संपूर्ण कवच “भ” से “व” तक

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॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ श्री कमलापति नम: ॥
॥ श्री जानकीवल्लभो विजयते ॥
॥ श्री गुरूदेवाय नमः ॥
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संपूर्ण कवच “भ” से “व” तक

संपूर्ण कवच “भ” से “व” तक कवच

आपके चारों ओर नकारात्मकता को खत्म करने के लिए एक शक्तिशाली मंत्रो के संग्रह को कवच कहते है। यह किसी भी बुरी आत्माओं से रक्षा करने में एक कवच के रूप में कार्य करता है।
मंत्रो में नकारात्मक, प्रतिकूल कंपन को अधिक सकारात्मक और आकर्षक कंपन में बदलने की क्षमता होती है। ऐसा कहा जाता है कि वह व्यक्ति जो ईमानदारी से भक्ति और सही उच्चारण के साथ नियमित रूप से कवच को पढ़ता है, वह सभी बुराइयों से संरक्षित रहता है।

भैरव कवच

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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-

भैरव कवच भगवान की कृपा प्राप्त करने का और अपने शरीर की तथा अपने घर की सुरक्षा करने का अमोघ अस्त्र है। इस का प्रतिदिन पाठ करे और परिणाम स्वयं देखे कितना प्रभावशाली है यह कवच

ॐ सहस्त्रारे महाचक्रे कर्पूरधवले गुरुः।
पातु मां बटुको देवो भैरवः सर्वकर्मसु॥

पूर्वस्यामसितांगो मां दिशि रक्षतु सर्वदा।
आग्नेयां च रुरुः पातु दक्षिणे चण्ड भैरवः॥

नैॠत्यां क्रोधनः पातु उन्मत्तः पातु पश्चिमे।
वायव्यां मां कपाली च नित्यं पायात् सुरेश्वरः॥

भीषणो भैरवः पातु उत्तरास्यां तु सर्वदा।
संहार भैरवः पायादीशान्यां च महेश्वरः॥

ऊर्ध्वं पातु विधाता च पाताले नन्दको विभुः।
सद्योजातस्तु मां पायात् सर्वतो देवसेवितः॥

रामदेवो वनान्ते च वने घोरस्तथावतु।
जले तत्पुरुषः पातु स्थले ईशान एव च॥

डाकिनी पुत्रकः पातु पुत्रान् में सर्वतः प्रभुः।
हाकिनी पुत्रकः पातु दारास्तु लाकिनी सुतः॥

पातु शाकिनिका पुत्रः सैन्यं वै कालभैरवः।
मालिनी पुत्रकः पातु पशूनश्वान् गंजास्तथा॥

महाकालोऽवतु क्षेत्रं श्रियं मे सर्वतो गिरा।
वाद्यम् वाद्यप्रियः पातु भैरवो नित्यसम्पदा॥

मंगल ग्रह कवच

अथ

अस्य श्री मंगलकवचस्तोत्रमंत्रस्य कश्यप ऋषिः।
अनुष्टुप् छन्दः। अङ्गारको देवता।
भौम पीडापरिहारार्थं जपे विनियोगः।
रक्तांबरो रक्तवपुः किरीटी चतुर्भुजो मेषगमो गदाभृत्।
धरासुतः शक्तिधरश्च शूली सदा ममस्याद्वरदः प्रशांतः॥

अंगारकः शिरो रक्षेन्मुखं वै धरणीसुतः।
श्रवौ रक्तांबरः पातु नेत्रे मे रक्तलोचनः॥

नासां शक्तिधरः पातु मुखं मे रक्तलोचनः।
भुजौ मे रक्तमाली च हस्तौ शक्तिधरस्तथा॥

वक्षः पातु वरांगश्च हृदयं पातु लोहितः।
कटिं मे ग्रहराजश्च मुखं चैव धरासुतः॥

जानुजंघे कुजः पातु पादौ भक्तप्रियः सदा।
सर्वण्यन्यानि चांगानि रक्षेन्मे मेषवाहनः॥

या इदं कवचं दिव्यं सर्वशत्रु निवारणम्।
भूतप्रेतपिशाचानां नाशनं सर्व सिद्धिदम्॥

सर्वरोगहरं चैव सर्वसंपत्प्रदं शुभम्।
भुक्तिमुक्तिप्रदं नृणां सर्वसौभाग्यवर्धनम्॥

रोगबंधविमोक्षं च सत्यमेतन्न संशयः॥

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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-

॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे मंगल ग्रह कवच संपूर्णं ॥

|| महागौरी देवी कवच ||

ओंकार: पातुशीर्षोमां, हीं बीजंमां हृदयो।
क्लीं बीजं सदा पातु नभो गृहोच पादयो॥

ललाट कर्णो, हूं, बीजंपात महागौरीमां नेत्र घ्राणों।
कपोल चिबुकोफट् पातुस्वाहा मां सर्ववदनो॥

महाकाली कवच

|| भैरव्युवाच ||

काली पूजा श्रुता नाथ भावाश्च विविधाः प्रभो।
इदानीं श्रोतु मिच्छामि कवचं पूर्व सूचितम्॥

त्वमेव शरणं नाथ त्राहि माम् दुःख संकटात्।
सर्व दुःख प्रशमनं सर्व पाप प्रणाशनम्॥

सर्व सिद्धि प्रदं पुण्यं कवचं परमाद्भुतम्।
अतो वै श्रोतुमिच्छामि वद मे करुणानिधे॥

|| भैरवोवाच ||

रहस्यं श्रृणु वक्ष्यामि भैरवि प्राण वल्लभे।
श्री जगन्मङ्गलं नाम कवचं मंत्र विग्रहम्॥

पाठयित्वा धारयित्वा त्रौलोक्यं मोहयेत्क्षणात्।
नारायणोऽपि यद्धत्वा नारी भूत्वा महेश्वरम्॥

योगिनं क्षोभमनयत् यद्धृत्वा च रघूद्वहः।
वरदीप्तां जघानैव रावणादि निशाचरान्॥

यस्य प्रसादादीशोऽपि त्रैलोक्य विजयी प्रभुः।
धनाधिपः कुबेरोऽपि सुरेशोऽभूच्छचीपतिः।
एवं च सकला देवाः सर्वसिद्धिश्वराः प्रिये॥

|| विनियोग ||

ॐ श्री जगन्मङ्गलस्याय कवचस्य ऋषिः शिवः।
छ्न्दोऽनुष्टुप् देवता च कालिका दक्षिणेरिता॥

जगतां मोहने दुष्ट विजये भुक्तिमुक्तिषु।
यो विदाकर्षणे चैव विनियोगः प्रकीर्तितः॥

|| अथ कवचम् ||

शिरो मे कालिकां पातु क्रींकारैकाक्षरीपर।
क्रीं क्रीं क्रीं मे ललाटं च कालिका खड्‌गधारिणी॥

हूं हूं पातु नेत्रयुग्मं ह्नीं ह्नीं पातु श्रुति द्वयम्।
दक्षिणे कालिके पातु घ्राणयुग्मं महेश्वरि॥

क्रीं क्रीं क्रीं रसनां पातु हूं हूं पातु कपोलकम्।
वदनं सकलं पातु ह्णीं ह्नीं स्वाहा स्वरूपिणी॥

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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-

द्वाविंशत्यक्षरी स्कन्धौ महाविद्यासुखप्रदा।
खड्‌गमुण्डधरा काली सर्वाङ्गभितोऽवतु॥

क्रीं हूं ह्नीं त्र्यक्षरी पातु चामुण्डा ह्रदयं मम।
ऐं हूं ऊं ऐं स्तन द्वन्द्वं ह्नीं फट् स्वाहा ककुत्स्थलम्॥

अष्टाक्षरी महाविद्या भुजौ पातु सकर्तुका।
क्रीं क्रीं हूं हूं ह्नीं ह्नीं पातु करौ षडक्षरी मम॥

क्रींनाभिं मध्यदेशं च दक्षिणे कालिकेऽवतु।
क्रीं स्वाहा पातु पृष्ठं च कालिका सा दशाक्षरी॥

क्रींमे गुह्नं सदा पातु कालिकायै नमस्ततः।
सप्ताक्षरी महाविद्या सर्वतंत्रेषु गोपिता॥

ह्नीं ह्नीं दक्षिणे कालिके हूं हूं पातु कटिद्वयम्।
काली दशाक्षरी विद्या स्वाहान्ता चोरुयुग्मकम्॥

ॐ ह्नीं क्रींमे स्वाहा पातु जानुनी कालिका सदा।
काली ह्रन्नामविधेयं चतुवर्ग फलप्रदा॥

क्रीं ह्नीं ह्नीं पातु सा गुल्फं दक्षिणे कालिकेऽवतु।
क्रीं हूं ह्नीं स्वाहा पदं पातु चतुर्दशाक्षरी मम॥

खड्‌गमुण्डधरा काली वरदाभयधारिणी।
विद्याभिः सकलाभिः सा सर्वाङ्गमभितोऽवतु॥

काली कपालिनी कुल्ला कुरुकुल्ला विरोधिनी।
विपचित्ता तथोग्रोग्रप्रभा दीप्ता घनत्विषः॥

नीला घना वलाका च मात्रा मुद्रा मिता च माम्।
एताः सर्वाः खड्‌गधरा मुण्डमाला विभूषणाः॥

रक्षन्तु मां दिग्निदिक्षु ब्राह्मी नारायणी तथा।
माहेश्वरी च चामुण्डा कौमारी चापराजिता॥

वाराही नारसिंही च सर्वाश्रयऽति भूषणाः।
रक्षन्तु स्वायुधेर्दिक्षुः दशकं मां यथा तथा॥

|| प्रतिफलम् ||

इति ते कथित दिव्य कवचं परमाद्भुतम्।
श्री जगन्मङ्गलं नाम महामंत्रौघ विग्रहम्॥

त्रैलोक्याकर्षणं ब्रह्मकवचं मन्मुखोदितम्।
गुरु पूजां विधायाथ विधिवत्प्रपठेत्ततः॥

कवचं त्रिःसकृद्वापि यावज्ज्ञानं च वा पुनः।
एतच्छतार्धमावृत्य त्रैलोक्य विजयी भवेत्॥

