधिवत् आचमन करके हाथ जोड़े हुए स्थिर भावसे स्थित हो योगधर्म (समाधि) के द्वारा श्रीराम आदि के चरित्रों का अनुसंधान करने लगे॥२॥

श्लोक:
रामलक्ष्मणसीताभी राज्ञा दशरथेन च।
सभार्येण सराष्ट्रण यत् प्राप्तं तत्र तत्त्वतः॥३॥
हसितं भाषितं चैव गतिर्यावच्च चेष्टितम्।
तत् सर्वं धर्मवीर्येण यथावत् सम्प्रपश्यति॥४॥

भावार्थ :- श्रीराम-लक्ष्मण-सीता तथा राज्य और रानियों सहित राजा दशरथ से सम्बन्ध रखने वाली जितनी बातें थीं- हँसना, बोलना, चलना और राज्यपालन आदि जितनी चेष्टाएँ हुईं- उन सबका महर्षि ने अपने योगधर्म के बल से भलीभाँति साक्षात्कार किया॥३-४॥

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वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ४

बालकाण्डम्
चतुर्थः सर्गः (सर्गः 4)

( महर्षि वाल्मीकि का चौबीस हजार श्लोकों से युक्त रामायण काव्य का निर्माण कर लव-कुश को पढ़ाना, लव और कुश का अयोध्या में श्रीराम द्वारा सम्मानित हो रामदरबार में रामायण गान सुनाना )

श्लोक:
प्राप्तराजस्य रामस्य वाल्मीकिर्भगवानृषिः।
चकार चरितं कृत्स्नं विचित्रपदमर्थवत्॥१॥

भावार्थ :-
श्रीरामचन्द्रजी ने जब वन से लौटकर राज्य का शासन अपने हाथ में ले लिया, उसके बाद भगवान वाल्मीकि मुनि ने उनके सम्पूर्ण चरित्र के आधार पर विचित्र पद और अर्थ से युक्त रामायणकाव्य का निर्माण किया॥१॥

श्लोक:
चतुर्विंशत्सहस्राणि श्लोकानामुक्तवानृषिः।
तथा सर्गशतान् पञ्च षटकाण्डानि तथोत्तरम्॥२॥

भावार्थ :-
इसमें महर्षि ने चौबीस हजार श्लोक, पाँच सौ सर्ग तथा उत्तर सहित सात काण्डों का प्रतिपादन किया है॥२॥

श्लोक:
कृत्वा तु तन्महाप्राज्ञः सभविष्यं सहोत्तरम्।
चिन्तयामास को न्वेतत् प्रयुञ्जीयादिति प्रभुः॥३॥

भावार्थ :-
भविष्य तथा उत्तरकाण्ड सहित समस्त रामायण पूर्ण कर लेने के पश्चात् सामर्थ्य शाली, महाज्ञानी महर्षि ने सोचा कि कौन ऐसा शक्तिशाली पुरुष होगा, जो इस महाकाव्य को पढ़कर जनसमुदाय में सुना सके॥३॥

श्लोक:
तस्य चिन्तयमानस्य महर्षे वितात्मनः।
अगृह्णीतां ततः पादौ मुनिवेषौ कुशीलवौ॥४॥

भावार्थ :-
शुद्ध अन्तःकरण वाले उन महर्षि के इस प्रकार विचार करते ही मुनि वेष में रहने वाले राजकुमार कुश और लव ने आकर उनके चरणों में प्रणाम किया॥४॥

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वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ५

बालकाण्डम्
पञ्चमः सर्गः (सर्गः 5)

( राजा दशरथ द्वारा सुरक्षित अयोध्यापुरी का वर्णन )

सर्वा पूर्वमियं येषामासीत् कृत्स्ना वसुंधरा।
प्रजापतिमुपादाय नृपाणां जयशालिनाम्॥१॥

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यह सारी पृथ्वी पूर्वकालमें प्रजापति मनु से लेकर अब तक जिस वंशके विजयशाली नरेशों के अधिकार में रही है,

