वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- १५

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॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ श्री कमलापति नम: ॥
॥ श्री जानकीवल्लभो विजयते ॥
॥ श्री वाल्मीकि रामायण ॥
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वाल्मीकि रामायण
(भावार्थ सहित)
सब एक ही स्थान पर

बालकाण्ड सर्ग- १५
बालकाण्डम्
पञ्चदशः सर्गः (सर्ग 15)
( ऋष्यशृंग द्वारा राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ का आरम्भ, ब्रह्माजी का रावण के वध का उपाय ढूँढ़ निकालना तथा भगवान् विष्णु का देवताओं को आश्वासन देना )
श्लोक:
मेधावी तु ततो ध्यात्वा स किञ्चिदिदमुत्तरम्।
लब्धसंज्ञस्ततस्तं तु वेदज्ञो नृपमब्रवीत्॥१॥
भावार्थ :-
महात्मा ऋष्यशृंग बड़े मेधावी और वेदों के ज्ञाता थे। उन्होंने थोड़ी देर तक ध्यान लगाकर अपने भावी कर्तव्य का निश्चय किया। फिर ध्यान से विरत हो वे राजा से इस प्रकार बोले-॥१॥
श्लोक:
इष्टिं तेऽहं करिष्यामि पुत्रीयां पुत्रकारणात्।
अथर्वशिरसि प्रोक्तैर्मन्त्रैः सिद्धां विधानतः॥२॥
भावार्थ :-
महाराज! मैं आपको पुत्र की प्राप्ति कराने के लिये अथर्ववेद के मन्त्रों से पुत्रेष्टि नामक यज्ञ करूँगा। वेदोक्त विधि के अनुसार अनुष्ठान करने पर वह यज्ञ अवश्य सफल होगा’॥२॥
श्लोक:
ततः प्राक्रमदिष्टिं तां पुत्रीयां पुत्रकारणात्।
जुहावाग्नौ च तेजस्वी मन्त्रदृष्टेन कर्मणा॥३॥
भावार्थ :-
यह कहकर उन तेजस्वी ऋषि ने पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से पुत्रेष्टि नामक यज्ञ प्रारम्भ किया और श्रौत विधि के अनुसार अग्नि में आहुति डाली॥३॥
श्लोक:
ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः।
भागप्रतिग्रहार्थं वै समवेता यथाविधि॥४॥
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भावार्थ :-
तब देवता, सिद्ध, गन्धर्व और महर्षिगण विधि के अनुसार अपना-अपना भाग ग्रहण करने के लिये उस यज्ञ में एकत्र हुए॥४॥
श्लोक:
ताः समेत्य यथान्यायं तस्मिन् सदसि देवताः।
अब्रुवँल्लोककर्तारं ब्रह्माणं वचनं ततः॥५॥
भावार्थ :-
उस यज्ञ-सभा में क्रमशः एकत्र होकर (दूसरों की दृष्टि से अदृश्य रहते हुए) सब देवता लोककर्ता ब्रह्माजी से इस प्रकार बोले-॥५॥
श्लोक:
भगवंस्त्वत्प्रसादेन रावणो नाम राक्षसः।
सर्वान् नो बाधते वीर्याच्छासितुं तं न शक्नुमः॥६॥
भावार्थ :-
भगवन्! रावण नामक राक्षस आपका कृपा प्रसाद पाकर अपने बल से हम सब लोगों को बड़ा कष्ट दे रहा है। हममें इतनी शक्ति नहीं है कि अपने पराक्रम से उसको दबा सकें॥६॥
श्लोक:
त्वया तस्मै वरो दत्तः प्रीतेन भगवंस्तदा।
मानयन्तश्च तं नित्यं सर्वं तस्य क्षमामहे॥७॥
भावार्थ :-
प्रभो! आपने प्रसन्न होकर उसे वर दे दिया है। तब से हम लोग उस वरका सदा समादर करते हुए उसके सारे अपराधों को सहते चले आ रहे हैं॥७॥