त्रैलोक्यं क्षोभयत्येव कवचस्य प्रसादतः।
महाकविर्भवेन्मासात् सर्वसिद्धीश्वरो भवेत्॥

पुष्पाञ्जलीन् कालिका यै मुलेनैव पठेत्सकृत्।
शतवर्ष सहस्त्राणाम पूजायाः फलमाप्नुयात्॥

भूर्जे विलिखितं चैतत् स्वर्णस्थं धारयेद्यदि।
शिखायां दक्षिणे बाहौ कण्ठे वा धारणाद् बुधः॥

त्रैलोक्यं मोहयेत्क्रोधात् त्रैलोक्यं चूर्णयेत्क्षणात्।
पुत्रवान् धनवान् श्रीमान् नानाविद्या निधिर्भवेत्॥

ब्रह्मास्त्रादीनि शस्त्राणि तद् गात्र स्पर्शवात्ततः।
नाशमायान्ति सर्वत्र कवचस्यास्य कीर्तनात्॥

मृतवत्सा च या नारी वन्ध्या वा मृतपुत्रिणी।
कण्ठे वा वामबाहौ वा कवचस्यास्य धारणात्॥

वह्वपत्या जीववत्सा भवत्येव न संशयः।
न देयं परशिष्येभ्यो ह्यभक्तेभ्यो विशेषतः॥

शिष्येभ्यो भक्तियुक्तेभ्यो ह्यन्यथा मृत्युमाप्नुयात्।
स्पर्शामुद्‌धूय कमला वाग्देवी मन्दिरे मुखे।
पौत्रान्तं स्थैर्यमास्थाय निवसत्येव निश्चितम्॥

इदं कवचं न ज्ञात्वा यो जपेद्दक्षकालिकाम्।
शतलक्षं प्रजप्त्वापि तस्य विद्या न सिद्धयति।
शस्त्रघातमाप्नोति सोऽचिरान्मृत्युमाप्नुयात्॥

॥ इति महाकाली कवच समाप्त ॥

यक्षिणी कवच

।। श्री उन्मत्त-भैरव उवाच ।।

श्रृणु कल्याणि! मद्-वाक्यं, कवचं देव-दुर्लभं।
यक्षिणी-नायिकानां तु,संक्षेपात् सिद्धि-दायकं॥

हे कल्याणि! देवताओं को दुर्लभ, संक्षेप (शीघ्र) में सिद्धि देने वाले, यक्षिणी आदि नायिकाओं के कवच को सुनो–

ज्ञान-मात्रेण देवशि! सिद्धिमाप्नोति निश्चितं।
यक्षिणि स्वयमायाति,

||कवच-ज्ञान-मात्रतः||

हे देवशि! इस कवच के ज्ञान-मात्र से यक्षिणी स्वयं आ जाती है और निश्चय ही सिद्धि मिलती है। सर्वत्र दुर्लभं देवि! डामरेषु प्रकाशितं। पठनात् धारणान्मर्त्यो,

|| यक्षिणी-वशमानयेत् ||

हे देवी! यह कवच सभी शास्त्रों में दुर्लभ है, केवल डामर-तन्त्रों में प्रकाशित किया गया है। इसके पाठ और लिखकर धारण करने से यक्षिणी वश में होती है।

विनियोग :-

ॐ अस्य श्रीयक्षिणी-कवचस्य श्रीगर्ग ऋषिः, गायत्री छन्दः, श्री अमुकी यक्षिणी देवता, साक्षात् सिद्धि-समृद्धयर्थे पाठे विनियोगः।

ऋष्यादिन्यासः-

श्रीगर्ग ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, श्री अमुकी यक्षिणी देवतायै नमः हृदि, साक्षात् सिद्धि-समृद्धयर्थे पाठे विनियोगाय नमः सर्वांगे।

।। मूल पाठ ।।

शिरो मे यक्षिणी पातु, ललाटं यक्ष-कन्यका।
मुखं श्री धनदा पातु, कर्णौ मे कुल-नायिका॥

चक्षुषी वरदा पातु, नासिकां भक्त-वत्सला।
केशाग्रं पिंगला पातु, धनदा श्रीमहेश्वरी॥

स्कन्धौ कुलालपा पातु, गलं मे कमलानना।
किरातिनी सदा पातु, भुज-युग्मं जटेश्वरी॥

विकृतास्या सदा पातु, महा-वज्र-प्रिया मम।
अस्त्र-हस्ता पातु नित्यं, पृष्ठमुदर-देशकम्॥

मेरे सिर की रक्षा यक्षिणि, ललाट (मस्तक) की यक्ष-कन्या, मुख की श्री धनदा और कानों की रक्षा कुल-नायिका करें।

आँखों की रक्षा वरदा, नासिका की भक्त-वत्सला करे। धन देनेवाली श्रीमहेश्वरी पिंगला केशों के आगे के भाग की रक्षा करे।

कन्धों की रक्षा किलालपा, गले की कमलानना करें। दोनों भुजाओं की रक्षा किरातिनी और जटेश्वरी करें।

विकृतास्या और महा-वज्र-प्रिया सदा मेरी रक्षा करें। अस्त्र-हस्ता सदा पीठ और उदर (पेट) की रक्षा करें।

भेरुण्डा माकरी देवी, हृदयं पातु सर्वदा।
अलंकारान्विता पातु, मे नितम्ब-स्थलं दया॥धार्मिका गुह्यदेशं मे, पाद-युग्मं सुरांगना।
शून्यागारे सदा पातु, मन्त्र-माता-स्वरुपिणी॥निष्कलंका सदा पातु, चाम्बुवत्यखिलं तनुं।
प्रान्तरे धनदा पातु, निज-बीज-प्रकाशिनी॥लक्ष्मी-बीजात्मिका पातु, खड्ग-हस्ता श्मशानके।
शून्यागारे नदी-तीरे, महा-यक्षेश-कन्यका॥पातु मां वरदाख्या मे, सर्वांगं पातु मोहिनी।
महा-संकट-मध्ये तु, संग्रामे रिपु-सञ्चये॥क्रोध-रुपा सदा पातु, महा-देव निषेविका।
सर्वत्र सर्वदा पातु, भवानी कुल-दायिका॥

हृदय की रक्षा सदा भयानक स्वरुपवाली माकरी देवी तथा नितम्ब-स्थल की रक्षा अलंकारों से सजी हुई दया करें। गुह्य-देश (गुप्तांग) की रक्षा धार्मिका और दोनों पैरों की रक्षा सुरांगना करें। सूने घर (या ऐसा कोई भी स्थान, जहाँ कोई दूसरा आदमी न हो) में मन्त्र-माता-स्वरुपिणी (जो सभी मन्त्रों की माता-मातृका के स्वरुप वाली है) सदा मेरी रक्षा करें। मेरे सारे शरीर की रक्षा निष्कलंका अम्बुवती करें। अपने बीज (मन्त्र) को प्रकट करने वाली धनदा प्रान्तर (लम्बे और सूनसान मार्ग, जन-शून्य या विरान सड़क, निर्जन भू-खण्ड) में रक्षा करें। लक्ष्मी-बीज (श्रीं) के स्वरुप वाली खड्ग-हस्ता श्मशआन में और शून्य भवन (खण्डहर आदि) तथा नदी के किनारे महा-यक्षेश-कन्या मेरी रक्षा करें। वरदा मेरी रक्षा करें। सर्वांग की रक्षा मोहिनी करें। महान संकट के समय, युद्ध में और शत्रुओं के बीच में महा-देव की सेविका क्रोध-रुपा सदा मेरी रक्षा करें। सभी जगह सदैव किल-दायिका भवानी मेरी रक्षा करें।

इत्येतत् कवचं देवि! महा-यक्षिणी-प्रीतिवं। अस्यापि स्मरणादेव, राजत्वं लभतेऽचिरात्॥पञ्च-वर्ष-सहस्राणि, स्थिरो भवति भू-तले।
वेद-ज्ञानी सर्व-शास्त्र-वेत्ता भवति निश्चितम्॥अरण्ये सिद्धिमाप्नोति, महा-कवच-पाठतः।
यक्षिणी कुल-विद्या च, समायाति सु-सिद्धदा॥अणिमा-लघिमा-प्राप्तिः सुख-सिद्धि-फलं लभेत्।
पठित्वा धारयित्वा च, निर्जनेऽरण्यमन्तरे॥स्थित्वा जपेल्लक्ष-मन्त्र मिष्ट-सिद्धिं लभेन्निशि।
भार्या भवति सा देवी, महा-कवच-पाठतः॥ग्रहणादेव सिद्धिः स्यान्, नात्र कार्या विचारणा॥

हे देवी! यह कवच महा-यक्षिणी की प्रीति देनेवाला है। इसके स्मरण मात्र से साधक शीघ्र ही राजा के समान हो जाता है। कवच का पाठ-कर्त्ता पाँच हजार वर्षों तक भूमि पर जीवित रहता है, और अवश्य ही वेदों तथा अन्य सभी शास्त्रों का ज्ञाता हो जाता है। अरण्य (वन, जंगल) में इस महा-कवच का पाठ करने से सिद्धि मिलती है। कुल-विद्या यक्षिणी स्वयं आकर अणिमा, लघिमा, प्राप्ति आदि सभी सिद्धियाँ और सुख देती है। कवच (लिखकर) धारण करके तथा पाठ करके रात्रि में निर्जन वन के भीतर बैठकर (अभीष्ट) यक्षिणि के मन्त्र का १ लाख जप करने से इष्ट-सिद्धि होती है। इस महा-कवच का पाठ करने से वह देवी साधक की भार्या (पत्नी) हो जाती है। इस कवच को ग्रहण करने से सिद्धि मिलती है इसमें कोई विचार करने की आवश्यकता नहीं है।

