रावण के अन्तिम संवाद | Raavan Ke Antim Samvaad

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रावण के अन्तिम संवाद
कुछ समय पूर्व की बात है। या यूं कहें कि कुछ युग पूर्व की बात है। उस समय एक अजीब सा कोलाहल इस विश्व में हुआ था जब धरती भी मानो अपनी धूरी से लगभग 8-10 फुट तक नीचे धस गई थी और सागर, नदी, तालाब, कूएँ सभी के जल भी मानो आकाश को स्पर्श कर रहे हो। एवं मनुष्य, जीव-जन्तु और पशु-पक्षी भी मानो अपनी धरा से कुछ ऊपर तक उछल गये थे। प्रत्येक प्राणी के मन मे एक ही प्रश्न था कि यह कौन सा संकट है कैसी विपत्ति आन पड़ी है आज इस धरा पर..?
दिन था दशहरा और समय था रावण संहार का.! जब श्री राम ने बाल कीड़ा समाप्त कर एक बाण रावण की नाभि में मारा था। और महाबली रावण उस एक बाण को भी सहन न कर सका और धरा पर कुछ यूं गिरा कि मानो कोई ठोकर खाकर गिरा हो।
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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-
इस बाण कि कुछ विशेषताएँ वाल्मीकि रामायण मे दर्शायी गई है।
यं तस्मै प्रथमं प्रादादगस्त्यो भगवानृषिः।
ब्रह्मदत्तं महद बाणममोधं युधि वीर्यवान्॥
अर्थात:- यह वही बाण था, जिसे पहले शक्तिशाली भगवान अगस्त्य ऋषि ने रघुनाथ जी को दिया था। वह विशाल बाण ब्रह्मा जी का दिया हुआ था जो युद्ध में अमोघ था।
यस्य वाजेषु पवनः फले पावकभास्करौ।
शरीरमाकाशमयं गौरवे मेरुमन्दरौ॥
अर्थात:- उस बाण के वेग में वायु की, धार में अग्नि और सूर्य की, शरीर में आकाश की और भारीपन में मेरू और मन्दराचल की प्रतिष्ठा की गयी थी।
जाज्वल्यमानं वपुषा सुपुंख हेमभूषितम्।
तेजसा सर्वभूतानां कृत भास्करवर्चसम्॥
सधूममिव कालाग्निं दीप्तमाशी विषोपमम् ।
नरनागाश्ववृन्दानां भेदनं क्षिप्रकारिणम्॥
अर्थात:- वह सम्पूर्ण चतों के तेज से बनाया गया था। उससे सदैव सूर्य के समान ज्योति निकलती रहती थी। वह सुवर्ण से भूषित, सुंदर पंख से युक्त, स्वरूप से जाज्वल्यमान, प्रलयकाल की धूमयुक्त अग्नि के समान भयंकर, दीप्तिमान, विषधर सर्प के समान विषैला, मनुष्य, हाथी और घोड़ों को विदीर्ण कर डालने वाला तथा शीघ्रतापूर्वक लक्ष्य का भेदन करने वाला था।
तमुत्तमेषुं लोकानामिक्ष्वाकुभयनाशनम्।
द्विषतां कीर्तिहरणं प्रहर्षकरमात्मनः॥
अभिमन्त्र्य ततो रामस्तं महेषुं महाबलः।
वेदप्रोक्तेन विधिना संदधे कार्मुके बली॥
अर्थात:- वह उत्तम बाण समस्त लोकों तथा इक्ष्वाकुवंशियों के भय का नाशक था, शत्रुओं की कीर्ति का अपहरण तथा अपने हर्ष की वृद्धि करने वाला था। उस महान सायक को वेदोक्त विधि से अभिमंत्रित करके श्रीराम ने अपने धनुष पर रक्खकर चलाया।
स शरो रावणं हत्वा रुधिरार्द्रकृतच्छविः।
कृतवर्मा निभृतवत् स तूणीं पुनराविशत्॥
अर्थात:- इस प्रकार रावण का वध करके रक्त रंजित वह शोभाशाली बाण अपना कार्य पूरा करने के पश्चात पुनः विनीत सेवक की भाँति श्रीरामचन्द्र जी के तरकस में पुनः लौट आया।
श्री राम की जय-जयकार
हर तरफ श्री राम की जय-जयकार हो रही थी। परन्तु श्री राम के मुखमंडल पर खुशी की कोई भी लहर नहीं थी। मानो जैसे खेलते-खेलते कोई खिलौना टूट गया हो। श्री राम अत्यंत व्याकुल हो रहे थे उन्हे कुछ भी ज्ञात नही हो रहा था कि यह क्या हो गया और अब क्या होगा। मन में एक अजीब सी पीड़ा थी।
तभी मानो इस संसार की गति थम गई क्योकि महाज्ञानी रावण ने बड़े ही स्नेहवश श्री राम को अपने समीप बुलाया। और कहा हे वत्स तुम्हारे मुख मंडल पर इतनी व्याकुलता किस लिए है! तब श्रीराम ने कहा हे महाबली दशानन आज मेरे द्वारा एक उत्कृष्ट शासक, विद्वान, शिवभक्त, काल को सदैव अपने चरणों के नीचे रखने वाले तथा अपनी इच्छा से ग्रहों की स्थिति को नियंत्रित कर सकने वाले रावण को आज मैने कैसे मार डाला।
तब महाबली दशानन ने कहा हे वत्स! इस बात से कदाचित इंकार नहीं किया जा सकता कि मै वेदों को जानने वाला विद्वान रहा, अपनी भुजाओं के बल से मैने ही दुनिया को वश मे किया। मै एक महान शिवभक्त रहा और शिव तांडव स्तोत्र मेरी ही एक महान रचना रही। काल को भी सदैव अपने चरणों के नीचे दबा कर रखने वाला तथा अपनी इच्छा से संपूर्ण ग्रहों की स्थिति को नियंत्रित कर सकने वाला भी था।
लेकिन इस के साथ-साथ मै शक्तियों के अभिमान मे भी आया, इस बात से भी कदाचित इंकार नहीं किया जा सकता, परन्तु इतना सब होने के उपरांत मैने ऐसे कुकृत्य भी किये जो कदाचित क्षमा के योग्य नहीं थे।
इसलिए हे वत्स मुझे राम ने नही स्वंय रावण ने ही मारा है। अर्थात मुझे स्वंय मेरे अहम् “मै” ने ही मारा है।
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