महर्षि दुर्वासा कथा

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महर्षि दुर्वासा कथा
महर्षि दुर्वासा का जन्म
ऋषि दुर्वासा के पिता महर्षि अत्री ब्रह्मा जी के मानस पुत्र कहे जाते है। महर्षि अत्री की पत्नी अनसुइया एक पतिव्रता पत्नी थी। इनकी पतिव्रता के चर्चे देवलोक तक थे। तब एक बार त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश की पत्नियाँ सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती जी ने अनसुइया के पतिव्रता धर्म की परीक्षा लेने का निर्णय लिया। तीनों देवियों ने अपने पतियों को देवी अनसुइया के सतीत्व की परीक्षा लेने के लिए उनके आश्रम भेजा।
त्रिदेव माता अनसुइया के तपोबल के आगे जीत न सके, और हार मान कर उनके साथ शिशु रूप में रहने लगे। तीनों देवियों को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने माता अनसुइया से अपने अपने पतियों को मुक्त करने के लिए प्राथना की। अनसुइया ने उनकी बात का मान रखा। तब त्रिदेव जाते समय देवी अनसुइया को वरदान देते है कि वे तीनों उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगें। कुछ समय बाद देवी अनसुइया को तीन पुत्र चंद्रमा (ब्रह्मा जी का रूप), दत्तात्रेय (विष्णु जी का रूप) और दुर्वासा (शिव जी का रूप) प्राप्त होते है।
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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-
हिन्दू पुराणों के अनुसार ऋषि दुर्वासा, जिन्हें दुर्वासस भी कहते है। पुराणों में ऋषि दुर्वासा का नाम मुख्य ऋषि मुनियों के साथ लिया जाता है। ऋषि दुर्वासा को युगों युगों तक याद किया गया है, ये महान ऋषि ने सतयुग, द्वापर और त्रेता युग में भी मानव जाति को ज्ञान की शिक्षा दी है। ऋषि दुर्वासा शिव जी का रूप माने जाते है, वे खुद भी शिव जी के बहुत बड़े भक्त थे। ऋषि दुर्वासा अत्याधिक गुस्से वाले थे, जिस तरह शिव जी का गुस्सा जल्दी शांत नहीं होता था, उसी तरह इनका भी गुस्सा बहुत खतरनाक था। ऋषि दुर्वासा को देवी देवता एवं समस्त मानव जाति द्वारा बहुत सम्मान प्राप्त था, वे जहाँ जाते थे उनको सम्मान मिलता था।
ऋषि दुर्वासा शिव के अवतार थे, लेकिन उनसे बिलकुल अलग थे। भगवान् शिव को मनाना जितना आसान था, ऋषि दुर्वासा को मनाना, प्रसन्न करना उतना ही मुश्किल काम था। लेकिन दोनों का गुस्सा एक समान था। ऋषि दुर्वासा का क्रोध इतना तेज था, जो कई बार उनके लिए भी घातक हो जाता था। क्रोध के चलते दुर्वासा किसी भी को दंड, श्राप दे दिया करते थे, उनके क्रोध से राजा, देवी-देवता, दैत्य, असुर कोई भी अछुता नहीं था।
ऋषि दुर्वासा सतयुग, त्रेता एवं द्वापर तीनों युगों में मौजूद थे। पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि वशिष्ठ, अत्रि, विश्वामित्र, दुर्वासा, अश्वत्थामा, राजा बलि, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम, मार्कण्डेय ऋषि, वेद व्यास और जामवन्त आदि कई ऋषि, मुनि और देवता हुए हैं जिनका जिक्र सभी युगों में पाया जाता है। कहते हैं कि ये आज सशरीर जीवित हैं।