।। इति वृहद्-भूत-डामरे महा-तन्त्रे श्रीमदुन्मत्त-भैरवी-भैरव-सम्वादे यक्षिणी-नायिका-कवचम् ।।

महालक्ष्मी कवच

सर्व सम्पत्प्रदस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः।
ऋषिश्छन्दश्च बृहती देवी पद्मालया स्वयम्॥1॥

धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः।
पुण्यबीजं च महतां कवचं परमाद्भुतम्॥2॥

ॐ ह्रीं कमलवासिन्यै स्वाहा मे पातु मस्तकम्।
श्रीं मे पातु कपालं च लोचने श्रीं श्रियै नमः॥3॥

ॐ श्रीं श्रियै स्वाहेति च कर्णयुग्मं सदावतु।
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै स्वाहा मे पातु नासिकाम्॥4॥

ॐ श्रीं पद्मालयायै च स्वाहा दन्तं सदावतु।
ॐ श्रीं कृष्णप्रियायै च दन्तरन्ध्रं सदावतु॥5॥

ॐ श्रीं नारायणेशायै मम कण्ठं सदावतु।
ॐ श्रीं केशवकान्तायै मम स्कन्धं सदावतु॥6॥

ॐ श्रीं पद्मनिवासिन्यै स्वाहा नाभिं सदावतु।
ॐ ह्रीं श्रीं संसारमात्रे मम वक्षः सदावतु॥7॥

ॐ श्रीं श्रीं कृष्णकान्तायै स्वाहा पृष्ठं सदावतु।
ॐ ह्रीं श्रीं श्रियै स्वाहा मम हस्तौ सदावतु॥8॥

ॐ श्रीं निवासकान्तायै मम पादौ सदावतु।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं श्रियै स्वाहा सर्वांगं मे सदावतु॥9॥

प्राच्यां पातु महालक्ष्मीराग्नेय्यां कमलालया।
पद्मा मां दक्षिणे पातु नैर्ऋत्यां श्रीहरिप्रिया॥10॥

पद्मालया पश्चिमे मां वायव्यां पातु श्रीः स्वयम्।
उत्तरे कमला पातु ऐशान्यां सिन्धुकन्यका॥11॥

नारायणेशी पातूर्ध्वमधो विष्णुप्रियावतु।
संततं सर्वतः पातु विष्णुप्राणाधिका मम॥12॥

इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम्।
सर्वैश्वर्यप्रदं नाम कवचं परमाद्भुतम्॥13॥

सुवर्णपर्वतं दत्त्वा मेरुतुल्यं द्विजातये।
यत् फलं लभते धर्मी कवचेन ततोऽधिकम्॥14॥

गुरुमभ्यर्च्य विधिवत् कवचं धारयेत् तु यः।
कण्ठे वा दक्षिणे वाहौ स श्रीमान् प्रतिजन्मनि॥15॥

अस्ति लक्ष्मीर्गृहे तस्य निश्चला शतपूरुषम्।
देवेन्द्रैश्चासुरेन्द्रैश्च सोऽत्रध्यो निश्चितं भवेत्॥16॥

स सर्वपुण्यवान् धीमान् सर्वयज्ञेषु दीक्षितः।
स स्नातः सर्वतीर्थेषु यस्येदं कवचं गले॥17॥

यस्मै कस्मै न दातव्यं लोभमोहभयैरपि।
गुरुभक्ताय शिष्याय शरणाय प्रकाशयेत्॥18॥

इदं कवचमज्ञात्वा जपेल्लक्ष्मीं जगत्प्सूम्।
कोटिसंख्यं प्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः॥19॥

महाविद्या कवच

श्रृणु देवि। प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वसिद्धिदम्।
आद्दाया महाविद्या: सर्वाभीष्ट फलप्रदम्॥1॥कवचस्य ऋषिर्देवि। सदाशिव इतिरित:, छन्दोंऽनुष्टुब् देवता च महाविद्या प्रकीर्तिता।
धर्मार्थ काममोक्षाणां विनियोगस्य साधने॥2॥ऐंकार: पातु शीर्षे मां कामबीजं तथा हृदि।
रमा बीजं सदा पातु नाभौ गुह् च पादये:॥3॥ललाटे सुन्दरी पातु उग्रा मां कण्ठ देशत:।
भगमाला सर्व्वगात्रे लिंगे चैतन्यरूपिणी॥4॥पूर्वे मां पातु वाराही ब्रह्माणी दक्षिणे तथा।
उत्तरे वैष्णवी पातु चन्द्राणी पश्चिमेऽवतु॥5॥महेश्वरी च आग्नेय्यां नैऋत्ये कमला तथा।
वायव्यां पातु कौमारी चामुण्डा ईशकेऽवतु॥6॥इदं कवचमज्ञात्वा महाविद्याञ्च यो जपेत्।
न फलं जायते तस्य कल्पकोटिशतैरपि॥7॥

माँ तारा कवच

ॐ कारो मे शिर: पातु ब्रह्मारूपा महेश्वरी।
ह्रींकार: पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी॥

स्त्रीन्कार: पातु वदने लज्जारूपा महेश्वरी।
हुन्कार: पातु ह्रदये भवानीशक्तिरूपधृक्।
फट्कार: पातु सर्वांगे सर्वसिद्धिफलप्रदा॥

नीला मां पातु देवेशी गंडयुग्मे भयावहा।
लम्बोदरी सदा पातु कर्णयुग्मं भयावहा॥

व्याघ्रचर्मावृत्तकटि: पातु देवी शिवप्रिया।
पीनोन्नतस्तनी पातु पाशर्वयुग्मे महेश्वरी॥

रक्त वर्तुलनेत्रा च कटिदेशे सदाऽवतु।
ललज्जिहव सदा पातु नाभौ मां भुवनेश्वरी॥

करालास्या सदा पातु लिंगे देवी हरप्रिया।
पिंगोग्रैकजटा पातु जन्घायां विघ्ननाशिनी॥

खड्गहस्ता महादेवी जानुचक्रे महेश्वरी।
नीलवर्णा सदा पातु जानुनी सर्वदा मम॥

नागकुंडलधर्त्री च पातु पादयुगे तत:।
नागहारधरा देवी सर्वांग पातु सर्वदा॥

।। इति माँ तारा कवच समाप्त ।।

माँ तारा प्रत्यंगिरा कवच

|| ईश्वर उवाच ||

ॐ तारायाः स्तम्भिनी देवी मोहिनी क्षोभिनी तथा । हस्तिनी भ्रामिनी रौद्री संहारण्यापि तारिणी ॥

शक्तयोहष्टौ क्रमादेता शत्रुपक्षे नियोजिताः । धारिता साधकेन्द्रेण सर्वशत्रु निवारिणी ॥

|| कवचमारम्भम् ||

ॐस्तम्भिनी स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् स्तम्भय स्तम्भय ॥

ॐ क्षोभिनी स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् क्षोभय क्षोभय ॥

ॐ मोहिनी स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् मोहय मोहय ॥

ॐजृम्भिनी स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् जृम्भय जृम्भय ॥

ॐ भ्रामिनी स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् भ्रामय भ्रामय ॥

ॐ रौद्री स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् सन्तापय सन्तापय ॥

ॐसंहारिणी स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् संहारय संहारय ॥

ॐ तारिणी स्त्रें स्त्रें सर्वपद्भ्यः सर्वभूतेभ्यः सर्वत्र रक्ष रक्ष मां स्वाहा ॥

|| फलश्रुति ||

य इमां धारयेत् विद्यां त्रिसन्ध्यं वापि यः पठेत् । स दुःखं दूरतस्त्यक्त्वा ह्यन्याच्छ्त्रुन् न संशयः ॥

रणे राजकुले दुर्गे महाभये विपत्तिषु । विद्या प्रत्यङ्गिरा ह्येषा सर्वतो रक्षयेन्नरं ॥

अनया विद्यया रक्षां कृत्वा यस्तु पठेत् सुधी । मन्त्राक्षरमपि ध्यायन् चिन्तयेत् नीलसरस्वतीं ।

अचिरे नैव तस्यासन् करस्था सर्वसिद्धयः, ॐ ह्रीं उग्रतारायै नीलसरस्वत्यै नमः ॥

इमं स्तवं धीयानो नित्यं धारयेन्नरः । सर्वतः सुखमाप्नोति सर्वत्रजयमाप्नुयात् ॥

नक्कापि भयमाप्नोति सर्वत्रसुखमाप्नुयात् ॥

॥ इति रुद्रयामले श्रीमदुग्रताराय प्रत्यङ्गिरा कवच समाप्तम् ॥

मातंगी कवच

श्री देव्युवाच:

साधु-साधु महादेव। कथयस्व सुरेश्वर।
मातंगी-कवचं दिव्यं, सर्व-सिद्धि-करं नृणाम् ॥

श्री-देवी ने कहा – हे महादेव। हे सुरेश्वर। मनुष्यों को सर्व-सिद्धि-प्रददिव्य मातंगी-कवच अति उत्तम है, उस कवच को मुझसे कहिए।

श्री ईश्वर उवाच:

श्रृणु देवि। प्रवक्ष्यामि, मातंगी-कवचं शुभं।
गोपनीयं महा-देवि। मौनी जापं समाचरेत् ॥

ईश्वर ने कहा – हे देवि। उत्तम मातंगी-कवच कहता हूँ, सुनो। हे महा-देवि। इस कवच को गुप्त रखना, मौनी होकर जप करना।

विनियोग :

ॐ अस्य श्रीमातंगी-कवचस्य श्री दक्षिणा-मूर्तिः ऋषिः । विराट् छन्दः । श्रीमातंगी देवता । चतुर्वर्ग-सिद्धये जपे विनियोगः ।

ऋष्यादि-न्यास:

श्री दक्षिणा-मूर्तिः ऋषये नमः शिरसि ।
विराट् छन्दसे नमः मुखे ।
श्रीमातंगी देवतायै नमः हृदि ।
चतुर्वर्ग-सिद्धये जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।

मूल कवच-स्तोत्र:

ॐ शिरो मातंगिनी पातु, भुवनेशी तु चक्षुषी ।
तोडला कर्ण-युगलं, त्रिपुरा वदनं मम ॥
पातु कण्ठे महा-माया, हृदि माहेश्वरी तथा ।
त्रि-पुष्पा पार्श्वयोः पातु, गुदे कामेश्वरी मम ॥
ऊरु-द्वये तथा चण्डी, जंघयोश्च हर-प्रिया ।
महा-माया माद-युग्मे, सर्वांगेषु कुलेश्वरी ॥
अंग प्रत्यंगकं चैव, सदा रक्षतु वैष्णवी ।
ब्रह्म-रन्घ्रे सदा रक्षेन्, मातंगी नाम-संस्थिता ॥
रक्षेन्नित्यं ललाटे सा, महा-पिशाचिनीति च ।
नेत्रयोः सुमुखी रक्षेत्, देवी रक्षतु नासिकाम् ॥
महा-पिशाचिनी पायान्मुखे रक्षतु सर्वदा ।
लज्जा रक्षतु मां दन्तान्, चोष्ठौ सम्मार्जनी-करा ॥
चिबुके कण्ठ-देशे च, ठ-कार-त्रितयं पुनः ।
स-विसर्ग महा-देवि । हृदयं पातु सर्वदा ॥
नाभि रक्षतु मां लोला, कालिकाऽवत् लोचने ।
उदरे पातु चामुण्डा, लिंगे कात्यायनी तथा ॥
उग्र-तारा गुदे पातु, पादौ रक्षतु चाम्बिका ।
भुजौ रक्षतु शर्वाणी, हृदयं चण्ड-भूषणा ॥
जिह्वायां मातृका रक्षेत्, पूर्वे रक्षतु पुष्टिका ।
विजया दक्षिणे पातु, मेधा रक्षतु वारुणे ॥
नैर्ऋत्यां सु-दया रक्षेत्, वायव्यां पातु लक्ष्मणा ।
ऐशान्यां रक्षेन्मां देवी, मातंगी शुभकारिणी ॥
रक्षेत् सुरेशी चाग्नेये, बगला पातु चोत्तरे ।
ऊर्घ्वं पातु महा-देवि । देवानां हित-कारिणी ॥
पाताले पातु मां नित्यं, वशिनी विश्व-रुपिणी ।
प्रणवं च ततो माया, काम-वीजं च कूर्चकं ॥
मातंगिनी ङे-युताऽस्त्रं, वह्नि-जायाऽवधिर्पुनः ।
सार्द्धेकादश-वर्णा सा, सर्वत्र पातु मां सदा ॥

फल-श्रुति:

इति ते कथितं देवि । गुह्यात् गुह्य-तरं परमं ।
त्रैलोक्य-मंगलं नाम, कवचं देव-दुर्लभम् ॥
यः इदं प्रपठेत् नित्यं, जायते सम्पदालयं ।
परमैश्वर्यमतुलं, प्राप्नुयान्नात्र संशयः ॥
गुरुमभ्यर्च्य विधि-वत्, कवचं प्रपठेद् यदि ।
ऐश्वर्यं सु-कवित्वं च, वाक्-सिद्धिं लभते ध्रुवम् ॥
नित्यं तस्य तु मातंगी, महिला मंगलं चरेत् ।
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च, ये देवा सुर-सत्तमाः ॥
ब्रह्म-राक्षस-वेतालाः, ग्रहाद्या भूत-जातयः ।
तं दृष्ट्वा साधकं देवि । लज्जा-युक्ता भवन्ति ते ॥
कवचं धारयेद् यस्तु, सर्वां सिद्धि लभेद् ध्रुवं ।
राजानोऽपि च दासत्वं, षट्-कर्माणि च साधयेत् ॥
सिद्धो भवति सर्वत्र, किमन्यैर्बहु-भाषितैः ।
इदं कवचमज्ञात्वा, मातंगीं यो भजेन्नरः ॥
झल्पायुर्निधनो मूर्खो, भवत्येव न संशयः ।
गुरौ भक्तिः सदा कार्या, कवचे च दृढा मतिः ॥

यक्षिणी कवच

।। श्री उन्मत्त-भैरव उवाच ।।

श्रृणु कल्याणि ! मद्-वाक्यं, कवचं देव-दुर्लभं ।
यक्षिणी-नायिकानां तु,संक्षेपात् सिद्धि-दायकं ।।

हे कल्याणि ! देवताओं को दुर्लभ, संक्षेप (शीघ्र) में सिद्धि देने वाले,
यक्षिणी आदि नायिकाओं के कवच को सुनो –

ज्ञान-मात्रेण देवशि ! सिद्धिमाप्नोति निश्चितं ।
यक्षिणि स्वयमायाति,

||कवच-ज्ञान-मात्रतः||

हे देवशि ! इस कवच के ज्ञान-मात्र से यक्षिणी स्वयं आ जाती है और निश्चय
ही सिद्धि मिलती है ।सर्वत्र दुर्लभं देवि ! डामरेषु प्रकाशितं । पठनात् धारणान्मर्त्यो,

||यक्षिणी-वशमानयेत्||

हे देवि ! यह कवच सभी शास्त्रों में दुर्लभ है, केवल डामर-तन्त्रों में
प्रकाशित किया गया है । इसके पाठ और लिखकर धारण करने से यक्षिणी वश में होती है ।

विनियोग :-

ॐ अस्य श्रीयक्षिणी-कवचस्य श्रीगर्ग ऋषिः, गायत्री छन्दः,
श्री अमुकी यक्षिणी देवता, साक्षात् सिद्धि-समृद्धयर्थे पाठे विनियोगः ।

ऋष्यादिन्यासः-

श्रीगर्ग ऋषये नमः शिरसि,
गायत्री छन्दसे नमः मुखे,
श्री अमुकी यक्षिणी देवतायै नमः हृदि,
साक्षात् सिद्धि-समृद्धयर्थे पाठे
विनियोगाय नमः सर्वांगे।

।। मूल पाठ ।।

शिरो मे यक्षिणी पातु, ललाटं यक्ष-कन्यका ।
मुखं श्री धनदा पातु, कर्णौ मे कुल-नायिका ।।

चक्षुषी वरदा पातु, नासिकां भक्त-वत्सला ।
केशाग्रं पिंगला पातु, धनदा श्रीमहेश्वरी ।।

स्कन्धौ कुलालपा पातु, गलं मे कमलानना ।
किरातिनी सदा पातु, भुज-युग्मं जटेश्वरी ।।

विकृतास्या सदा पातु, महा-वज्र-प्रिया मम ।
अस्त्र-हस्ता पातु नित्यं, पृष्ठमुदर-देशकम् ।।

मेरे सिर की रक्षा यक्षिणि, ललाट (मस्तक) की यक्ष-कन्या,
मुख की श्री धनदा और कानों की रक्षा कुल-नायिका करें ।

आँखों की रक्षा वरदा, नासिका की भक्त-वत्सला करे ।
धन देनेवाली श्रीमहेश्वरी पिंगला केशों के आगे के भाग की रक्षा करे ।

कन्धों की रक्षा किलालपा, गले की कमलानना करें ।
दोनों भुजाओं की रक्षा किरातिनी और जटेश्वरी करें ।

विकृतास्या और महा-वज्र-प्रिया सदा मेरी रक्षा करें ।
अस्त्र-हस्ता सदा पीठ और उदर (पेट) की रक्षा करें ।

भेरुण्डा माकरी देवी, हृदयं पातु सर्वदा ।
अलंकारान्विता पातु, मे नितम्ब-स्थलं दया ।।
धार्मिका गुह्यदेशं मे, पाद-युग्मं सुरांगना ।
शून्यागारे सदा पातु, मन्त्र-माता-स्वरुपिणी ।।
निष्कलंका सदा पातु, चाम्बुवत्यखिलं तनुं ।
प्रान्तरे धनदा पातु, निज-बीज-प्रकाशिनी ।।
लक्ष्मी-बीजात्मिका पातु, खड्ग-हस्ता श्मशानके ।
शून्यागारे नदी-तीरे, महा-यक्षेश-कन्यका ।।
पातु मां वरदाख्या मे, सर्वांगं पातु मोहिनी ।
महा-संकट-मध्ये तु, संग्रामे रिपु-सञ्चये ।।
क्रोध-रुपा सदा पातु, महा-देव निषेविका ।
सर्वत्र सर्वदा पातु, भवानी कुल-दायिका ।।

