क्या है मार्कण्डेय ऋषि और यमराज की कथा | Markandey Rishi

मुख पृष्ठ पोस्ट मार्कण्डेय ऋषि और यमराज की कथा

मार्कण्डेय ऋषि और यमराज

आप लोगों ने कई ऋषियों और महर्षियों की कथाऐं सुनी होंगी। और उनके जीवन से आपको प्रेरणा भी मिली होगी। ऐसे ही एक महान व्यक्तित्व वाले ऋषि थे मार्कण्डेय ऋषि। मार्कण्डेय ऋषि सोलह वर्ष का ही आयु भाग्य लेकर जन्मे थे। परन्तु अपनी भक्ति और श्रद्धा के बल पर वे चिरंजीवी हो गए। आइये विस्तार पूर्वक पढ़ते हैं मार्कण्डेय ऋषि की कहानी:-
एक बार मृगश्रृंग नाम के एक मुनि थे। उनका विवाह सुवृता नामक एक सुन्दर कन्या के संग संपन्न हुआ। विवाह के कुछ वर्ष उपरांत मृगश्रृंग और सुवृता के घर एक पुत्र ने जन्म लिया। परन्तु उनके पुत्र हमेशा अपना शरीर खुजलाते ही रहते थे। इसलिए मृगश्रृंग ने उनका नाम मृकण्डु ही रख दिया। मृकण्डु में सभी श्रेष्ठ गुण थे। उनके शरीर में तेज का वास था। पिता के पास रह कर उन्होंने वेदों और पुराणों का अध्ययन किया। पिता कि आज्ञा अनुसार ही उन्होंने मृदगुल मुनि की कन्या मरुद्वती से विवाह किया।
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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-
मार्कण्डेय ऋषि का जन्म:
मृकण्डु जी का वैवाहिक जीवन शांतिपूर्ण ढंग से व्यतीत हो रहा था। लेकिन बहुत समय तक उनके घर पर किसी संतान ने जन्म नही लिया। इस कारण उन्होंने और उनकी पत्नी ने भगवान शिव का कठोर तपस्या किया। उन्होंने तपस्या कर के भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया। भगवान शिव वहाँ प्रकट हुए और मुनि से कहा कि- “हे मुनिबर, मै तुम दोनो कि तपस्या से अत्यन्त प्रसन्न हूँ मांगो क्या वरदान मांगना चाहते हो”..?
तब मुनि मृकण्डु और उनकी पत्नि ने कहा- “प्रभु यदि आप सच में हमारी तपस्या से प्रसन्न हैं तब हमे संतान के रूप में एक पुत्र प्रदान करें जो गुणों की खान हो और हर प्रकार का ज्ञान रखता हो”।
इसपर भगवान शिव ने कहा है मुनिवर तुम दोनों के जीवन मे संतान सुख नहीं है। परंतु तुम दोनों ने मेरी घोर तपस्या की है और मैं तुम दोनों की तपस्या से अत्यंत ही प्रसन्न हूँ, इसलिए मैं तुम्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान प्रदान करता हूँ। परन्तु यह स्मरण रहे कि उस बालक की आयु केवल 16 वर्ष ही होगी।
तब भगवान शिव ने उनको पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दिया और अंतर्ध्यान हो गए। समय आने पर महामुनि मृकण्डु और मरुद्वती के घर एक गुणवान बालक ने जन्म लिया जो आगे चलकर मार्कण्डेय ऋषि के नाम से प्रसिद्द हुआ। महामुनि मृकण्डु ने मार्कण्डेय को हर प्रकार की शिक्षा दी। महर्षि मार्कण्डेय एक आज्ञाकारी पुत्र थे। माता-पिता के साथ रहते और शास्त्रों की शिक्षा ग्रहण करतै हुए पंद्रह साल बीत गए।
महामृत्युंजय मंत्र की रचना