महर्षि दुर्वासा और शकुंतला
कालिदास द्वारा लिखित अभिज्ञानशाकुन्तलम् के अनुसार ऋषि दुर्वासा शकुंतला से कहते है कि वे उनका स्वागत सत्कार करे, लेकिन शकुंतला जो अपने प्रेमी दुष्यंत का इंतजार कर रही होती है, ऋषि दुर्वासा ने मना कर देती है। तब ऋषि क्रोध में आकर उसे श्राप देते है कि उसका प्रेमी उसे भूल जाये। इस श्राप से भयभीत शकुन्तला ऋषि दुर्वासा से माफ़ी मांगती है, तब ऋषि श्राप को थोडा कम करते हुए कहते है कि दुष्यंत उन्हें तब पहचानेगा जब वो अपनी दी हुई अंगूठी देखेगा। ऋषि दुर्वासा ने जैसा कहा था वैसा ही होता है। शकुंतला और दुष्यंत मिल जाते है, और सुख से अपना जीवन व्यतीत करने लगते है, भारत नाम का उनका एक बेटा भी होता है।
दुर्वासा और कुंती
महाभारत में ऐसी बहुत सी कथाएं है, जहाँ ऋषि दुर्वासा से लोगों ने वरदान मांगे और उन्होंने प्रसन्न होकर उन्हें आशीषित किया। इन्ही में से एक है कुंती और दुर्वासा से जुड़ी कथा।
कुंती एक जवान लड़की थी, जिसे राजा कुंतीभोज ने गोद लिया हुआ था। राजा अपनी बेटी को एक राजकुमारी की तरह रखते थे। दुर्वासा एक बार राजा कुन्तिभोज के यहाँ मेहमान बनकर गए। वहां कुंती पुरे मन से ऋषि की सेवा और आव भगत की कुंती ने ऋषि के गुस्से को जानते हुए, उन्हें समझदारी के साथ खुश किया। ऋषि दुर्वासा कुंती की इस सेवा से बहुत खुश हुए,
और जाते वक्त उन्होंने कुंती को अथर्ववेद मन्त्र के बारे में बताया, जिससे कुंती अपने मनचाहे देव से प्राथना कर संतान प्राप्त कर सकती थी। मन्त्र कैसे काम करता है, ये देखने के लिए कुंती शादी से पहले सूर्य देव का आह्वान करती है, तब उन्हें कर्ण प्राप्त होता है, जिसे वे नदी में बहा देती है। फिर इसके बाद उनकी शादी पांडू से होती है, आगे चलकर इन्ही मन्त्रों का प्रयोग करके पांडव का जन्म हुआ था।
दुर्वासा, राम एवं लक्षमण
वाल्मीकि रामायण के अनुसार उत्तर कांड के समय एक बार ऋषि दुर्वासा राम के पास जाते है। वहां लक्षमण राम जी के दरबारी बन कर खड़े रहते है, तब ऋषि उनसे अंदर जाने की इच्छा प्रकट करते है। उस समय राम मृत्यु के देवता यम के साथ किसी विषय में गहन बात कर रहे होते है। बात शुरू होने से पहले यम राम को कहते है कि उनके बीच में जो भी बातचीत होगी वो किसी को नहीं पता चलनी चाहए, और बात के बीच में अगर कोई कमरे में आकर देखता या सुनता है तो मार दिया जायेगा। राम इस बात की हामी भर, वचन देते है और अपने भरोसेमंद भाई को दरवाजे के बाहर खड़ा कर देते है।
कुछ ही क्षण बाद वहा ऋषि दुर्वासा आ जाते है तब राम से मिलने की जिद करते है, तब लक्षमण उनसे प्यार से बोलते है कि वे राम की बात ख़त्म होने का इंतजार यहीं करें। ऋषि इस बात से क्रोधित हो जाते है और कहते है कि अगर लक्ष्मण राम से उनके आगमन के बारे में नहीं बताते है तो वे पूरी अयोध्या को श्राप दे देंगें। लक्ष्मण धर्म संकट में पड़ जाते है तब वे सोचते है कि पूरी अयोध्या के लोगों को बचाने के लिए उनका अकेला मरना सही है। तब बे राम जी के पास अंदर जाकर ऋषि दुर्वासा के आगमन की बात बताते है।