हृदय की रक्षा सदा भयानक स्वरुपवाली माकरी देवी तथा
नितम्ब-स्थल की रक्षा अलंकारों से सजी हुई दया करें।
गुह्य-देश (गुप्तांग) की रक्षा धार्मिका और दोनों पैरों की रक्षा सुरांगना करें।
सूने घर (या ऐसा कोई भी स्थान, जहाँ कोई दूसरा आदमी न हो) में मन्त्र-माता-स्वरुपिणी
(जो सभी मन्त्रों की माता-मातृका के स्वरुप वाली है) सदा मेरी रक्षा करें।
मेरे सारे शरीर की रक्षा निष्कलंका अम्बुवती करें।
अपने बीज (मन्त्र) को प्रकट करने वाली धनदा प्रान्तर
(लम्बे और सूनसान मार्ग, जन-शून्य या विरान सड़क, निर्जन भू-खण्ड) में रक्षा करें।
लक्ष्मी-बीज (श्रीं) के स्वरुप वाली खड्ग-हस्ता श्मशआन में और शून्य भवन (खण्डहर आदि) तथा नदी के किनारे महा-यक्षेश-कन्या मेरी रक्षा करें।
वरदा मेरी रक्षा करें। सर्वांग की रक्षा मोहिनी करें।
महान संकट के समय, युद्ध में और शत्रुओं के बीच में महा-देव की सेविका
क्रोध-रुपा सदा मेरी रक्षा करें।
सभी जगह सदैव किल-दायिका भवानी मेरी रक्षा करें।
इत्येतत् कवचं देवि ! महा-यक्षिणी-प्रीतिवं ।
अस्यापि स्मरणादेव, राजत्वं लभतेऽचिरात् ।।
पञ्च-वर्ष-सहस्राणि, स्थिरो भवति भू-तले ।
वेद-ज्ञानी सर्व-शास्त्र-वेत्ता भवति निश्चितम् ।
अरण्ये सिद्धिमाप्नोति, महा-कवच-पाठतः ।
यक्षिणी कुल-विद्या च, समायाति सु-सिद्धदा ।।
अणिमा-लघिमा-प्राप्तिः सुख-सिद्धि-फलं लभेत् ।
पठित्वा धारयित्वा च, निर्जनेऽरण्यमन्तरे ।।
स्थित्वा जपेल्लक्ष-मन्त्र मिष्ट-सिद्धिं लभेन्निशि ।
भार्या भवति सा देवी, महा-कवच-पाठतः ।।
ग्रहणादेव सिद्धिः स्यान्, नात्र कार्या विचारणा ।।

हे देवी ! यह कवच महा-यक्षिणी की प्रीति देनेवाला है।
इसके स्मरण मात्र से साधक शीघ्र ही राजा के समान हो जाता है।
कवच का पाठ-कर्त्ता पाँच हजार वर्षों तक भूमि पर जीवित रहता है,
और अवश्य ही वेदों तथा अन्य सभी शास्त्रों का ज्ञाता हो जाता है।
अरण्य (वन, जंगल) में इस महा-कवच का पाठ करने से सिद्धि मिलती है।
कुल-विद्या यक्षिणी स्वयं आकर अणिमा, लघिमा, प्राप्ति आदि सभी सिद्धियाँ और सुख देती है।
कवच (लिखकर) धारण करके तथा पाठ करके रात्रि में निर्जन वन के भीतर बैठकर (अभीष्ट) यक्षिणि के मन्त्र का १ लाख जप करने से इष्ट-सिद्धि होती है।
इस महा-कवच का पाठ करने से वह देवी साधक की भार्या (पत्नी) हो जाती है।
इस कवच को ग्रहण करने से सिद्धि मिलती है इसमें कोई विचार करने की आवश्यकता नहीं है ।

।। इति वृहद्-भूत-डामरे महा-तन्त्रे श्रीमदुन्मत्त-भैरवी-भैरव-सम्वादे यक्षिणी-नायिका-कवचम् ।।

राहु ग्रह कवच

अथ 

अस्य श्रीराहुकवचस्तोत्रमंत्रस्य चंद्रमा ऋषिः ।
अनुष्टुप छन्दः । रां बीजं । नमः शक्तिः ।
स्वाहा कीलकम् । राहुप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः ॥
प्रणमामि सदा राहुं शूर्पाकारं किरीटिन् ॥
सैन्हिकेयं करालास्यं लोकानाम भयप्रदम् ॥ १ ॥
निलांबरः शिरः पातु ललाटं लोकवन्दितः ।
चक्षुषी पातु मे राहुः श्रोत्रे त्वर्धशरीरवान् ॥ २ ॥
नासिकां मे धूम्रवर्णः शूलपाणिर्मुखं मम ।
जिव्हां मे सिंहिकासूनुः कंठं मे कठिनांघ्रीकः ॥ ३ ॥
भुजङ्गेशो भुजौ पातु निलमाल्याम्बरः करौ ।
पातु वक्षःस्थलं मंत्री पातु कुक्षिं विधुंतुदः ॥ ४ ॥
कटिं मे विकटः पातु ऊरु मे सुरपूजितः ।
स्वर्भानुर्जानुनी पातु जंघे मे पातु जाड्यहा ॥ ५ ॥
गुल्फ़ौ ग्रहपतिः पातु पादौ मे भीषणाकृतिः ।
सर्वाणि अंगानि मे पातु निलश्चंदनभूषण: ॥ ६ ॥
राहोरिदं कवचमृद्धिदवस्तुदं यो ।
भक्ता पठत्यनुदिनं नियतः शुचिः सन् ।
प्राप्नोति कीर्तिमतुलां श्रियमृद्धिमायु
रारोग्यमात्मविजयं च हि तत्प्रसादात् ॥ ७ ॥
॥ इति राहु कवच संपूर्णं ॥

रूद्रयामल तन्त्रोक्तं कालिका कवच

|| विनियोग ||

ॐ अस्य श्री कालिका कवचस्य भैरव ऋषिः,

अनुष्टुप छंदः, श्री कालिका देवता,

शत्रुसंहारार्थ जपे विनियोगः ।

|| ध्यानम् ||

ध्यायेत् कालीं महामायां त्रिनेत्रां बहुरूपिणीं।

चतुर्भुजां ललज्जिह्वां पूर्णचन्द्रनिभाननां।।

नीलोत्पलदलश्यामां शत्रुसंघविदारिणीं।

नरमुण्डं तथा खड्गं कमलं च वरं तथा।।

निर्भयां रक्तवदनां दंष्ट्रालीघोररूपिणीं।

साट्टहासाननां देवी सर्वदा च दिगम्बरीम्।।

शवासनस्थितां कालीं मुण्डमालाविभूषिताम्।

इति ध्यात्वा महाकालीं ततस्तु कवचं पठेत्।।

|| कवचं ||

ऊँ कालिका घोररूपा सर्वकामप्रदा शुभा ।

सर्वदेवस्तुता देवी शत्रुनाशं करोतु मे ।।

ॐ ह्रीं ह्रीं रूपिणीं चैव ह्रां ह्रीं ह्रां रूपिणीं तथा ।

ह्रां ह्रीं क्षों क्षौं स्वरूपा सा सदा शत्रून विदारयेत् ।।

श्रीं ह्रीं ऐंरूपिणी देवी भवबन्धविमोचिनी।

हुँरूपिणी महाकाली रक्षास्मान् देवि सर्वदा ।।

यया शुम्भो हतो दैत्यो निशुम्भश्च महासुरः।

वैरिनाशाय वंदे तां कालिकां शंकरप्रियाम ।।

ब्राह्मी शैवी वैष्णवी च वाराही नारसिंहिका।

कौमार्यैर्न्द्री च चामुण्डा खादन्तु मम विदिवषः।।

सुरेश्वरी घोर रूपा चण्ड मुण्ड विनाशिनी।

मुण्डमालावृतांगी च सर्वतः पातु मां सदा।।

ह्रीं ह्रीं ह्रीं कालिके घोरे दंष्ट्र व रुधिरप्रिये ।

रुधिरापूर्णवक्त्रे च रुधिरेणावृतस्तनी ।।

“ मम शत्रून् खादय खादय हिंस हिंस मारय मारय

भिन्धि भिन्धि छिन्धि छिन्धि उच्चाटय उच्चाटय

द्रावय द्रावय शोषय शोषय स्वाहा ।

ह्रां ह्रीं कालीकायै मदीय शत्रून् समर्पयामि स्वाहा ।

ऊँ जय जय किरि किरि किटी किटी कट कट मदं

मदं मोहयय मोहय हर हर मम रिपून् ध्वंस ध्वंस भक्षय

भक्षय त्रोटय त्रोटय यातुधानान् चामुण्डे सर्वजनान् राज्ञो

राजपुरुषान् स्त्रियो मम वश्यान् कुरु कुरु तनु तनु धान्यं

धनं मेsश्वान गजान् रत्नानि दिव्यकामिनी: पुत्रान्

राजश्रियं देहि यच्छ क्षां क्षीं क्षूं क्षैं क्षौं क्षः स्वाहा ।”

इत्येतत् कवचं दिव्यं कथितं शम्भुना पुरा ।

ये पठन्ति सदा तेषां ध्रुवं नश्यन्ति शत्रव: ।।

वैरणि: प्रलयं यान्ति व्याधिता वा भवन्ति हि ।

बलहीना: पुत्रहीना: शत्रवस्तस्य सर्वदा ।।

सह्रस्त्रपठनात् सिद्धि: कवचस्य भवेत्तदा ।

तत् कार्याणि च सिद्धयन्ति यथा शंकरभाषितम् ।।

श्मशानांग-र्-मादाय चूर्ण कृत्वा प्रयत्नत: ।

पादोदकेन पिष्ट्वा तल्लिखेल्लोहशलाकया ।।

भूमौ शत्रून् हीनरूपानुत्तराशिरसस्तथा ।

हस्तं दत्तवा तु हृदये कवचं तुं स्वयं पठेत् ।।

शत्रो: प्राणप्रतिष्ठां तु कुर्यान् मन्त्रेण मन्त्रवित् ।

हन्यादस्त्रं प्रहारेण शत्रो ! गच्छ यमक्षयम् ।।

ज्वलदंग-र्-तापेन भवन्ति ज्वरिता भृशम् ।

प्रोञ्छनैर्वामपादेन दरिद्रो भवति ध्रुवम् ।।

वैरिनाश करं प्रोक्तं कवचं वश्यकारकम् ।

परमैश्वर्यदं चैव पुत्र-पुत्रादिवृद्धिदम् ।।

प्रभातसमये चैव पूजाकाले च यत्नत: ।

सायंकाले तथा पाठात् सर्वसिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् ।।

शत्रूरूच्चाटनं याति देशाद वा विच्यतो भवेत् ।

प्रश्चात् किं-ग्-करतामेति सत्यं-सत्यं न संशय: ।।

शत्रुनाशकरे देवि सर्वसम्पत्करे शुभे ।

सर्वदेवस्तुते देवि कालिके त्वां नमाम्यहम् ।।

।। रूद्रयामल तन्त्रोक्तं कालिका कवचम् समाप्त:।।

लक्ष्मी कवच

श्रीमधुसूदन उवाच:

गृहाण कवचं शक्र सर्वदुःखविनाशनम्।
परमैश्वर्यजनकं सर्वशत्रुविमर्दनम्॥
ब्रह्मणे च पुरा दत्तं संसारे च जलप्लुते।
यद् धृत्वा जगतां श्रेष्ठः सर्वैश्वर्ययुतो विधिः॥
बभूवुर्मनवः सर्वे सर्वैश्वर्ययुतो यतः।
सर्वैश्वर्यप्रदस्यास्य कवचस्य ऋषिर्विधि॥
पङ्क्तिश्छन्दश्च सा देवी स्वयं पद्मालया सुर।
सिद्धैश्वर्यजपेष्वेव विनियोगः प्रकीर्तित॥
यद् धृत्वा कवचं लोकः सर्वत्र विजयी भवेत्॥

मूल कवच पाठ:

मस्तकं पातु मे पद्मा कण्ठं पातु हरिप्रिया।
नासिकां पातु मे लक्ष्मीः कमला पातु लोचनम्॥
केशान् केशवकान्ता च कपालं कमलालया।
जगत्प्रसूर्गण्डयुग्मं स्कन्धं सम्पत्प्रदा सदा॥
ॐ श्रीं कमलवासिन्यै स्वाहा पृष्ठं सदावतु।
ॐ श्रीं पद्मालयायै स्वाहा वक्षः सदावतु॥
पातु श्रीर्मम कंकालं बाहुयुग्मं च ते नमः॥
ॐ ह्रीं श्रीं लक्ष्म्यै नमः पादौ पातु मे संततं चिरम्।
ॐ ह्रीं श्रीं नमः पद्मायै स्वाहा पातु नितम्बकम्॥
ॐ श्रीं महालक्ष्म्यै स्वाहा सर्वांगं पातु मे सदा।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै स्वाहा मां पातु सर्वतः॥

फलश्रुति:

इति ते कथितं वत्स सर्वसम्पत्करं परम्। सर्वैश्वर्यप्रदं नाम कवचं परमाद्भुतम्॥
गुरुमभ्यर्च्य विधिवत् कवचं शरयेत्तु यः। कण्ठे वा दक्षिणे बांहौ स सर्वविजयी भवेत्॥
महालक्ष्मीर्गृहं तस्य न जहाति कदाचन। तस्य छायेव सततं सा च जन्मनि जन्मनि॥
इदं कवचमज्ञात्वा भजेल्लक्ष्मीं सुमन्दधीः। शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः॥

॥इति श्रीब्रह्मवैवर्ते इन्द्रं प्रति हरिणोपदिष्टं लक्ष्मीकवचं॥

लक्ष्मी नारायण कवच

।।पूर्व-पीठिका-श्रीभैरव उवाच।।

अधुना देवि ! वक्ष्यामि, लक्ष्मी-नारायणस्य ते । कवचं मन्त्र-गर्भं च, वज्र-पञ्जरकाख्यया ।।1

श्रीवज्र-पञ्जरं नाम, कवचं परमाद्भुतम । रहस्यं सर्व-देवानां, साधकानां विशेषतः ।।2

यं धृत्वा भगवान् देवः, प्रसीदति परः पुमान् । यस्य धारण-मात्रेण, ब्रह्मा लोक-पितामहः ।।3

ईश्वरोऽहं शिवो भीमो, वासवोऽपि दिवस्पतिः । सूर्यस्तेजो-निधिर्देवि ! चन्द्रमास्तारकेश्वरः ।।4

वायुश्च बलवांल्लोके, वरुणो यादसांपतिः । कुबेरोऽपि धनाध्यक्षो, धर्मराजो यमः स्मृतः ।।5

यं धृत्वा सहसा विष्णुः, संहरिष्यति दानवान् । जघान रावणादींश्च, किं वक्ष्येऽहमतः परम् ।।6

कवचस्यास्य सुभगे ! कथितोऽयं मुनिः शिवः । त्रिष्टुप् छन्दो देवता च, लक्ष्मी-नारायणो मतः ।।7

रमा बीजं परा शक्तिस्तारं कीलकमीश्वरि ! । भोगापवर्ग-सिद्धयर्थं, विनियोग इति स्मृतः ।।8

सीधे हाथ में जल लेकर विनियोग पढ़कर जल भूमि पर छोड़ दे।

विनियोगः-

ॐ अस्य श्रीलक्ष्मी-नारायण-कवचस्य शिव ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, श्रीलक्ष्मी-नारायण देवता, श्रीं बीजं, ह्रीं शक्तिः, ॐ कीलकं, भोगापवर्ग-सिद्धयर्थं कवच-पाठे विनियोगः।

ऋष्यादि-न्यासः

श्रीशिव ऋषये नमः शिरसि, त्रिष्टुप् छन्दसे नमः मुखे,

श्रीलक्ष्मी-नारायण देवतायै नमः

हृदि, श्रीं बीजाय नमः गुह्ये,

ह्रीं शक्तये नमः नाभौ,

ॐ कीलकाय नमः पादयो,

भोगापवर्ग-सिद्धयर्थं कवच-पाठे विनियोगाय नमः अञ्जलौ।

ध्यानः

पूर्णेन्दु-वदनं पीत-वसनं कमलासनम् ।

लक्ष्म्याश्रितं चतुर्बाहुं, लक्ष्मी-नारायणं भजे ।।

‘मानस-पूजन’ कर ‘कवच-पाठ‘ करे ।

।।मूल कवच-पाठ।।

ॐ वासुदेवोऽवतु मे, मस्तकं सशिरोरुहम् । ह्रीं ललाटं सदा पातु, लक्ष्मी-विष्णुः समन्ततः ।।1

हसौः नेत्रेऽवताल्लक्ष्मी-गोविन्दो जगतां पतिः । ह्रीं नासां सर्वदा पातु, लक्ष्मी-दामोदरः प्रभुः ।।2

श्रीं मुखं सततं पातु, देवो लक्ष्मी-त्रिविक्रमः । लक्ष्मी कण्ठं सदा पातु, देवो लक्ष्मी-जनार्दनः ।।3

नारायणाय बाहू मे, पातु लक्ष्मी गदाग्रजः । नमः पार्श्वौ सदा पातु, लक्ष्मी-नन्दैक-नन्दनः ।।4

अंआंइंईं पातु वक्षो, ॐ लक्ष्मी-त्रिपुरेश्वरः । उंऊंऋंॠं पातु कुक्षिं, ह्रीं लक्ष्मी-गरुड़-ध्वजः ।।5

लृंॡंएंऐं पातु पृष्ठं, हसौः लक्ष्मी-नृसिंहकः । ॐॐअंअः पातु नाभिं, ह्रीं लक्ष्मी-विष्टरश्रवः ।।6

कंखंगंघं गुदं पातु, श्रीं लक्ष्मी-कैटभान्तकः । चंछंजंझं पातु शिश्नं, लक्ष्मी लक्ष्मीश्वरः प्रभुः ।।7

टंठंडंढं कटिं पातु, नारायणाय नायकः । तंथंदंधं पातु चोरु, नमो लक्ष्मी-जगत्पतिः ।।8

पंफंबंभं पातु जानू, ॐ ह्रीं लक्ष्मी-चतुर्भुजः । यंरंलंवं पातु जंघे, हसौः लक्ष्मी-गदाधरः ।।9

शंषंसंहं पातु गुल्फौ, ह्रीं श्रीं लक्ष्मी-रथांगभृत् । ळंक्षं पादौ सदा पातु, मूलं लक्ष्मी-सहस्त्रपात् ।।10

ङंञंणंनंमं मे पातु, लक्ष्मीशः सकलं वपुः । इन्द्रो मां पूर्वतः पातु, वह्निर्वह्नौ सदाऽवतु ।।11

यमो मां दक्षिणे पातु, नैर्ऋत्यां निर्ऋतिश्च माम् । वरुणः पश्चिमेऽव्यान्मां, वायव्येऽवतु मां मरुत् ।।12

उत्तरे धनदः पायादैशान्यामीश्वरोऽवतु । वज्र-शक्ति-दण्ड-खड्ग-पाश-यष्टि-ध्वजांकिताः ।।13

सशूलाः सर्वदा पान्तु, दिगीशाः परमार्थदाः । अनन्तः पात्वधो नित्यमूर्ध्वे ब्रह्मावताच्च माम् ।।14

दश-दिक्षु सदा पातु, लक्ष्मी-नारायणः प्रभुः । प्रभाते पातु मां विष्णुर्मध्याह्ने वासुदेवकः ।।15

दामोदरोऽवतात् सायं, निशादौ नरसिंहकः । संकर्षणोऽर्धरात्रेऽव्यात्, प्रभातेऽव्यात् त्रिविक्रमः ।।16

अनिरुद्धः सर्व-कालं, विश्वक्-सेनश्च सर्वतः । रणे राज-कुले द्युते, विवादे शत्रु-संकटे ।ॐ ह्रींहसौः ह्रींश्रींमूलं, लक्ष्मी-नारायणोऽवतु ।।17

ॐॐॐ रण-राज-चौर-रिपुतः पायाच्च मां केशवः, ह्रींह्रींह्रींहहहाहसौः हसहसौ वह्नेर्वतान्माधवः ।

ह्रींह्रींह्रींजल-पर्वताग्र-भयतः पायादनन्तो विभुः, श्रींश्रींश्रींशशशाललं प्रति-दिनं लक्ष्मीधवः पातु माम् ।।18

।।फल-श्रुति।।

इतीदं कवचं दिव्यं, वज्र-पञ्जरकाभिधम् । लक्ष्मी-नारायणस्थेष्टं, चतुर्वर्ग-फल-प्रदम् ।।1

