वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- ४३

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॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ श्री कमलापति नम: ॥
॥ श्री जानकीवल्लभो विजयते ॥
॥ श्री वाल्मीकि रामायण ॥
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वाल्मीकि रामायण
(भावार्थ सहित)
सब एक ही स्थान पर

बालकाण्ड सर्ग- ४३
बालकाण्डम्
त्रिचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 43)
( भगीरथ की तपस्या, भगवान् शङ्कर का गंगा को अपने सिर पर धारण करना, भगीरथ के पितरों का उद्धार )
श्लोक:
देवदेवे गते तस्मिन् सोऽङ्गुष्ठाग्रनिपीडिताम्।
कृत्वा वसुमतीं राम वत्सरं समुपासत॥१॥
भावार्थ :-
श्रीराम! देवाधिदेव ब्रह्माजी के चले जाने पर राजा भगीरथ पृथ्वी पर केवल अँगूठे के अग्रभाग को टिकाये हुए खड़े हो एक वर्ष तक भगवान् शङ्कर की उपासना में लगे रहे॥१॥
श्लोक:
अथ संवत्सरे पूर्णे सर्वलोकनमस्कृतः।
उमापतिः पशुपती राजानमिदमब्रवीत्॥२॥
भावार्थ :-
वर्ष पूरा होने पर सर्वलोकवन्दित उमावल्लभ भगवान् पशुपति ने प्रकट होकर राजा से इस प्रकार कहा—॥२॥
श्लोक:
प्रीतस्तेऽहं नरश्रेष्ठ करिष्यामि तव प्रियम्।
शिरसा धारयिष्यामि शैलराजसुतामहम्॥३॥
भावार्थ :-
‘नरश्रेष्ठ! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारा प्रिय कार्य अवश्य करूँगा। मैं गिरिराजकुमारी गंगा देवी को अपने मस्तक पर धारण करूँगा’॥३॥
श्लोक:
ततो हैमवती ज्येष्ठा सर्वलोकनमस्कृता।
तदा सातिमहद्रूपं कृत्वा वेगं च दुःसहम्॥४॥
आकाशादपतद् राम शिवे शिवशिरस्युत।
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भावार्थ :-
श्रीराम! शङ्करजी की स्वीकृति मिल जाने पर हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगाजी, जिनके चरणों में सारा संसार मस्तक झुकाता है, बहुत बड़ा रूप धारण करके अपने वेग को दुस्सह बनाकर आकाश से भगवान् शङ्कर के शोभायमान मस्तक पर गिरीं॥४ १/२॥
श्लोक:
अचिन्तयच्च सा देवी गंगा परमदुर्धरा॥५॥
विशाम्यहं हि पातालं स्रोतसा गृह्य शङ्करम्।
भावार्थ :-
उस समय परम दुर्धर गंगादेवी ने यह सोचा था कि मैं अपने प्रखर प्रवाह के साथ शंकरजी को लिये-दिये पाताल में घुस जाऊँगी॥५ १/२॥
श्लोक:
तस्यावलेपनं ज्ञात्वा क्रुद्धस्तु भगवान् हरः॥६॥
तिरोभावयितुं बुद्धिं चक्रे त्रिनयनस्तदा।
भावार्थ :-
उनके इस अहंकार को जानकर त्रिनेत्रधारी भगवान् हर कुपित हो उठे और उन्होंने उस समय गंगा को अदृश्य कर देने का विचार किया॥६ १/२॥
श्लोक:
सा तस्मिन् पतिता पुण्या पुण्ये रुद्रस्य मूर्धनि॥७॥
