वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- २३

बालकाण्ड सर्ग- २३

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बालकाण्ड सर्ग- २३

॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ श्री कमलापति नम: ॥
॥ श्री जानकीवल्लभो विजयते ॥
॥ श्री वाल्मीकि रामायण ॥
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बालकाण्ड सर्ग- २३
बालकाण्ड सर्ग- २३

वाल्मीकि रामायण
(भावार्थ सहित)
सब एक ही स्थान पर

बालकाण्ड सर्ग- २३

बालकाण्ड सर्ग- २३

बालकाण्डम्
त्रयोविंशः सर्गः (सर्ग 23)

( विश्वामित्र सहित श्रीराम और लक्ष्मण का सरयू-गंगा संगम के समीप पुण्य आश्रम में रात को ठहरना )

श्लोक:
प्रभातायां तु शर्वर्यां विश्वामित्रो महामुनिः।
अभ्यभाषत काकुत्स्थौ शयानौ पर्णसंस्तरे॥१॥

भावार्थ :-
जब रात बीती और प्रभात हुआ, तब महामुनि विश्वामित्र ने तिनकों और पत्तों के बिछौने पर सोये हुए उन दोनों ककुत्स्थवंशी राजकुमारों से कहा-॥१॥

श्लोक:
कौसल्या सुप्रजा राम पूर्वा संध्या प्रवर्तते।
उत्तिष्ठ नरशार्दूल कर्तव्यं दैवमाह्निकम्॥२॥

भावार्थ :-
‘नरश्रेष्ठ राम! तुम्हारे-जैसे पुत्र को पाकर महारानी कौसल्या सुपुत्रजननी कही जाती हैं। यह देखो, प्रातःकाल की संध्या का समय हो रहा है; उठो और प्रतिदिन किये जाने वाले देव सम्बन्धी कार्यों को पूर्ण करो’॥२॥

श्लोक:
तस्यर्षेः परमोदारं वचः श्रुत्वा नरोत्तमौ।
स्नात्वा कृतोदकौ वीरौ जेपतुः परमं जपम्॥३॥

भावार्थ :-
महर्षि का यह परम उदार वचन सुनकर उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरों ने स्नान करके देवताओं का तर्पण किया और फिर वे परम उत्तम जपनीय मन्त्र गायत्री का जप करने लगे॥३॥

श्लोक:
कृताह्निकौ महावीर्यो विश्वामित्रं तपोधनम्।
अभिवाद्यातिसंहृष्टौ गमनायाभितस्थतुः॥४॥

भावार्थ :-
नित्य कर्म समाप्त करके महापराक्रमी श्रीराम और लक्ष्मण अत्यन्त प्रसन्न हो तपोधन विश्वामित् रको प्रणाम करके वहाँ से आगे जाने को उद्यत हो गये॥४॥

श्लोक:
तौ प्रयान्तौ महावी? दिव्यां त्रिपथगां नदीम्।
ददृशाते ततस्तत्र सरय्वाः संगमे शुभे॥५॥

भावार्थ :-
जाते-जाते उन महाबली राजकुमारों ने गंगा और सरयू के शुभ संगम पर पहुँचकर वहाँ दिव्य त्रिपथगा नदी गंगाजी का दर्शन किया॥५॥

श्लोक:
तत्राश्रमपदं पुण्यमृषीणां भावितात्मनाम्।
बहुवर्षसहस्राणि तप्यतां परमं तपः॥६॥

भावार्थ :-
संगम के पास ही शुद्ध अन्तःकरण वाले महर्षियों का एक पवित्र आश्रम था, जहाँ वे कई हजार वर्षों से तीव्र तपस्या करते थे॥६॥

श्लोक:
तं दृष्ट्वा परमप्रीतौ राघवौ पुण्यमाश्रमम्।
ऊचतुस्तं महात्मानं विश्वामित्रमिदं वचः॥७॥