सर्व-सौभाग्य-निलयं, सर्व-सारस्वत-प्रदम् । लक्ष्मी-संवननं तत्त्वं, परमार्थ-रसायनम् ।।2

मन्त्र-गर्भं जगत्-सारं, रहस्यं त्रिदिवौकसाम् । दश-वारं पठिद्रात्रौ, रतान्ते वैष्णवोत्तमः ।।3

स्वप्ने वर-प्रदं पश्येल्लक्ष्मी-नारायणं सुधीः । त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं, कवचं मन्मुखोदितम् ।।4

स याति परमं धाम, वैष्णवं वैष्णवोत्तमः । महा-चीन-पदस्थोऽपि यः, पठेदात्म-चिन्तकः ।।5

आनन्द-पूरितस्तूर्णं, लभेद् मोक्षं स साधकः । गन्धाष्टकेन विलिखेद्रवौ भुर्जे जपन्मनुम् ।।6

पीत-सूत्रेण संवेष्ट्य, सौवर्णेनाथ वेष्टयेत् । धारयेद्-गुटिकां मूर्घ्नि, लक्ष्मी-नारायणं स्मरन् ।।7

रणे रिपून् विजित्याशु, कल्याणी गृहमाविशेत् । वन्ध्या वा काक-वन्ध्या वा, मृत-वत्सा च यांगना ।।8

सा बध्नीयात् कण्ठ-देशे, लभेत् पुत्रांश्चिरायुषः । गुरुपदेशतो धृत्वा, गुरुं ध्यात्वा मनुं जपन् ।।9

वर्ण-लक्ष-पुरश्चर्या-फलमाप्नोति साधकः । बहुनोक्तेन किं देवि ! कवचस्यास्य पार्वति ! ।।10

विनानेन न सिद्धिः स्यान्मन्त्रस्यास्य महेश्वरि ! । सर्वागम-रहस्याढ्यं, तत्त्वात् तत्त्वं परात् परम् ।।11

अभक्ताय न दातव्यं, कुचैलाय दुरात्मने । दीक्षिताय कुलीनाय, स्व-शिष्याय महात्मने ।।12

महा-चीन-पदस्थाय, दातव्यं कवचोत्तमम् । गुह्यं गोप्यं महा-देवि ! लक्ष्मी-नारायण-प्रियम् ।

वज्र-पञ्जरकं वर्म, गोपनीयं स्व-योनि-वत् ।।13

।।श्रीरुद्रयामले तन्त्रे श्रीलक्ष्मी-नारायण-कवचं।।

वराह कवच

अध्यं रन्गमिथि प्रोक्थं विमानं रङ्ग संग्निथं,

श्री मुष्णं, वेन्कतद्रि च सलग्रमं च नैमिसं,

थोथद्रीं पुष्करं चैव नर नारायनस्रमं,

आश्तौ मय मुर्थय संथि स्वयम् व्यक्था महि थाले|

श्री सुथ :

श्री रुद्र निर्नीथ मुररि गुण सतः सागर,

संथुष्ट परवथि प्राह संकरं, लोक संकरं |

श्री पार्वती उबाच :

श्री मुष्णेसस्य महाथ्म्यं, वराहस्य महत्ह्मन,

श्रुथ्व थ्रुप्थिर न मय जथ मन कौथुहलयथे,

स्रोथुं थाधेव महाथ्म्यं, थास्माद वर्णया मय पुन|

श्री शंकर उवाच :

शृणु देवी प्रवक्ष्यामि, श्री मुष्णस्य वैभवं,

यस्य श्रवण मथ्रेण महा पापै प्रमुच्यथे।

सर्वेषां एव थीर्थानां थीर्थ रजो अभिधीयथे,

नित्य पुष्करिणी नाम्नि श्री मुष्णो य च वर्थाथे,

जथ स्रमपाह पुण्य वराहस्रम वारिणा।

विष्णोर अन्गुष्ट सं स्पर्सणतः पुण्यधा खलु जःणवी,

विष्णो सर्वाङ्ग संभूथ, नित्य पुष्करिणी शुभ।

महा नाधि सहस्रेण निथ्यध संगध शुभ,

सकृतः स्नथ्व विमुक्थाघ, साध्यो यदि हरे पदं।

थस्य अज्ञेय भागे थु अस्वथ् चय योधके,

स्नानं क्रुथ्व पिप्पलस्य क्रुथ्व च अभि प्रदक्षिणं.

ड्रुश्त्व श्वेथ वराहं च मासमेकं नयेध्यधि,

कला मृत्यु विनिर्जिथ्य, श्रिया परमया सुथा।

अधि व्याधि विनिर्मुक्थो ग्रहं पीडा विवर्जिथ,

उक्थ्व भोगान अनेकंस्च मोक्षमन्थे व्रजेतः द्रुवं.

आश्र्वथ मूले अर्क वरे नित्य पुष्क्सरिणी तते,

वराह कवचं जप्थ्व साथ वरं जिथेन्द्रिय.

क्षय अपस्मार कुष्टद्यै महा रोगै प्रमुच्यथे,

वराह कवचं यस्थु प्रथ्याहं पदाथे यथि.

शत्रु पीडा विनिर्मुक्थो भूपथिथ्वम् आप्नुयतः,

ळिखिथ्व धरयेध्यस्थु बहु मूले गलेधव.

भूथ प्रेथ पिसचध्य यक्ष गन्धर्व राक्षस,

शथ्रुवो गोर कर्मणो येअ चान्यै विष जन्थाव,

नष्ट धरप विनस्यन्थि विद्रवन्थि धिसो दस

श्री पार्वती उबाच:

ततः ब्रूहि कवचं मह्यं येन गुप्तः जगथ्रये.

संचरेतः देव वन मर्थ्य सर्व शत्रु विभीषण,

येन आप्नोथि च साम्राज्यं थान्मे ब्रूहि सदा शिव.

श्री शंकर उवाच :

शृणु कल्याणि वक्ष्यामि वरकवचं शुभं,

येन गुप्थो लबेतः मर्त्यो विजयं सर्व संपदं.

अन्गरक्षकरं पुण्यं महा पथक नासनं,

सर्व रोग प्रसमानं, सर्व दुर्ग्रःअनासनं.

विष अभिचार कृथ्यधि शत्रु पीडा निवारणं,

नोक्थं कस्यापि पूर्व हि गोप्यतः गोप्यथारं यदा.

वराहेण पुरा प्रोक्थं मह्यं च परमेष्तिने,

युधेषु जयधं देवी शत्रु पीडा निवारणं.

वराह कवचातः गुप्थो न शुभं लभाथे नर,

वराह कवचस्यस्य ऋषिर ब्रह्म प्रकीर्थिथ,

चन्धो अनुष्टुप् तधा देवो वराहो भू परिग्रह,

प्रक्षाल्य पधौ पाणि च संयगचम्य वारिणा.

अङ्ग कर न्यास स पवित्र उदन्ग मुख,

ॐ भूर भुव सुवरिथि नमो भू पथ येऽपि च.

तथो भग्वथे पश्चाद वराहाय नमस्त्धा,

येवं षडङ्गं न्यासं च न्यसेद अङ्गुलीषु क्रमतः.

नाम स्वेथवरहय महा कोलय भूपाथे,

यज्ञन्गय शुभाङ्गाय सर्वज्ञाय परमथ्मने.

स्थ्र्वथुन्दाय धीराय पर ब्रह्म स्वरूपिने,

वक्र दंष्ट्रय निथ्याय नमो अन्थर्यमिनि क्रमतः.

अङ्गुलीषु न्यसेद विध्वन् कर प्रष्टे थालेश्वापि,

ढ्यथ्व श्र्वेथवरहम् च पश्चाद मन्थर मुधीरयतः.

ध्यानं:

ॐ स्वेथम् वराह वपुषं क्षिथि म उद्वरन्थम्,

संखरी सर्व वरद अभय युक्था बाहुं,

ध्ययेन निर्जैस्च थानुभि सकलै रूपेथं,

पूर्ण विभुं सकल वन्चिथ सिध्ये अजं.

वराह पूर्वथा पथु, दक्षिणे दन्दकन्त्हक,

हिरण्याक्ष हर पथु पश्चिम गदययुधा.

उथरे भूमि हृद पथु अगस्थाद्वयु वहन,

ओर्ध्व पथु हृषिकेसो दिग्विदिक्षु गद धर.

प्रथा पथु प्रजनाध, कल्पक्रुतः संगमे अवथु,

मद्यःने वज्र केसस्थु, सयःने सर्व पूजिथ.

प्रदोषे पाहु पद्माक्षो, रथ्रौ राजीव लोचन,

निसीन्द्र गर्वह पथु पथुष परमेश्वर.

अदव्यं अग्रज पथु, गमेन गरुडासना,

स्थले पथु महा थेज, जले पथ्व अवनि पथि.

गृहे पथु गृहद्यक्षो, पद्मनाभ पुरोवथु,

जिल्लिक वरद पथु स्वग्रमे करुणाकर.

रणाग्रे दैथ्याह पत्र्हु, विषमे पथु चक्र ब्रुतः,

रोगेषु वैद्यरजस्थु, कोलो व्यधीषु रक्षथु.

थापत्रयतः थापो मुर्थ्य, कर्म पसच विस्व कृतः,

कलेस कालेषु सर्वेषु पथु पद्स्मवथिर विभु.

हिरण्यगर्भ संस्थुथ्य पधौ पथु निरन्थरं,

ग़ुल्फौ गुणाकर प्थु, जङ्गे पथु जनार्धन.

जानु च जयक्रुतः पथु पथुरु पुरुशोथाम,

रक्थाक्षो जागने पथु कटिं विस्वम्बरो अवथु.

अर्स्वे पथु सुराध्यक्ष. पथु कुक्षीं परथ्पर,

नाभिं ब्रह्म पिथ पथु हृदयं ह्रुदयेस्वर.