येषां स सगरो नाम सागरो येन खानितः।
षष्टिपुत्रसहस्राणि यं यान्तं पर्यवारयन्॥२॥

जिन्होंने समुद्र को खुदवाया था और जिन्हें यात्राकाल में साठ हजार पुत्र घेरकर चलते थे, वे महाप्रतापी राजा सगर जिनके कुलमें उत्पन्न हुए,॥२॥

इक्ष्वाकूणामिदं तेषां राज्ञां वंशे महात्मनाम्।
महदुत्पन्नमाख्यानं रामायणमिति श्रुतम्॥३॥

इन्हीं इक्ष्वाकुवंशी महात्मा राजाओं की कुलपरम्परा में रामायण नाम से प्रसिद्ध इस महान् ऐतिहासिक काव्य की अवतारणा हुई है॥३॥

तदिदं वर्तयिष्यावः सर्वं निखिलमादितः।
धर्मकामार्थसहितं श्रोतव्यमनसूयता॥४॥

हम दोनों आदिसे अन्ततक इस सारे काव्यका पूर्णरूपसे गान करेंगे। इसके द्वारा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थोंकी सिद्धि होती है; अतः आपलोग दोषदृष्टिका परित्याग करके इसका श्रवण करें॥४॥

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वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ६

बालकाण्डम्
षष्ठः सर्गः (सर्ग 6)

( राजा दशरथ के शासनकाल में अयोध्या और वहाँ के नागरिकों की उत्तम स्थिति का वर्णन )

श्लोक:
तस्यां पुर्यामयोध्यायां वेदवित् सर्वसंग्रहः।
दीर्घदर्शी महातेजाः पौरजानपदप्रियः॥१॥

भावार्थ :-
उस अयोध्यापुरी में रहकर राजा दशरथ प्रजा वर्ग का पालन करते थे। वे वेदों के विद्वान् तथा सभी उपयोगी वस्तुओं का संग्रह करने वाले थे। दूरदर्शी और महान् तेजस्वी थे। नगर और जनपद की प्रजा उनसे बहुत प्रेम रखती थी॥१॥

श्लोक:
इक्ष्वाकूणामतिरथो यज्वा धर्मपरो वशी।
महर्षिकल्पो राजर्षिस्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः॥२॥

भावार्थ :-
वे इक्ष्वाकु कुल के अतिरथी* वीर थे। यज्ञ करने वाले, धर्म परायण और जितेन्द्रिय थे। महर्षियों के समान दिव्य गुण सम्पन्न राजर्षि थे। उनकी तीनों लोकों में ख्याति थी॥२॥
*(जो दस हजार महारथियों के साथ अकेला ही युद्ध करने में समर्थ हो, वह ‘अतिरथी’ कहलाता है।)

श्लोक:
बलवान् निहतामित्रो मित्रवान् विजितेन्द्रियः।
धनैश्च संचयैश्चान्यैः शक्रवैश्रवणोपमः॥३॥

भावार्थ :-
वे बलवान्, शत्रुहीन, मित्रों से युक्त एवं इन्द्रिय विजयी थे। धन और अन्य वस्तुओं के संचय की दृष्टि से इन्द्र और कुबेर के समान जान पड़ते थे॥३॥

श्लोक:
यथा मनुर्महातेजा लोकस्य परिरक्षिता।
तथा दशरथो राजा लोकस्य परिरक्षिता॥४॥

भावार्थ :-
जैसे महातेजस्वी प्रजापति मनु सम्पूर्ण जगत् की रक्षा करते थे, उसी प्रकार महाराज दशरथ भी करते थे॥४॥

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वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ७

बालकाण्डम्
सप्तमः सर्गः (सर्ग 7)

( राजमन्त्रियों के गुण और नीति का वर्णन )

श्लोक:
तस्यामात्या गुणैरासन्निक्ष्वाकोः सुमहात्मनः।
मन्त्रज्ञाश्चेङ्गितज्ञाश्च नित्यं प्रियहिते रताः॥१॥

भावार्थ :-
इक्ष्वाकुवंशी वीर महामना महाराज दशरथ के मन्त्रिजनोचित गुणों से सम्पन्न आठ मन्त्री थे, जो मन्त्र के तत्त्व को जानने वाले और बाहरी चेष्टा देखकर ही मन के भाव को समझ लेने वाले थे। वे सदा ही राजा के प्रिय एवं हित में लगे रहते थे॥१॥