श्लोक:
उद्धेजयति लोकांस्त्रीनुच्छ्रितान् द्वेष्टि दुर्मतिः।
शक्रं त्रिदशराजानं प्रधर्षयितुमिच्छति॥८॥
भावार्थ :-
उसने तीनों लोकों के प्राणियों का नाकों दम कर रखा है। वह दुष्टात्मा जिनको कुछ ऊँची स्थिति में देखता है, उन्हीं के साथ द्वेष करने लगता है देवराज इन्द्र को परास्त करने की अभिलाषा रखता है॥८॥
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श्लोक:
ऋषीन् यक्षान् सगन्धर्वान् ब्राह्मणानसुरांस्तदा।
अतिक्रामति दुर्धर्षो वरदानेन मोहितः॥९॥
भावार्थ :-
आपके वरदान से मोहित होकर वह इतना उद्दण्ड हो गया है कि ऋषियों, यक्षों, गन्धर्वो, असुरों तथा ब्राह्मणों को पीड़ा देता और उनका अपमान करता फिरता है॥९॥
श्लोक:
नैनं सूर्यः प्रतपति पार्वे वाति न मारुतः।
चलोर्मिमाली तं दृष्ट्वा समुद्रोऽपि न कम्पते॥१०॥
भावार्थ :-
सूर्य उसको ताप नहीं पहुँचा सकते। वायु उसके पास जोर से नहीं चलती तथा जिसकी उत्ताल तरंगें सदा ऊपर-नीचे होती रहती हैं, वह समुद्र भी रावण को देखकर भय के मारे स्तब्ध-सा हो जाता है उसमें कम्पन नहीं होता॥१०॥
श्लोक:
तन्महन्नो भयं तस्माद् राक्षसाद् घोरदर्शनात्।
वधार्थं तस्य भगवन्नुपायं कर्तुमर्हसि॥११॥
भावार्थ :-
वह राक्षस देखने में भी बड़ा भयंकर है। उससे हमें महान् भय प्राप्त हो रहा है; अतः भगवन्! उसके वध के लिये आपको कोई-न-कोई उपाय अवश्य करना चाहिये’॥११॥
श्लोक:
एवमुक्तः सुरैः सर्वैश्चिन्तयित्वा ततोऽब्रवीत्।
हन्तायं विदितस्तस्य वधोपायो दुरात्मनः॥१२॥
तेन गन्धर्वयक्षाणां देवतानां च रक्षसाम्।
अवध्योऽस्मीति वागुक्ता तथेत्युक्तं च तन्मया॥१३॥
भावार्थ :-
समस्त देवताओं के ऐसा कहने पर ब्रह्माजी कुछ सोचकर बोले- ‘देवताओ! लो, उस दुरात्मा के वध का उपाय मेरी समझ में आ गया। उसने वर माँगते समय यह बात कही थी कि मैं गन्धर्व, यक्ष, देवता तथा राक्षसों के हाथ से न मारा जाऊँ। मैंने भी ‘तथास्तु’ कहकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली॥१२-१३॥
श्लोक:
नाकीर्तयदवज्ञानात् तद् रक्षो मानुषांस्तदा।
तस्मात् स मानुषाद् वध्यो मृत्यु न्योऽस्य विद्यते॥१४॥
भावार्थ :-
मनुष्यों को तो वह तुच्छ समझता था, इसलिये उनके प्रति अवहेलना होने के कारण उन से अवध्य होने का वरदान नहीं माँगा। इसलिये अब मनुष्य के हाथ से ही उसका वध होगा। मनुष्य के सिवा दूसरा कोई उसकी मृत्यु का कारण नहीं है’॥१४॥
श्लोक:
एतच्छ्रुत्वा प्रियं वाक्यं ब्रह्मणा समुदाहृतम्।
देवा महर्षयः सर्वे प्रहृष्टास्तेऽभवंस्तदा॥१५॥
भावार्थ :-
ब्रह्माजी की कही हुई यह प्रिय बात सुनकर उस समय समस्त देवता और महर्षि बड़े प्रसन्न हुए॥१५॥
श्लोक:
एतस्मिन्नन्तरे विष्णुरुपयातो महाद्युतिः।
शङ्खचक्रगदापाणिः पीतवासा जगत्पतिः॥१६॥
वैनतेयं समारुह्य भास्करस्तोयदं यथा।
भावार्थ :-
