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MNSGranth वैबसाइट को एडमिन ने पूर्वजों के द्वारा प्रदत्त संस्कारों के द्वारा निजी प्रयासों से प्रारम्भ किया है। जिससे की मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान का जीवन लोगों के द्वारा आसानी से पढ़ा और आत्मसात किया जा सके।

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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-

MNSGranth, पूर्ण रूप से इंटरनेट पर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम एवं श्रीकृष्ण से सम्बंधित ग्रंथों, स्तोत्रों का सबसे बड़ा संकलन है। यहाँ आपको श्री रामचरितमानस, वाल्मीकि रामायण, श्रीभगवद्गीता, श्री गरुड़पुराण का सभी विधाओं से पाठ और अर्थ सहित पढ़ने की सुविधा बिना किसी रजिस्ट्रेशन/ या शुल्क के प्रदान किया है।

विदेशों में जा बसे हमारे हिन्दू समाज के लिए हिन्दी के देवनागरी में प्रत्येक पदों के साथ अंग्रेजी में लिप्यंतरण एवं अनुवाद की सुविधा प्रदान कर उसे सुगम बनाने का यह प्रयास निःसंदेह अभी तक का पहला प्रयास है।

उदाहरण:

गीताप्रेस के रोमन संस्करण में भी मानस के अंग्रेजी अनुवाद को पदानुक्रम में नहीं दिया गया है अपितु दोहों के अंतर्गत सभी चौपाइयों को मिलाकर उसका सामूहिक अनुवाद किया गया है। यहाँ MNSGranth वैबसाइट पर प्रत्येक पद का अनुवाद हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओँ में उसके लिप्यांतरण को सुनिश्चित किया जा रहा है जिससे की प्राणिमात्र को भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण दोंनो को समझने और जीवन में उतारने में सुविधा हो।

इसके अलावा एडमिन का प्रयास है की श्रीरामचरितमानस, वाल्मीकि रामायण टीकाओं को भी उपलब्ध करा कर राम भक्ति की भावना के प्रवाह को जन जन तक पहुंचाने का भागीरथ प्रयास पूर्ण हो।

MNSGranth के माध्यम से सनातन धर्म के धार्मिक ग्रंथों को इंटरनेट पर अन्य भाषाओं में उपलब्ध करा हिन्दू धर्म की उत्कृष्ट सेवा का कार्य जारी है। धार्मिक ज्ञान से आप को और अधिक लाभ पहुंचाने हेतु इस कार्य में कुछ तकनीकी/ सामग्री संकलन हेतु कुछ लोग सैलरी पर भी कार्य करते हैं जिस जिम्मेदारी का निर्वहन एडमिन द्वारा किया जाता है।

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रामायण का विवरण

रामायण हिन्दू स्मृति का वह अंग हैं जिसके माध्यम से रघुवंश के राजा राम की गाथा कही गयी। यह आदि कवि वाल्मीकि द्वारा लिखा गया संस्कृत का एक अनुपम महाकाव्य है। इसके २४,००० श्लोक हैं। इसे आदिकाव्य तथा इसके रचयिता महर्षि वाल्मीकि को ‘आदिकवि’ भी कहा जाता है। रामायण के सात अध्याय हैं जो काण्ड के नाम से जाने जाते हैं।

रचनाकाल

कुछ भारतीय कहते हैं कि यह ६०० ईपू से पहले लिखा गया। उसके पीछे युक्ति यह है कि महाभारत जो इसके पश्चात आया बौद्ध धर्म के बारे में मौन है यद्यपि उसमें जैन, शैव, पाशुपत आदि अन्य परम्पराओं का वर्णन है। अतः रामायण गौतम बुद्ध के काल के पूर्व का होना चाहिये। भाषा-शैली से भी यह पाणिनि के समय से पहले का होना चाहिये।

रामायण का पहला और अन्तिम कांड संभवत: बाद में जोड़ा गया था। अध्याय दो से सात तक ज्यादातर इस बात पर बल दिया जाता है कि राम विष्णु के अवतार थे। कुछ लोगों के अनुसार इस महाकाव्य में यूनानी और कई अन्य सन्दर्भों से पता चलता है कि यह पुस्तक दूसरी सदी ईसा पूर्व से पहले की नहीं हो सकती पर यह धारणा विवादास्पद है। ६०० ईपू से पहले का समय इसलिये भी ठीक है कि बौद्ध जातक रामायण के पात्रों का वर्णन करते हैं जबकि रामायण में जातक के चरित्रों का वर्णन नहीं है।

हिन्दू कालगणना के अनुसार रचनाकाल

रामायण का समय त्रेतायुग का माना जाता है। भारतीय कालगणना के अनुसार समय को चार युगों में बाँटा गया है- सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग एव कलियुग। एक कलियुग ४,३२,००० वर्ष का, द्वापर ८,६४,००० वर्ष का, त्रेता युग १२,९६,००० वर्ष का तथा सतयुग १७,२८,००० वर्ष का होता है। इस गणना के अनुसार रामायण का समय न्यूनतम ८,७०,००० वर्ष (वर्तमान कलियुग के ५,118 वर्ष + बीते द्वापर युग के ८,६४,००० वर्ष) सिद्ध होता है।