श्लोक:
अष्टौ बभूवुर्वीरस्य तस्यामात्या यशस्विनः।
शुचयश्चानुरक्ताश्च राजकृत्येषु नित्यशः॥२॥

भावार्थ :-
इसीलिये उनका यश बहुत फैला हुआ था। वे सभी शुद्ध आचार विचार से युक्त थे और राजकीय कार्यों में निरन्तर संलग्न रहते थे॥२॥

श्लोक:
धृष्टिर्जयन्तो विजयः सुराष्ट्रो राष्ट्रवर्धनः।
अकोपो धर्मपालश्च सुमन्त्रश्चाष्टमोऽर्थवित्॥३॥

भावार्थ :-
उनके नाम इस प्रकार हैं- धृष्टि, जयन्त, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल और आठवें सुमन्त्र जो अर्थशास्त्र के ज्ञाता थे॥३॥

श्लोक:
ऋत्विजौ द्वावभिमतौ तस्यास्तामृषिसत्तमौ।
वसिष्ठो वामदेवश्च मन्त्रिणश्च तथापरे॥४॥

भावार्थ :-
ऋषियों में श्रेष्ठतम वसिष्ठ और वामदेव- ये दो महर्षि राजा के माननीय ऋत्विज् (पुरोहित) थे॥४॥

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वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ८

बालकाण्डम्
अष्टमः सर्गः (सर्ग 8)

( राजा दशरथ का पुत्र के लिये अश्वमेधयज्ञ करने का प्रस्ताव और मन्त्रियों तथा ब्राह्मणों द्वारा उनका अनुमोदन )

श्लोक:
तस्य चैवंप्रभावस्य धर्मज्ञस्य महात्मनः।

सुतार्थं तप्यमानस्य नासीद् वंशकरः सुतः॥१॥

भावार्थ :-
सम्पूर्ण धर्मो को जानने वाले महात्मा राजा दशरथ ऐसे प्रभावशाली होते हुए भी पुत्र के लिये सदा चिन्तित रहते थे। उनके वंश को चलाने वाला कोई पुत्र नहीं था॥१॥

श्लोक:
चिन्तयानस्य तस्यैवं बुद्धिरासीन्महात्मनः।

सुतार्थं वाजिमेधेन किमर्थं न यजाम्यहम्॥२॥

भावार्थ :-
उसके लिये चिन्ता करते-करते एक दिन उन महामनस्वी नरेश के मन में यह विचार हुआ कि मैं पुत्रप्राप्ति के लिये अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान क्यों न करूँ?॥२॥

श्लोक:
स निश्चितां मतिं कृत्वा यष्टव्यमिति बुद्धिमान्।

मन्त्रिभिः सह धर्मात्मा सर्वैरपि कृतात्मभिः॥३॥

भावार्थ :-
अपने समस्त शुद्ध बुद्धिवाले मन्त्रियों के साथ परामर्श पूर्वक यज्ञ करने का ही निश्चित विचार करके-॥३॥

श्लोक:
ततोऽब्रवीन्महातेजाः सुमन्त्रं मन्त्रिसत्तम।

शीघ्रमानय मे सर्वान् गुरूंस्तान् सपुरोहितान्॥४॥

भावार्थ :-
उन महातेजस्वी, बुद्धिमान् एवं धर्मात्मा राजा ने सुमन्त्र से कहा- ’मन्त्रिवर! तुम मेरे समस्त गुरुजनों एवं पुरोहितों को यहाँ शीघ्र बुला ले आओ’॥४॥

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वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ९

बालकाण्डम्
नवमः सर्गः (सर्ग 9)

( सुमन्त्र का दशरथ को ऋष्यशृंग मुनि को बुलाने की सलाह देते हुए उनके अंगदेश जाने और शान्ता से विवाह का प्रसंग सुनाना )

श्लोक:
एतच्छ्रुत्वा रहः सूतो राजानमिदमब्रवीत्।
श्रूयतां तत् पुरावृत्तं पुराणे च मया श्रुतम्॥१॥