जब सोलहवां साल आरम्भ हुआ तो माता-पिता को भगवान शिव का कथन स्मरण आया और वह उदास रहने लगे। पुत्र ने कई बार उनसे उनकी उदासी का कारण जानने का प्रयास किया। परन्तु हर वार वह विफल रहे। लेकिन एक दिन मार्कण्डेय ने बहुत जिद की तो महामुनि मृकण्डु ने बताया कि भगवान शिव ने तुम्हें मात्र सोलह वर्ष की ही आयु प्रदान की है और यह पूर्ण होने ही वाली है। इस कारण हमे शोक हो रहा है। इतना सुन कर मार्कण्डेय ऋषि ने अपने माता-पिता से कहा कि आप दोनो चिंता ना करें, मैं भगवान शिव जी को मना लूँगा और अपनी मृत्यु को टाल दूंगा। इसके बाद वह घर से दूर एक जंगल में चले गए। वहाँ एक शिवलिंग स्थापना करके महामृत्युंजय मंत्र की रचना कर शिवलिंग की विधिपूर्वक पूजा अर्चना करने लगे।
महामृत्युंजय मंत्र:- ॐ त्र्यम्बक यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धन्म।उर्वारुकमिव बन्धनामृत्येर्मुक्षीय मामृतात् !!
भावार्थ:- हम तीन नेत्र वाले भगवान शंकर की पूजा करते हैं जो प्रत्येक श्वास में जीवन शक्ति का संचार करते हैं, जो सम्पूर्ण जगत का पालन-पोषण अपनी शक्ति से कर रहे हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि जिस प्रकार एक ककड़ी अपनी बेल में पक जाने के उपरांत उस बेल-रूपी संसार के बंधन से मुक्त हो जाती है, उसी प्रकार हम भी इस संसार-रूपी बेल में पक जाने के उपरांत जन्म-मृत्यु के बंधनों से सदा के लिए मुक्त हो जाएं तथा आपके चरणों की अमृतधारा का पान करते हुए शरीर को त्यागकर आप ही में लीन हो जाएं और मोक्ष प्राप्त कर लें।
यमराज की छाती में लात मारना
निश्चित समय आने पर काल पहुंचा। मार्कण्डेय ने उनसे यह कहते हुए कुछ समय माँगा कि अभी वह शिव जी कि स्तुति कर रहे हैं। जब तक वह स्तुति पूरी कर नही लेते तब तक कृपया प्रतीक्षा करें। काल ने ऐसा करने से मना कर दिया तो मार्कण्डेय ऋषि जी ने विरोध किया। काल ने जब उन्हें ग्रसना चाहा तो वे शिवलिंग से लिपट गए और जोर-जोर से महामृत्युंजय मंत्र का जाप करने लगे। इस सब के बीच भगवान शिव वहाँ स्वयं ही प्रकट हुए। उन्होंने काल की छाती में लात मारी। जब तक कि काल कुछ सम्भल पाता तब तक मार्कण्डेय ऋषि की मृत्यु का समय समाप्त हो चुका था। भगवान शिव ने काल को चेतावनी देते हुए कहा कि यदि भविष्य मे कोई भी प्राणी निस्वार्थ भाव से प्रतिदिन या फिर मृत्यु के समय इस मंत्र का जाप करता है। तो उसे किसी भी प्रकार का कष्ट नही होगा। उसके बाद मृत्यु देवता शिव जी कि आज्ञा पाकर वहां से चले गए।
अमरत्व का वरदान
मार्कण्डेय ऋषि की श्रद्धा और आस्था देख कर भगवन शिव ने उन्हें अनेक कल्पों तक जीने का वरदान दिया। अमरत्व का वरदान पाकर महर्षि वापस अपने माता-पिता के पास आश्रम आ गए और उनके साथ कुछ दिन रहने के बाद वह पृथ्वी पर विचरने लगे और प्रभु की महिमा लोगों तक पंहुचाते रहे। इस तरह भगवान पर विश्वास कायम रख कर मार्कण्डेय ऋषि ने एक ऐसा उदाहरण दिया जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता।