राम यम के साथ अपनी वार्तालाप ख़त्म करते है, और तुरंत ऋषि के पास उनकी सेवा के लिए चले जाते है। राम ऋषि दुर्वासा की आव भगत करते है, जिसके बाद ऋषि अपने रस्ते चले जाते है। इसके बाद राम को अपनी बात याद आती है, वे अपने पुत्र जैसे भाई लक्ष्मण को नहीं मारना चाहते है। लेकिन यम को दिए वचन के चलते वे मुश्किल में रहते है। तब राम इस दुविधा के हल के लिए गुरु वशिष्ठ को बुलाते है। वशिष्ठ, लक्ष्मण को आदेश देते है कि वे राम को छोड़ चले जाएँ, इस तरह का बिछड़ना मृत्यु के समान ही है। इसके बाद लक्ष्मण अपने पिता समान भाई को छोड़, सरायु नदी के तट पर चले जाते है।
अंबरीश से भेंट
श्रीमद भागवत में अंबरीश के साथ दुर्वासा के झगड़े की कहानी बहुत ही प्रसिद्ध है। अंबरीश भगवान भगवान विष्णु जी का महान भक्त था और सच बोलता था। अंबरीश ने अपने राज्य की सुख, शांति और समृद्धि के लिए पूरी श्रद्धा से एक यज्ञ कराया। एकबार, अंबरीश ने एकादशी का व्रत किया। जिसमें एकादशी को व्रत की शुरूआत होगी और द्वादशी को व्रत तोड़ा जाएगा। व्रत तोड़ने के बाद साधुजनों को भोजन कराना होगा। द्वादशी को जब व्रत तोड़ना का समय करीब आया तो अंबरीश के घर महर्षि दुर्वासा पधारे।
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अंबरीश ने महर्षि दुर्वासा का सादर स्वागत किया। अंबरीश ने उन्होंने भोजन करने के लिए आग्रह किया। महर्षि दुर्वासा ने अंबरीश का आग्रह स्वीकार कर लिया और कहा कि जब तक वो नदी से स्नान करके नहीं आते तब तक वो व्रत नहीं तोड़ें। काफी समय बीत गया, लेकिन महर्षि दुर्वासा नहीं आए। अंबरीश को व्रत तोड़ना था। गुरु वरिष्ठ के आग्रह पर अंबरीश ने तुलसी के दल से उपवास तोड़ा और ऋषि की प्रतीक्षा करने लगे। महर्षि दुर्वासा को लगा की अंबरीश ने उनके आये बिना व्रत तोड़कर उनका अपमान किया।
गुस्साये दुर्वासा ने अपने जटा से एक राक्षस पैदा किया और उसे अंबरीश को मारने को कहा, उसी समय भगवान नारायण के सुदर्शन चक्र ने राक्षस का वध कर दिया और अंबरीश की रक्षा की। इसके बाद सुदर्शन चक्र दुर्वासा का पीछा करने लगा। लेकिन महर्षि दुर्वासा के रूप में साक्षात शिव को पाकर वह रुक गया। उसी समय आकाशवाणी हुई, नंदी ने कहा, कि अंबरीश की परीक्षा लेने स्वयं शिव आए हैं इसलिए वह उनसे माफी मांग ले। अंबरीश ने ऐसा ही किया और महर्षि दुर्वासा ने उसे आशीर्वाद दिया।
ऋषि दुर्वासा के विषय में
ऋषि दुर्वासा के विषय में बहुत से हिन्दू पुराणों में लिखा हुआ है। जैसे:-
1. | विष्णु पुराण |
2. | श्रीमद भागवतम |
3. | वाल्मीकि रामायण |
4. | कालिदास |
5. | शकुंतला |
6. | स्वामीनारायण सत्संग |
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