भावार्थ :-
पुत्र के लिये अश्वमेध यज्ञ करने की बात सुनकर सुमन्त्र ने राजा से एकान्त में कहा- ’महाराज! एक पुराना इतिहास सुनिये। मैंने पुराण में भी इसका वर्णन सुना है॥१॥

श्लोक:
ऋत्विग्भिरुपदिष्टोऽयं पुरावृत्तो मया श्रुतः।
सनत्कुमारो भगवान् पूर्वं कथितवान् कथाम्॥२॥
ऋषीणां संनिधौ राजंस्तव पुत्रागमं प्रति।

भावार्थ :-
‘ऋत्विजों ने पुत्र-प्राप्ति के लिये इस अश्वमेध रूप उपाय का उपदेश किया है; परंतु मैंने इतिहास के रूप में कुछ विशेष बात सुनी है। राजन्! पूर्वकाल में भगवान् सनत्कुमार ने ऋषियों के निकट एक कथा सुनायी थी। वह आपकी पुत्रप्राप्ति से सम्बन्ध रखने वाली है॥२ १/२॥

श्लोक:
काश्यपस्य च पुत्रोऽस्ति विभाण्डक इति श्रुतः॥३॥
ऋष्यशृंग इति ख्यातस्तस्य पुत्रो भविष्यति।
स वने नित्यसंवृद्धो मुनिर्वनचरः सदा॥४॥

भावार्थ :-
‘उन्होंने कहा था, मुनिवरो! महर्षि काश्यप के विभाण्डक नाम से प्रसिद्ध एक पुत्र हैं। उनके भी एक पुत्र होगा, जिसकी लोगों में ऋष्यशृंग नाम से प्रसिद्धि होगी। वे ऋष्यशृंग मुनि सदा वन में ही रहेंगे और वन में ही सदा लालन-पालन पाकर वे बड़े होंगे॥३-४॥

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वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- 10

बालकाण्डम्
दशमः सर्गः (सर्ग 10)

( अंगदेश में ऋष्यश्रृंग के आने तथा शान्ता के साथ विवाह होने के प्रसंग का विस्तार के साथ वर्णन )

श्लोक:
सुमन्त्रश्चोदितो राज्ञा प्रोवाचेदं वचस्तदा।
यथर्ण्यश्रृंगस्त्वानीतो येनोपायेन मन्त्रिभिः।
तन्मे निगदितं सर्वं शृणु मे मन्त्रिभिः सह॥१॥

भावार्थ :-
राजा की आज्ञा पाकर उस समय सुमन्त्र ने इस प्रकार कहना आरम्भ किया- “राजन्! रोमपाद के मन्त्रियों ने ऋष्यशृंग को वहाँ जिस प्रकार और जिस उपाय से बुलाया था, वह सब मैं बता रहा हूँ। आप मन्त्रियों सहित मेरी बात सुनिये॥१॥

श्लोक:
रोमपादमुवाचेदं सहामात्यः पुरोहितः।
उपायो निरपायोऽयमस्माभिरभिचिन्तितः॥२॥

भावार्थ :-
“उस समय अमात्यो सहित पुरोहित ने राजा रोमपाद से कहा- ’महाराज! हम लोगों ने एक उपाय सोचा है, जिसे काम में लाने से किसी भी विघ्न-बाधा के आने की सम्भावना नहीं है॥२॥

श्लोक:
ऋष्यशृंगो वनचरस्तपःस्वाध्यायसंयुतः।
अनभिज्ञस्तु नारीणां विषयाणां सुखस्य च॥३॥

भावार्थ :-
“ऋष्यशृंग मुनि सदा वन में ही रहकर तपस्या और स्वाध्याय में लगे रहते हैं। वे स्त्रियों को पहचानते तक नहीं हैं और विषयों के सुख से भी सर्वथा अनभिज्ञ हैं॥३॥

श्लोक:
इन्द्रियार्थैरभिमतैर्नरचित्तप्रमाथिभिः।
पुरमानाययिष्यामः क्षिप्रं चाध्यवसीयताम्॥४॥

भावार्थ :-
“हम मनुष्यों के चित्त को मथ डालने वाले मनोवाञ्छित विषयों का प्रलोभन देकर उन्हें अपने नगर में ले आयेंगे; अतः इसके लिये शीघ्र प्रयत्न किया जाय॥४॥

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