भावार्थ :-
उस पवित्र आश्रम को देखकर रघुकुलरत्न श्रीराम और लक्ष्मण बड़े प्रसन्न हुए उन्होंने महात्मा विश्वामित्र से यह बात कही— ॥७॥

श्लोक:
कस्यायमाश्रमः पुण्यः को न्वस्मिन् वसते पुमान्।
भगवञ्छ्रोतुमिच्छावः परं कौतूहलं हि नौ॥८॥

भावार्थ :-
‘भगवन्! यह किसका पवित्र आश्रम है? और इसमें कौन पुरुष निवास करता है? यह हम दोनों सुनना चाहते हैं इसके लिये हमारे मन में बड़ी उत्कण्ठा है’॥८॥

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श्लोक:
तयोस्तद् वचनं श्रुत्वा प्रहस्य मुनिपुंगवः।
अब्रवीच्छ्रयतां राम यस्यायं पूर्व आश्रमः॥९॥

भावार्थ :-
उन दोनों का यह वचन सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र हँसते हुए बोले- ’राम! यह आश्रम पहले जिसके अधिकार में रहा है, उसका परिचय देता हूँ, सुनो॥९॥

श्लोक:
कन्दर्पो मूर्तिमानासीत् काम इत्युच्यते बुधैः।
तपस्यन्तमिह स्थाणुं नियमेन समाहितम्॥१०॥

भावार्थ :-
‘विद्वान् पुरुष जिसे काम कहते हैं, वह कन्दर्प पूर्वकाल में मूर्तिमान् था- शरीर धारण करके विचरता था। उन दिनों भगवान् स्थाणु (शिव) इसी आश्रम में चित्तको एकाग्र करके नियमपूर्वक तपस्या करते थे॥१०॥

श्लोक:
कृतोद्धाहं तु देवेशं गच्छन्तं समरुद्गणम्।
धर्षयामास दुर्मेधा हुंकृतश्च महात्मना॥११॥

भावार्थ :-
‘एक दिन समाधि से उठकर देवेश्वर शिव मरुद्गणों के साथ कहीं जा रहे थे। उसी समय दुर्बुद्धि काम ने उन पर आक्रमण किया। यह देख महात्मा शिव ने हुङ्कार करके उसे रोका॥११॥

श्लोक:
अवध्यातश्च रुद्रेण चक्षुषा रघुनन्दन।
व्यशीर्यन्त शरीरात् स्वात् सर्वगात्राणि दुर्मते॥१२॥

भावार्थ :-
‘रघुनन्दन! भगवान् रुद्र ने रोष भरी दृष् टिसे अवहेलना-पूर्वक उसकी ओर देखा; फिर तो उस दुर्बुद्धि के सारे अंग उसके शरीर से जीर्ण-शीर्ण होकर गिर गये॥१२॥

श्लोक:
तत्र गात्रं हतं तस्य निर्दग्धस्य महात्मनः।
अशरीरः कृतः कामः क्रोधाद् देवेश्वरेण ह॥१३॥

भावार्थ :-
‘वहाँ दग्ध हुए महामना कन्दर्पका शरीर नष्ट हो गया,देवेश्वर रुद्र ने अपने क्रोध से कामको अंगहीन कर दिया॥१३॥

श्लोक:
अनंग इति विख्यातस्तदाप्रभृति राघव।
स चांगविषयः श्रीमान् यत्रांगं स मुमोच ह॥१४॥

भावार्थ :-
‘राम! तभीसे वह ‘अनंग’ नाम से विख्यात हुआ शोभाशाली कन्दर्प ने जहाँ अपना अंग छोड़ा था, वह प्रदेश अंगदेश के नाम से विख्यात हुआ॥१४॥

श्लोक:
तस्यायमाश्रमः पुण्यस्तस्येमे मुनयः पुरा।
शिष्या धर्मपरा वीर तेषां पापं न विद्यते॥१५॥