हिमवत्प्रतिमे राम जटामण्डलगह्वरे।
सा कथंचिन्महीं गन्तुं नाशक्नोद् यत्नमास्थिता॥८॥
भावार्थ :-
पुण्यस्वरूपा गंगा भगवान् रुद्र के पवित्र मस्तक पर गिरीं। उनका वह मस्तक जटामण्डलरूपी गुफा से सुशोभित हिमालय के समान जान पड़ता था। उसपर गिरकर विशेष प्रयत्न करने पर भी किसी तरह वे पृथ्वी पर न जा सकीं॥७-८॥
श्लोक:
नैव सा निर्गमं लेभे जटामण्डलमन्ततः।
तत्रैवाबभ्रमद् देवी संवत्सरगणान् बहून्॥९॥
भावार्थ :-
भगवान् शिव के जटा-जाल में उलझकर किनारे आकर भी गंगादेवी वहाँ से निकलने का मार्ग न पा सकीं और बहुत वर्षों तक उस जटाजूट में ही भटकती रहीं॥९॥
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श्लोक:
तामपश्यत् पुनस्तत्र तपः परममास्थितः।
स तेन तोषितश्चासीदत्यन्तं रघुनन्दन॥१०॥
भावार्थ :-
रघुनन्दन! भगीरथ ने देखा, गंगा जी भगवान् शङ्कर के जटामण्डल में अदृश्य हो गयी हैं; तब वे पुनः वहाँ भारी तपस्या में लग गये। उस तपस्या द्वारा उन्होंने भगवान् शिव को बहुत संतुष्ट कर लिया॥१०॥
श्लोक:
विससर्ज ततो गंगां हरो बिन्दुसरः प्रति।
तस्यां विसृज्यमानायां सप्त स्रोतांसि जज्ञिरे॥११॥
भावार्थ :-
तब महादेवजी ने गंगाजी को बिन्दुसरोवर में ले जाकर छोड़ दिय, वहाँ छूटते ही उनकी सात धाराएँ हो गयीं॥११॥
श्लोक:
हलादिनी पावनी चैव नलिनी च तथैव च।
तिस्रः प्राची दिशं जग्मुर्गङ्गाः शिवजलाः शुभाः॥१२॥
भावार्थ :-
ह्लादिनी, पावनी और नलिनी—ये कल्याणमय जल से सुशोभित गंगा की तीन मंगलमयी धाराएँ पूर्व दिशा की ओर चली गयीं॥१२॥
श्लोक:
सुचक्षुश्चैव सीता च सिन्धुश्चैव महानदी।
तिस्रश्चैता दिशं जग्मुः प्रतीची तु दिशं शुभाः॥१३॥
भावार्थ :-
सुचक्षु, सीता और महानदी सिन्धु–ये तीन शुभ धाराएँ पश्चिम दिशा की ओर प्रवाहित हुईं॥१३॥
श्लोक:
सप्तमी चान्वगात् तासां भगीरथरथं तदा।
भगीरथोऽपि राजर्षिर्दिव्यं स्यन्दनमास्थितः॥१४॥
प्रायादग्रे महातेजा गंगा तं चाप्यनुव्रजत्।
गगनाच्छंकरशिरस्ततो धरणिमागता॥१५॥
भावार्थ :-
उनकी अपेक्षा जो सातवीं धारा थी, वह महाराज भगीरथ के रथ के पीछे-पीछे चलने लगी। महातेजस्वी राजर्षि भगीरथ भी दिव्य रथपर आरूढ़ हो आगे-आगे चले और गंगा उन्हीं के पथ का अनुसरण करने लगीं। इस प्रकार वे आकाश से भगवान् शङ्कर के मस्तक पर और वहाँ से इस पृथ्वी पर आयी थीं॥१४-१५॥
श्लोक:
असर्पत जलं तत्र तीव्रशब्दपुरस्कृतम्।
मत्स्यकच्छपसङ्घश्च शिंशुमारगणैस्तथा॥१६॥
पतद्भिः पतितैश्चैव व्यरोचत वसुंधरा।
भावार्थ :-