रामायण मीमांसा के रचनाकार धर्मसम्राट स्वामी करपात्री, गोवर्धन पुरी शंकराचार्य पीठ, पं० ज्वालाप्रसाद मिश्र, श्रीराघवेंद्रचरितम् के रचनाकार श्रीभागवतानंद गुरु आदि के अनुसार श्रीराम अवतार श्वेतवाराह कल्प के सातवें वैवस्वत मन्वन्तर के चौबीसवें त्रेता युग में हुआ था जिसके अनुसार श्रीरामचंद्र जी का काल लगभग पौने दो करोड़ वर्ष पूर्व का है। इसके सन्दर्भ में विचार पीयूष, भुशुण्डि रामायण, पद्मपुराण, हरिवंश पुराण, वायु पुराण, संजीवनी रामायण एवं पुराणों से प्रमाण दिया जाता है।

राम कथा

सनातन धर्म के धार्मिक लेखक तुलसीदास जी के अनुसार सर्वप्रथम श्री राम की कथा भगवान श्री शंकर ने माता पार्वती जी को सुनायी थी। जहाँ पर भगवान शंकर पार्वती जी को भगवान श्री राम की कथा सुना रहे थे वहाँ कागा (कौवा) का एक घोंसला था और उसके भीतर बैठा कागा भी उस कथा को सुन रहा था। कथा पूरी होने के पहले ही माता पार्वती को नींद आ गई पर उस पक्षी ने पूरी कथा सुन ली। उसी पक्षी का पुनर्जन्म काकभुशुण्डि[घ] के रूप में हुआ। काकभुशुण्डि जी ने यह कथा गरुड़ जी को सुनाई। भगवान श्री शंकर के मुख से निकली श्रीराम की यह पवित्र कथा अध्यात्म रामायण के नाम से प्रख्यात है। अध्यात्म रामायण को ही विश्व का सर्वप्रथम रामायण माना जाता है।

हृदय परिवर्तन हो जाने के कारण एक दस्यु से ऋषि बन जाने तथा ज्ञान प्राप्ति के बाद वाल्मीकि ने भगवान श्री राम के इसी वृतान्त को पुनः श्लोकबद्ध किया। महर्षि वाल्मीकि के द्वारा श्लोकबद्ध भगवान श्री राम की कथा को वाल्मीकि रामायण के नाम से जाना जाता है। वाल्मीकि को आदिकवि कहा जाता है तथा वाल्मीकि रामायण को आदि रामायण के नाम से भी जाना जाता है।

देश में विदेशियों की सत्ता हो जाने के बाद संस्कृत का ह्रास हो गया[कृपया उद्धरण जोड़ें] और भारतीय लोग उचित ज्ञान के अभाव तथा विदेशी सत्ता के प्रभाव के कारण अपनी ही संस्कृति को भूलने लग गये। ऐसी स्थिति को अत्यन्त विकट जानकर जनजागरण के लिये महाज्ञानी सन्त श्री तुलसीदास जी ने एक बार फिर से भगवान श्री राम की पवित्र कथा को देशी भाषा में लिपिबद्ध किया। सन्त तुलसीदास जी ने अपने द्वारा लिखित भगवान श्री राम की कल्याणकारी कथा से परिपूर्ण इस ग्रंथ का नाम रामचरितमानस रखा। सामान्य रूप से रामचरितमानस को तुलसी रामायण के नाम से जाना जाता है।

कालान्तर में भगवान श्री राम की कथा को अनेक विद्वानों ने अपने अपने बुद्धि, ज्ञान तथा मतानुसार अनेक बार लिखा है। इस तरह से अनेकों रामायणों की रचनाएँ हुई हैं।

टिप्पणी

क.      ‘रामायण’ का संधि विच्छेद करने है ‘राम’ + ‘अयन’। ‘अयन’ का अर्थ है ‘यात्रा’ इसलिये रामायण का अर्थ है राम की यात्रा।
ख.      इसमें ४,८०,००२ शब्द हैं जो महाभारत का चौथाई है।
ग.      पद्मपुराण, श्रीमद्भागवत पुराण, कूर्मपुराण, महाभारत, आनन्द रामायण, दशावतारचरित एवं रामचरितमानस में राम के विष्णु का अवतार होने का स्पष्ट उल्लेख है, किन्तु वाल्मीकि रामायण में केवल इसका संकेत मात्र ही है।
घ.      काकभुशुण्डि की विस्तृत कथा का वर्णन तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड के दोहा क्रमांक ९६ से दोहा क्रमांक ११५ तक में किया है।
ङ.      रामचरितमानस = राम + चरित + मानस, रामचरितमानस का अर्थ है राम के चरित्र का सरोवर। रामचरितमानस के बालकाण्ड के दोहा क्रमांक ३५ से दोहा क्रमांक ४२ में तुलसीदास जी ने इस सरोवर के स्वरूप का वर्णन किया है।
च.      “आचार्य चतुरसेन” ने अपने ग्रंथ ‘वयं रक्षामः’ में राक्षसजाति एवं राक्षस संस्कृति का विस्तृत वर्णन किया है।

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