इसी समय महान् तेजस्वी जगत्पति भगवान् विष्णु भी मेघ के ऊपर स्थित हुए सूर्य की भाँति गरुड़ पर सवार हो वहाँ आ पहुँचे। उनके शरीर पर पीताम्बर और हाथों में शंख, चक्र एवं गदा आदि आयुध शोभा पा रहे थे॥१६ १/२॥
श्लोक:
तप्तहाटककेयूरो वन्द्यमानः सुरोत्तमैः॥१७॥
ब्रह्मणा च समागत्य तत्र तस्थौ समाहितः।
भावार्थ :-
उनकी दोनों भुजाओं में तपाये हुए सुवर्ण के बने केयूर प्रकाशित हो रहे थे। उस समय सम्पूर्ण देवताओं ने उनकी वन्दना की और वे ब्रह्माजी से मिलकर सावधानी के साथ सभा में विराजमान हो गये॥१६-१७ १/२॥
श्लोक:
तमब्रुवन् सुराः सर्वे समभिष्ट्रय संनताः॥१८॥
त्वां नियोक्ष्यामहे विष्णो लोकानां हितकाम्यया।
भावार्थ :-
तब समस्त देवताओं ने विनीत भाव से उनकी स्तति करके कहा- ’सर्वव्यापी परमेश्वर! हम तीनों लोकों के हित की कामना से आपके ऊपर एक महान् कार्य का भार दे रहे हैं॥१८ १/२॥
श्लोक:
राज्ञो दशरथस्य त्वमयोध्याधिपतेर्विभो॥१९॥
धर्मज्ञस्य वदान्यस्य महर्षिसमतेजसः।
अस्य भार्यासु तिसृषु ह्रीश्रीकीर्तुपमासु च॥२०॥
भावार्थ :-
प्रभो! अयोध्या के राजा दशरथ धर्मज्ञ, उदार तथा महर्षियों के समान तेजस्वी हैं। उनके तीन रानियाँ हैं जो ह्री, श्री और कीर्ति इन तीन देवियों के समान हैं॥१९-२०॥
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श्लोक:
विष्णो पुत्रत्वमागच्छ कृत्वाऽऽत्मानं चतुर्विधम्।
तत्र त्वं मानुषो भूत्वा प्रवृद्ध लोककण्टकम्॥२१॥
अवध्यं दैवतैर्विष्णो समरे जहि रावणम्।
भावार्थ :-
विष्णुदेव! आप अपने चार स्वरूप बनाकर राजा की उन तीनों रानियों के गर्भ से पुत्र रूप में अवतार ग्रहण कीजिये। इस प्रकार मनुष्य रूप में प्रकट होकर आप संसार के लिये प्रबल कण्टक रूप रावण को, जो देवताओं के लिये अवध्य है, समरभूमि में मार डालिये॥२१ १/२॥
श्लोक:
स हि देवान् सगन्धर्वान् सिद्धांश्च ऋषिसत्तमान्॥२२॥
राक्षसो रावणो मूो वीर्योद्रेकेण बाधते।
भावार्थ :-
वह मूर्ख राक्षस रावण अपने बढ़े हुए पराक्रम से देवता, गन्धर्व, सिद्ध तथा श्रेष्ठ महर्षियों को बहुत कष्ट दे रहा है॥२२ १/२॥
श्लोक:
ऋषयश्च ततस्तेन गन्धर्वाप्सरसस्तथा॥२३॥
क्रीडन्तो नन्दनवने रौद्रेण विनिपातिताः।
भावार्थ :-
उस रौद्र निशाचर ने ऋषियों को तथा नन्दनवन में क्रीड़ा करने वाले गन्धर्वो और अप्सराओं को भी स्वर्ग से भूमि पर गिरा दिया है॥२३ १/२॥
श्लोक:
वधार्थं वयमायातास्तस्य वै मुनिभिः सह ॥२४॥
सिद्धगन्धर्वयक्षाश्च ततस्त्वां शरणं गताः।
भावार्थ :-
इसलिये मुनियों सहित हम सब सिद्ध, गन्धर्व, यक्ष तथा देवता उसके वध के लिये आपकी शरण में आये हैं॥२४ १/२॥
श्लोक:
त्वं गतिः परमा देव सर्वेषां नः परंतप॥२५॥
वधाय देवशत्रूणां नृणां लोके मनः कुरु।
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भावार्थ :-