गंगाजी की वह जलराशि महान् कलकल नाद के साथ तीव्र गति से प्रवाहित हुई। मत्स्य, कच्छप औरशिंशुमार (सूंस) झुंड-के-झुंड उसमें गिरने लगे। उन गिरे हुए जलजन्तुओं से वसुन्धरा की बड़ी शोभा हो रही थी॥१६ १/२॥
श्लोक:
ततो देवर्षिगन्धर्वा यक्षसिद्धगणास्तथा॥१७॥
व्यलोकयन्त ते तत्र गगनाद् गां गतां तदा।
विमानैर्नगराकारैर्हयैर्गजवरैस्तदा॥१८॥
भावार्थ :-
तदनन्तर देवता, ऋषि, गन्धर्व, यक्ष और सिद्धगण नगर के समान आकार वाले विमानों, घोड़ों तथा गजराजों पर बैठकर आकाश से पृथ्वी पर गयी हुई गंगाजी की शोभा निहारने लगे॥१७-१८॥
श्लोक:
पारिप्लवगताश्चापि देवतास्तत्र विष्ठिताः।
तदद्भुतमिमं लोके गंगावतरमुत्तमम्॥१९॥
दिदृक्षवो देवगणाः समीयुरमितौजसः।
भावार्थ :-
देवता लोग आश्चर्यचकित होकर वहाँ खड़े थे। जगत् में गंगावतरण के इस अद्भुत एवं उत्तम दृश्य को देखने की इच्छा से अमित तेजस्वी देवताओं का समूह वहाँ जुटा हुआ था॥१९ १/२॥
श्लोक:
सम्पतद्भिः सुरगणैस्तेषां चाभरणौजसा॥२०॥
शतादित्यमिवाभाति गगनं गततोयदम्।
भावार्थ :-
तीव्र गति से आते हुए देवताओं तथा उनके दिव्य आभूषणों के प्रकाश से वहाँ का मेघरहित निर्मल आकाश इस तरह प्रकाशित हो रहा था, मानो उसमें सैकड़ों सूर्य उदित हो गये हों॥२० १/२॥
श्लोक:
शिंशुमारोरगगणैर्मीनैरपि च चञ्चलैः॥२१॥
विद्युद्भिरिव विक्षिप्तैराकाशमभवत् तदा।
भावार्थ :-
शिंशुमार, सर्प तथा चञ्चल मत्स्यसमूहों के उछलने से गंगाजी के जल से ऊपर का आकाश ऐसा जान पड़ता था, मानो वहाँ चञ्चल चपलाओं का प्रकाश सब ओर व्याप्त हो रहा हो॥२१ १/२॥
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श्लोक:
पाण्डुरैः सलिलोत्पीडैः कीर्यमाणैः सहस्रधा॥२२॥
शारदाभ्रेरिवाकीर्णं गगनं हंससम्प्लवैः।
भावार्थ :-
वायु आदि से सहस्रों टुकड़ों में बँटे हुए फेन आकाश में सब ओर फैल रहे थे मानो शरद् ऋतु के श्वेत बादल अथवा हंस उड़ रहे हों॥२२ १/२॥
श्लोक:
क्वचिद् द्रुततरं याति कुटिलं क्वचिदायतम्॥२३॥
विनतं क्वचिदुद्भूतं क्वचिद् याति शनैः शनैः।
सलिलेनैव सलिलं क्वचिदभ्याहतं पुनः॥२४॥
भावार्थ :-
गंगा जी की वह धारा कहीं तेज, कहीं टेढ़ी और कहीं चौड़ी होकर बहती थी। कहीं बिलकुल नीचे की ओर गिरती और कहीं ऊँचे की ओर उठी हुई थी। कहीं समतल भूमिपर वह धीरे-धीरे बहती थी और कहीं-कहीं अपने ही जल से उसके जल में बारम्बार टक्करें लगती रहती थीं॥२३-२४॥
श्लोक:
मुहुरूर्ध्वपथं गत्वा पपात वसुधां पुनः।
तच्छंकरशिरोभ्रष्टं भ्रष्टं भूमितले पुनः॥२५॥
व्यरोचत तदा तोयं निर्मलं गतकल्मषम्।
भावार्थ :-
गंगा का वह जल बार-बार ऊँचे मार्गपर उठता और पुनः नीची भूमि पर गिरता था। आकाश से भगवान्शङ्कर के मस्तक पर तथा वहाँ से फिर पृथ्वी पर गिरा हुआ वह निर्मल एवं पवित्र गंगाजल उस समय बड़ी शोभा पा रहा था॥२५॥
