माता शबरी की कथा | Mata Sabri Ki Katha




माता शबरी
ग्रंथों में मिलने वाली कथा के अनुसार माता शबरी भगवान श्री राम की परम भक्त थी। शबरी का असली नाम “श्रमणा” था। ये भील सामुदाय के शबर जाति से संबंध रखती थीं इसी कारण कालांतर में उनका नाम शबरी हुआ। शबरी के पिता भीलों के राजा थे। शबरी जब विवाहयोग्य हुई तो इनके पिता ने एक दूसरे भील कुमार से इनका विवाह पक्का किया। विवाह के दिन निकट आये। सैकडों बकरे-भैंसे बलिदान के लिये इकट्ठे किये गये।
शबरी ने पूछा- ये सब जानवर क्यों इकट्ठे किये गये हैं..? उत्तर मिला- तुम्हारे विवाह के उपलक्ष्य में इन सबका बलिदान होगा। भक्तिमती भोली बालिका सोचने लगी। यह कैसा विवाह जिसमें इतने प्राणियों का वध हो। इस विवाह से तो विवाह न करना ही अच्छा। ऐसा सोचकर वह रात्रि में उठकर जंगल में चली गयी और फिर लौटकर घर नहीं आयी।
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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-
शबरी जी पर गुरु कृपा- दण्डकारण्य में हजारों ऋषि-मुनि तपस्या करते थे, शबरी भीलनी जाति की थी, स्त्री थी, बालिका थी, अशिक्षिता थी। उसमें संसार की दृष्टि में भजन करने योग्य कोई गुण नहीं था। किन्तु उसके हृदय में प्रभु के लिये सच्ची चाह थी, जिसके होने से सभी गुण स्वत: ही आ जाते हैं। वे मुनि मतंग जी को अपना गुरु बनना चाहती थी पर उन्हें ये भी पता था कि भीलनी जाति कि होने पर वे उन्हें स्वीकार नहीं करेगे इसलिए वे गुरु सेवा में लग गई।
रात्रि में दो बजे उठती जिधर से ऋषि निकलते उस रास्ते को नदी तक साफ करती। कँकरीली जमीन में बालू बिछा आती। जंगल में जाकर लकडी काटकर हवन के लिए डाल आती। इन सब कामों को वह इतनी तत्परता से छिपकर करती कि कोई ऋषि देख न लें। यह कार्य वह वर्षो तक करती रही। अन्त में मतंग ऋषि ने उस पर कृपा की और ब्रह्मलोक जाते समय उससे कह गये कि मैं तेरी भक्ति से प्रसन्न हूँ। भगवान् स्वयं आकर तेरी कुटी पर ही तुझे दर्शन देंगे।
साधना का पथ- शबरी जी का इंतजार शुरू हो गया। सुबह उठते ही शबरी सोचती-प्रभु आज अवश्य ही पधारेंगे। यह सोचकर जल्दी-जल्दी दूर तक रास्ते को बुहार आती, पानी से छिडकाव करती। गोबर से जमीन लीपती। जंगल में जाकर मीठे-मीठे फलों को लाती, ताजे-ताजे पत्तों के दोने बनाकर रखती। ठंडा जल खूब साफ करके रखती और माला लेकर रास्ते पर बैठ जाती। एकटक निहारती रहती। तनिक सी आहट पाते ही उठ खडी होती।
बिना खाये-पीये सूर्योदय से सूर्यास्त तक बैठी रहती। जब अँधेरा हो जाता तो उठती, सोचती आज प्रभु किसी मुनि के आश्रम पर रह गये होंगे, कल जरूर आ जायँगे। बस, कल फिर इसी तरह बैठती और न आने पर कल के लिये पक्का विचार करती, ताजे फल लाती। इस प्रकार उसने बारह वर्ष बिता दिये।
“कब दर्शन देगे राम परम हितकारी, कब दर्शन देगे राम दीन हितकारी,
रास्ता देखत शबरी की उम्र गई सारी”।
गुरु के वचन असत्य तो हो नहीं सकते। आज नहीं तो कल जरूर आवेंगे इसी विचार से वह निराश कभी नहीं हुई। भगवान् सीधे शबरी के आश्रम पर पहुँचे। उन्होंने अन्य ऋषियों के आश्रमों की ओर देखा भी नहीं। शबरी के आनन्द का क्या ठिकाना.? वह चरणों में लोट-पोट हो गयी। नेत्र के अश्रुओं से पैर धोये, हृदय के सिंहासन पर भगवान् को बिठाया, भक्ति के उद्रेक में वह अपने आपको भूल गयी। सुन्दर-सुन्दर फल खिलाये और पंखा लेकर बैठ गयी। फिर शबरी ने स्तुति की, भगवान् ने नवधा भक्ति बतलायी, और शबरी को नवधा भक्ति से युक्त बतलाकर उसे निहाल किया। फिर शबरी जी अपने गुरु लोक को गई।
भगवान राम का शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश
“ नवधा भगति कहउँ तोहि पाही, सावधान सुनु धरू मन माही य
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा, दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ”
भावार्थ:- में अब तुझसे अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ, तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर,पहली भक्ति है संतो का सत्संग, दूसरी भक्ति है मेरा कथा प्रंसग में प्रेम।
“ गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भक्ति अमान
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ”
भावार्थ:- तीसरी भक्ति है अभिमान रहित होकर गुरु के चरणकमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोडकर मेरे गुण समूहों का गान करे।
“ मंत्र जाप में मम दृंढ बिस्वासा, पंचम भजन सों बेद प्रकासा
छठ दम सील बिरति बहु करमा, निरत निरंतर सज्जन धरमा ॥”
भावार्थ:- मेरे राम मंत्र का जाप और मुझ में दृढं विश्वास यह पांचवी भक्ति है जो वेदों में प्रसिद्ध है छटी भक्ति है इन्द्रियों का निग्रह, शील स्वभाव बहुत कार्यो से वैराग्य और निरंतर संतपुरुषो के धर्म आचरण में लगे रहना।
“ सातवँ सम मोहि मय जग देखा,मोते संत अधिक करि लेखा
आठवँ जथालाभ संतोषा सपनेहूँ नहि देखइ परदोषा ॥”
भावार्थ:- सातवी भक्ति है जगत भर को समभाव से मुझमे ओतप्रोत देखना और संतो को मुझसे भी अधिक करके मानना.आठवी भक्ति है जो कुछ मिल जाये उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराये दोषो को ना देखना।
“ नवम सरल सब सन छलहीना,मम भरोस हियँ हरष न दीना
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई नारी पुरुष सचराचर कोई ॥”
भावार्थ:- नवी भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना ह्रदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और विषाद का ना होना इन नवो में से जिनके एक भी होती है वह स्त्री-पुरुष जड़-चेतन कोई भी हो।
“ सोइ अतिसय प्रिये भामिनि मोरें,सकल प्रकार भगति दृढ तोरें,
जोगि वृन्द दुरलभ गति जोई , तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई ॥”
भावार्थ:- हे भामिनी ! मुझे वही अत्यन्त प्रिय है, फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है, अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है वही आज तेरे लिये सुलभ हो गयी है।
एक साधक कैसा होना चाहिये ये शबरी जी हमें सिखा रही है।
१- गुरु वाणी में कितना दृढ विश्वास एक बार भी गुरु से नहीं पूछा कि समय तो बताते जाओ कि कब दर्शन देगे साधना का पथ भी यही कहता है गुरु ने जो कह दिया बस उनकी बात पर श्रद्धा होनी चाहिये शबरी जी की तरह, गुरु वचन में यदि शबरी जी की तरह श्रद्धा होनी चाहिये तर्क वितर्क नहीं।
२- शबरी जी अपने कुटियाँ के चारो तरफ की रास्ते पर रोज फूल बिछाती थी, बुहारती थी, मानो बता रही है कि ये जो हमारा शरीर में भी रास्ते है, जिनसे भगवान हमारे अंदर प्रवेश करते है हमारी आँखे, कान, नाक, मुह, ये भगवान के आने के रास्ते है और भगवान कब आयेगे जब हम इन रास्तो को बुहारकर रखेगे। इनसे बुरी चीजे अंदर नहीं जाने देगे,
३- शबरी जी की सारी उम्र बीत गई पर अपना उत्साह नहीं छोड़ा, धैर्य नहीं छोड़ा वे बता रही है कि साधक को भी धैर्य और विश्वास कभी नहीं छोडना चाहिये। क्योकि परमात्मा “धैर्य और विश्वास” से ही मिलते है।
और भगवान रामचंद्र भी बता रहे है कि जिस साधक में शबरी जैसी भक्ति हो, मेरा ऐसा भक्त किसी जंगल में क्यों ना बैठा हो उसे मुझे ढूँढने कि आवश्यक नहीं है में स्वयं उसे ढूँढता हुआ उस तक पहुँच जाता हूँ।
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