महादंष्ट्रा स्थनौ पथु, कन्दं पथु विमुक्थिध,

प्रबन्ज्ञा पथिर बहु, करौ काम पिथवथु.

हस्थु हंसपथि पथु, पथु सर्वन्गुलीर हरि,

सर्वन्गस्चिबुकं पथु पथ्वोष्टि कला नेमि नीह.

मुखं पथु मधुहा, पथु दन्थं दमोदरवथु,

नासिकां अव्यय पथु, नेत्रे सुर्येण्डु लोचन.

फलं कर्म फलद्यक्ष, पथु कर्नौ महा राधा,

सेष शयी सिर पथु, केसन पथु निरामय.

सर्वाङ्गं पथु सर्वेस, सदा पथु सथीस्वर,

इथेधं कवचं पुण्यं वराहस्य महत्ह्मन.

य पदेतः स्रुनुयथ्वापि, थस्य मृथ्युर विनस्यथि,

थं नमस्यन्थि भूथानि, भीठ संजलिपनाय.

राजदस्य भयं नस्थि, रज्यब्रंसो न जयथे,

यन्नमस्मरणतः भीठ भूथ, वेताल, राक्षस.

महारोगस्च नस्यन्थि, सत्यं सत्यं वदंयाहं,

कन्दे थु कवचं भधूध्व, वन्ध्या पुथ्रवत्र्हि भवेतः.

शत्रु सैन्यक्षय प्रप्थि, दुख प्रसमानं तधा,

उथ्पथ दुर्निमिथथि सूचिथ अरिष्ट नासनं.

ब्रह्म विध्य प्रबोधं च लबथे नात्र संसय,

द्रुथ्वेदं कवचं पुण्यं मन्दथ पर वीरहा.

ज्ञीथ्व थु संबरीं मयं दैथ्येन्दनवधीतः क्षणतः,

कवचेनवृथो भूथ्व देवेन्द्रोपि सुरारिह.

भूम्योपदिष्ट कवच धारण नरकोपि च,

सर्व वध्यो जयी भूथ्व, महाथीं कीर्थि मप्थवन्.

आस्वथ मूले अर्क वरे नित्य पुषकरणी तते,

वराह कवचं जप्थ्व सथवरं पतेध्यदि.

अपूर्व राज्य संप्रप्थि नष्टस्य पुनरगमं,

लब्धे नात्र संदेह सथ्य मेदन मयोदिथं.

ज्ञप्थ्व वराह मन्त्रं थु लक्षमेकं निरन्थरं,

दसंसं थार्पनं होमं पायसेन द्रुथेन च.

कुर्वन त्रिकाल संध्यासु कवचेनवृथो यदि,

भूमण्डल अधिपथ्यं च ह लभदे नात्र संसय.

इधं उक्थं मया देवी गोपनेयं दुरथ्मन,

वर कवचं पुण्यं ससरर्नव थारकं.

महापथाक कोतिग्नं, भुक्थि मुक्थि फल प्रधं,

वाच्यं पुथ्राय शिष्याय सदु द्रुथाय सु धीमाथे.

श्री सुथ :

इथि पथ्युर वच स्रुथ्व देवी संथुष्ट मनसा,

विनायक गुहौ पुथ्रौ प्रपेधे सुरर्चिथौ.

कवचस्य प्रभावेन लोक मथ च पर्वत्ह्य,

य इधं स्रुनुयन नित्यं, योवा पदथि निथ्यसा.

स मुक्था सर्व पापेभ्यो विष्णु लोके महीयथे.

विकट नृसिंह कवच

श्री नृसिंहाय नमः।

 विनियोगः

सीधे हाथ में जल लेकर विनियोग पढ़कर जल भूमि पर छोड़ दे।

ॐ अस्य श्री नृसिंहमन्त्रस्य प्रहराऋषिः। शिरसि। अनुष्टुभ् छन्दः मुखे।जीवो बीजं ह्रदि।

अनन्तशक्तिः नाभौ। परमात्मा कीलकम् गुह्ये। श्रीनृसिंहदेवता प्रीत्यर्थे जप विनियोगः।

शत्रुहानिपरोमोक्षमर्थदिव्य न संशयः । अथदिग्बंधः । पूर्वेनृसिंह रक्षेश्च ईशान्ये उग्ररुपकम् ।

उत्तरे वज्रको रक्षेत् वायव्यांच महाबले । पश्चिमे विकटो रक्षेत् नैऋत्यां अग्निरुपकम् ।

उत्तरे वज्रको रक्षेत् वायव्यांच महाबले । पश्चिमे विकटो रक्षेत् नैऋत्यां अग्निरुपकम् ।

दक्षिणे रौद्र रक्षेच्च घोररुपंच अग्नेय्याम् । ऊर्ध्व रक्षेन्महाकाली अधस्ताद्दैत्यमर्दनः ।

एताभ्यो दशदिग्भ्यश्च सर्वं रक्षेत् नृसिंहकः । ॐ क्रीं छुं नृं नृं र्हींर र्हीं् रुं रुं स्वाहा ॥

ॐ नृसिंहायनमः । ॐ वज्ररुपाय नमः । ॐ कालरुपाय नमः । ॐ दुष्टमर्दनायनमः ।

ॐ शत्रुचूर्णाय नमः । ॐ भवहारणाय नमः । ॐ शोकहराय नमः । ॐ नरकेसरी वुं हुं हं फट् स्वाहा ।

इति दिग्बंधन मन्त्रः

ॐ छुं छुं नृं नृं रुं रुं स्वाहा । ॐ वुं वुं वुं दिग्भ्यः स्वाहा । नृसिंहाय नमः ।

ॐ र्हंद र्हं। र्हंर नृसिंहांय नमः । अथ न्याः । ॐ अं ऊं अंगुष्ठाभ्यां नमः ।

ॐ नृं नृं नृं तर्जनीभ्यां नमः । ॐ रां रां रां मध्यमाभ्यां नमः । ॐ श्रां श्रां श्रां अनामिकाभ्यां नमः ।

ॐ ईं ईं कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ॐ भ्रां भ्रां भ्रां करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।

ॐ व्रां व्रां व्रां ह्रदयाय नमः । र्हां् र्हां् र्हां् शिरसे स्वाहा । ॐ क्लीं क्लीं क्लीं शिखायै वौषट् ।

ॐ ग्रां ज्रां ज्रां कवचाय हुम् । ॐ श्रीं श्रीं श्रीं नेत्रत्रयायै वौषट् । ॐ आं आं अस्त्राय फट् ।

अथ नमस्कृत्य:

ॐ नृसिंहकालाय कालरुपघोराय च । नमो नृसिंहदेवाय कारुण्याय नमो नमः ।

ॐ रां उग्राय नमः । ॐ धारकाय उग्राय उग्ररुपाय । ॐ ऊं धारणाय नमः ।

ॐ बिभीषणभद्राय नमो नमः । करालाय नमः । ॐ वज्ररुपाय नमः । ॐ ॐ ॐ ॐ काररुपाय नमः ।

ॐ ज्वालारुपाय नमः । ॐ परब्रह्मतो नृं रां रां रां नृसिंहाय सिंहरुपाय नमोनमः ।

ॐ नरकेसरी रां रां खं भीं नृसिंहाय नमः । अकारः सर्व संराजतु विश्वेशी विश्वपूजितो ।

ॐ विश्वेश्वराय नमः । ॐ र्होंी स्त्रां स्त्रां स्त्रां सर्वदेवेश्वरी निरालम्बनिरंजननिर्गुणसर्वश्वैव तस्मै नमस्ते ।

ॐ रुं रुं रुं नृसिंहाय नमः । ॐ औं उग्राय उग्ररुपाय उग्रधराय ते नमः ।

ॐ भ्यां भ्यां विभीषणाय नमस्ते नमस्ते । भद्राय भद्र रुपाय भवकराय ते नमो नमः ।

ॐ व्रां व्रां व्रां वज्रदेहाय वज्रतुण्डाय नमो भव वज्राय वज्रनखाय नमः ।

ॐ र्हांे र्हांण र्हांज हरित क्लीं क्लीं विष सर्वदुष्टानां च मर्दनं दैत्यापिशाचाय अन्याश्च महाबलाय नमः ।

ॐ र्लींे र्लींण लृं कामनार्थं कलिकालाय नमस्ते कामरुपिणे ।

ॐ ज्रां ज्रां ज्रां ज्रां सर्वजगन्नाथ जगन्महीदाता जग्न्महिमा जगव्यापिने देव तस्मै नमो नमः ।

ॐ श्री श्रीं श्री श्रीधर सर्वेश्वर श्रीनिवासिने । ॐ आं आं आं अनन्ताय अनन्तरुपाय विश्वरुपाय नमः ।

नमस्ते विश्वव्यापिणे । इति स्तुतिः । ॐ विकटाय नमः । ॐ उग्ररुपाय नमः स्वाहा ।

ॐ श्रीनृसिंहाय उद्विघ्नाय विकटोग्रतपसे लोभमोहविवर्जितं त्रिगुणरहितं उच्चाटनभ्रमितं सर्वमायाविमुक्तं सिंह रागविवर्जित विकटोग्र – नृसिंह नरकेसरी ॥

ॐ रां रां रां रां रां र्हं र्हंस क्षीं क्षीं धुं धुं फट् स्वाहा ॥

ॐ नमो भगवते श्री लक्ष्मीनृसिंहाय ज्वाला मालाय दीप्तदंष्ट्राकरालाय ज्वालाग्निनेत्रायसर्वक्षोघ्नाय सर्वभूतविनाशाय सर्व विषविनाशाय सर्व व्याधिविनाशनाय हन हन दह दह पच पच वध वध बन्ध बन्ध रक्ष रक्ष मां हुं फट् स्वाहा ॥

इति श्री महानृसिंहमन्त्रकवच सम्पूर्णमस्तु । शुभमस्तु । नृसिंहार्पणमस्तु ॥

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One thought on “संपूर्ण कवच “भ” से “व” तक

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