भावार्थ :-
‘यह उन्हीं महादेवजी का पुण्य आश्रम है। वीर! ये मुनि लोग पूर्वकाल में उन्हीं स्थाणु के धर्मपरायण शिष्य थे,इनका सारा पाप नष्ट हो गया है॥१५॥

श्लोक:
इहाद्य रजनीं राम वसेम शुभदर्शन।
पुण्ययोः सरितोर्मध्ये श्वस्तरिष्यामहे वयम्॥१६॥

भावार्थ :-
‘शुभदर्शन राम! आज की रात में हम लोग यहीं इन पुण्यसलिला सरिताओं के बीच में निवास करें। कल सबेरे इन्हें पार करेंगे॥१६॥

श्लोक:
अभिगच्छामहे सर्वे शुचयः पुण्यमाश्रमम्।
इह वासः परोऽस्माकं सुखं वत्स्यामहे निशाम्॥१७॥
स्नाताश्च कृतजप्याश्च हुतहव्या नरोत्तम।

भावार्थ :-
‘हम सब लोग पवित्र होकर इस पुण्य आश्रम में चलें। यहाँ रहना हमारे लिये बहुत उत्तम होगा। नरश्रेष्ठ! यहाँ स्नान करके जप और हवन करने के बाद हम रात में बड़े सुख से रहेंगे’॥१७ १/२॥

श्लोक:
तेषां संवदतां तत्र तपोदीर्घेण चक्षुषा॥१८॥
विज्ञाय परमप्रीता मुनयो हर्षमागमन्।

भावार्थ :-
वे लोग वहाँ इस प्रकार आपस में बातचीत कर ही रहे थे कि उस आश्रम में निवास करने वाले मुनि तपस्या द्वारा प्राप्त हुई दूर दृष्टि से उनका आगमन जानकर मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए, उनके हृदयमें हर्षजनित उल्लास छा गया॥१८ १/२॥

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श्लोक:
अर्घ्यं पाद्यं तथाऽऽतिथ्यं निवेद्य कुशिकात्मजे॥१९॥
रामलक्ष्मणयोः पश्चादकुर्वन्नतिथिक्रियाम्।

भावार्थ :-
उन्होंने विश्वामित्रजी को अर्घ्य, पाद्य और अतिथि सत्कार की सामग्री अर्पित करने के बाद श्रीराम और लक्ष्मण का भी आतिथ्य किया॥१९ १/२॥

श्लोक:
सत्कारं समनुप्राप्य कथाभिरभिरञ्जयन्॥२०॥
यथार्हमजपन् संध्यामृषयस्ते समाहिताः।

भावार्थ :-
यथोचित सत्कार करके उन मुनियों ने इन अतिथियों का भाँति-भाँति की कथा-वार्ताओं द्वारा मनोरञ्जन किया, फिर उन महर्षियों ने एकाग्रचित्त होकर यथावत् संध्यावन्दन एवं जप किया॥२० १/२॥

श्लोक:
तत्र वासिभिरानीता मुनिभिः सुव्रतैः सह॥२१॥
न्यवसन् सुसुखं तत्र कामाश्रमपदे तथा।

भावार्थ :-
तदनन्तर वहाँ रहने वाले मुनियों ने अन्य उत्तम व्रतधारी मुनियों के साथ विश्वामित्र आदि को शयन के लिये उपयुक्त स्थान में पहुँचा दिया। सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति करने वाले उस पुण्य आश्रम में विश्वामित्र आदि ने बड़े सुख से निवास किया॥२१ १/२॥

श्लोक:
कथाभिरभिरामाभिरभिरामौ नृपात्मजौ।
रमयामास धर्मात्मा कौशिको मुनिपुंगवः॥२२॥

भावार्थ :-
धर्मात्मा मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र ने उन मनोहर राजकुमारों का सुन्दर कथाओं द्वारा मनोरञ्जन किया॥२२॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे त्रयोविंशः सर्गः॥२३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें तेईसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२३॥

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