श्लोक:
तत्रर्षिगणगन्धर्वा वसुधातलवासिनः॥२६॥
भवांगपतितं तोयं पवित्रमिति पस्पृशुः।
भावार्थ :-
उस समय भूतलनिवासी ऋषि और गन्धर्व यह सोचकर कि भगवान् शङ्कर के मस्तक से गिरा हुआ यह जल बहुत पवित्र है, उसमें आचमन करने लगे॥२६ १/२॥
श्लोक:
शापात् प्रपतिता ये च गगनाद् वसुधातलम्॥ २७॥
कृत्वा तत्राभिषेकं ते बभूवुर्गतकल्मषाः।
धूतपापाः पुनस्तेन तोयेनाथ शुभान्विताः॥२८॥
पुनराकाशमाविश्य स्वाँल्लोकान् प्रतिपेदिरे।
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भावार्थ :-
जो शापभ्रष्ट होकर आकाश से पृथ्वीपर आ गये थे, वे गंगा के जल में स्नान करके निष्पाप हो गये तथा उस जल से पाप धुल जाने के कारण पुनः शुभ पुण्य से संयुक्त हो आकाश में पहुँचकर अपने लोकों को पा गये॥२७-२८ १/२॥
श्लोक:
मुमुदे मुदितो लोकस्तेन तोयेन भास्वता॥२९॥
कृताभिषेको गंगायां बभूव गतकल्मषः।
भावार्थ :-
उस प्रकाशमान जल के सम्पर्क से आनन्दित हुए सम्पूर्ण जगत् को सदा के लिये बड़ी प्रसन्नता हुई। सब लोग गंगा में स्नान करके पापहीन हो गये॥२९ १/२॥
श्लोक:
भगीरथो हि राजर्षिदिव्यं स्यन्दनमास्थितः॥३०॥
प्रायादग्रे महाराजस्तं गंगा पृष्ठतोऽन्वगात्।
भावार्थ :-
(हम पहले बता आये हैं कि) राजर्षि महाराज भगीरथ दिव्य रथपर आरूढ़ हो आगे-आगे चल रहे थे और गंगाजी उनके पीछे-पीछे जा रही थीं॥३० १/२॥
श्लोक:
देवाः सर्षिगणाः सर्वे दैत्यदानवराक्षसाः॥३१॥
गन्धर्वयक्षप्रवराः सकिंनरमहोरगाः।
सर्पाश्चाप्सरसो राम भगीरथरथानुगाः॥३२॥
गंगामन्वगमन् प्रीताः सर्वे जलचराश्च ये।
भावार्थ :-
श्रीराम! उस समय समस्त देवता, ऋषि, दैत्य, दानव, राक्षस, गन्धर्व, यक्षप्रवर, किन्नर, बड़े-बड़े नाग, सर्प तथा अप्सरा—ये सब लोग बड़ी प्रसन्नताके साथ राजा भगीरथ के रथ के पीछे गंगाजी के साथ-साथ चल रहे थे। सब प्रकार के जलजन्तु भी गंगाजी की उस जलराशि के साथ सानन्द जा रहे थे॥३१-३२ १/२॥
श्लोक:
यतो भगीरथो राजा ततो गंगा यशस्विनी॥३३॥
जगाम सरितां श्रेष्ठा सर्वपापप्रणाशिनी।
भावार्थ :-
जिस ओर राजा भगीरथ जाते, उसी ओर समस्त पापों का नाश करनेवाली सरिताओंमें श्रेष्ठ यशस्विनी गंगा भी जाती थीं॥३३ १/२॥
श्लोक:
ततो हि यजमानस्य जोरद्भुतकर्मणः॥३४॥
गंगा सम्प्लावयामास यज्ञवाटं महात्मनः।
भावार्थ :-
उस समय मार्ग में अद्भुत पराक्रमी महामना राजा जह्नु यज्ञ कर रहे थे, गंगा जी अपने जल-प्रवाह से उनके यज्ञमण्डप को बहा ले गयीं॥३४ १/२॥
श्लोक:
तस्यावलेपनं ज्ञात्वा क्रुद्धो जनुश्च राघव॥३५॥
अपिबत् तु जलं सर्वं गंगायाः परमाद्भुतम्।
भावार्थ :-
रघुनन्दन! राजा जगु इसे गंगाजी का गर्व समझकर कुपित हो उठे; फिर तो उन्होंने गंगाजी के उस समस्त जलको पी लिया। यह संसार के लिये बड़ी अद्भुत बात हुई॥३५ १/२॥
श्लोक:
ततो देवाः सगन्धर्वा ऋषयश्च सुविस्मिताः॥३६॥
पूजयन्ति महात्मानं जलुं पुरुषसत्तमम्।
भावार्थ :-
तब देवता, गन्धर्व तथा ऋषि अत्यन्त विस्मित होकर पुरुषप्रवर महात्मा जलु की स्तुति करने लगे॥३६ १/२॥
श्लोक:
गंगां चापि नयन्ति स्म दुहितृत्वे महात्मनः॥३७॥
ततस्तुष्टो महातेजाः श्रोत्राभ्यामसृजत् प्रभुः।
तस्माज्जनुसुता गंगा प्रोच्यते जाह्नवीति च॥३८॥
भावार्थ :-
उन्होंने गंगाजी को उन महात्मा नरेश की कन्या बना दिया। (अर्थात् उन्हें यह विश्वास दिलाया कि गंगाजी को प्रकट करके आप इनके पिता कहलायेंगे।) इससे सामर्थ्यशाली महातेजस्वी जलु बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने कानों के छिद्रोंद् वारा गंगाजी को पुनः प्रकट कर दिया, इसलिये गंगा जलु की पुत्री एवं जाह्नवी कहलाती हैं॥३७-३८॥
श्लोक:
जगाम च पुनर्गङ्गा भगीरथरथानुगा।
सागरं चापि सम्प्राप्ता सा सरित्प्रवरा तदा॥३९॥
रसातलमुपागच्छत् सिद्धयर्थं तस्य कर्मणः।
भावार्थ :-
वहाँ से गंगा फिर भगीरथ के रथका अनुसरण करती हुई चलीं,उस समय सरिताओं में श्रेष्ठ जाह्नवी समुद्र तक जा पहुँची और राजा भगीरथ के पितरों के उद्धाररूपी कार्यकी सिद्धि के लिये रसातल में गयीं॥३९ १/२॥
श्लोक:
भगीरथोऽपि राजर्षिर्गङ्गामादाय यत्नतः॥४०॥
पितामहान् भस्मकृतानपश्यद् गतचेतनः।
भावार्थ :-
राजर्षि भगीरथ भी यत्नपूर्वक गंगाजीको साथ ले वहाँ गये। उन्होंने शापसे भस्म हए अपने पितामहोंको अचेत-सा होकर देखा॥४० १/२॥
श्लोक:
अथ तद्भस्मनां राशिं गंगासलिलमुत्तमम्।
प्लावयत् पूतपाप्मानः स्वर्गं प्राप्ता रघूत्तम॥४१॥
भावार्थ :-
रघुकुल के श्रेष्ठ वीर! तदनन्तर गंगा के उस उत्तम जल ने सगर-पुत्रों की उस भस्मराशि को आप्लावित कर दिया और वे सभी राजकुमार निष्पाप होकर स्वर्ग में पहुँच गये॥४१॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे त्रिचत्वारिंशः सर्गः॥४३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में तैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥४३॥
अखंड रामायण
• बालकाण्ड– (भावार्थ सहित/रहित)
• अयोध्याकाण्ड– (भावार्थ सहित/रहित)
• अरण्यकाण्ड– (भावार्थ सहित/रहित)
• किष्किन्धाकाण्ड– (भावार्थ सहित/रहित)
• सुन्दरकाण्ड– (भावार्थ सहित/रहित)
• लंकाकाण्ड– (भावार्थ सहित/रहित)
• उत्तरकाण्ड– (भावार्थ सहित/रहित)
► श्री भगवद् गीता
► श्री गरुड़पुराण