शत्रुओं को संताप देने वाले देव! आप ही हम सब लोगों की परमगति हैं, अतः इन देवद्रोहियों का वध करने के लिये आप मनुष्य लोक में अवतार लेने का निश्चय कीजिये’॥२५ १/२॥
श्लोक:
एवं स्तुतस्तु देवेशो विष्णुस्त्रिदशपुंगवः॥२६॥
पितामहपुरोगांस्तान् सर्वलोकनमस्कृतः।
अब्रवीत् त्रिदशान् सर्वान् समेतान् धर्मसंहितान्॥२७॥
भावार्थ :-
उनके इस प्रकार स्तुति करने पर सर्वलोक वन्दित देव प्रवर देवाधिदेव भगवान् विष्णु ने वहाँ एकत्र हुए उन समस्त ब्रह्मा आदि धर्मपरायण देवताओं से कहा-॥२६-२७॥
श्लोक:
भयं त्यजत भद्रं वो हितार्थं युधि रावणम्।
सपुत्रपौत्रं सामात्यं समन्त्रिज्ञातिबान्धवम्॥२८॥
भावार्थ :-
देवगण! तुम्हारा कल्याण हो। तुम भय को त्याग दो। मैं तुम्हारा हित करने के लिये रावण को पुत्र, पौत्र, अमात्य, मन्त्री और बन्धुबान्धवों सहित युद्ध में मार डालूँगा॥२८॥
श्लोक:
हत्वा क्रूरं दुराधर्षं देवर्षीणां भयावहम्।
दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च॥२९॥
वत्स्यामि मानुषे लोके पालयन् पृथिवीमिमाम्।
भावार्थ :-
देवताओं तथा ऋषियों को भय देने वाले उस क्रूर एवं दुर्धर्ष राक्षस का नाश करके मैं ग्यारह हजार वर्षां तक इस पृथ्वी का पालन करता हुआ मनुष्य लोक में निवास करूँगा॥२८-२९ १/२॥
श्लोक:
एवं दत्त्वा वरं देवो देवानां विष्णुरात्मवान्॥३०॥
मानुष्ये चिन्तयामास जन्मभूमिमथात्मनः।
भावार्थ :-
देवताओं को ऐसा वर देकर मनस्वी भगवान् विष्णु ने मनुष्य लोक में पहले अपनी जन्म भूमि के सम्बन्ध में विचार किया॥३० १/२॥
श्लोक:
ततः पद्मपलाशाक्षः कृत्वाऽऽत्मानं चतुर्विधम्॥३१॥
पितरं रोचयामास तदा दशरथं नृपम्।
भावार्थ :-
इसके बाद कमल नयन श्रीहरि ने अपने को चार स्वरूपों में प्रकट करके राजा दशरथ को पिता बनाने का निश्चय किया॥३१ १/२॥
श्लोक:
ततो देवर्षिगन्धर्वाः सरुद्राः साप्सरोगणाः।
स्तुतिभिर्दिव्यरूपाभिस्तुष्टवुर्मधुसूदनम्॥३२॥
भावार्थ :-
तब देवता, ऋषि, गन्धर्व, रुद्र तथा अप्सराओं ने दिव्य स्तुतियों के द्वारा भगवान् मधुसूदन का स्तवन किया॥३२॥
श्लोक:
तमुद्धतं रावणमुग्रतेजसं प्रवृद्धदएँ त्रिदशेश्वरद्विषम्।
विरावणं साधुतपस्विकण्टकं तपस्विनामुद्धर तं भयावहम्॥३३॥
भावार्थ :-
वे कहने लगे- ’प्रभो! रावण बड़ा उद्दण्ड है। उसका तेज अत्यन्त उग्र और घमण्ड बहुत बढ़ा चढ़ा है। वह देवराज इन्द्र से सदा द्वेष रखता है। तीनों लोकों को रुलाता है, साधुओं और तपस्वी जनों के लिये तो वह बहुत बड़ा कण्टक है; अतः तापसों को भय देने वाले उस भयानक राक्षस की आप जड़ उखाड़ डालिये॥३३॥
श्लोक:
तमेव हत्वा सबलं सबान्धवं विरावणं रावणमुग्रपौरुषम्।
स्वर्लोकमागच्छ गतज्वरश्चिरं सुरेन्द्रगुप्तं गतदोषकल्मषम्॥३४॥
भावार्थ :-
उपेन्द्र! सारे जगत् को रुलाने वाले उस उग्र पराक्रमी रावण को सेना और बन्धु-बान्धवों सहित नष्ट करके अपनी स्वाभाविक निश्चिन्तता के साथ अपने ही द्वारा सुरक्षित उस चिरन्तन वैकुण्ठधाम में आ जाइये; जिसे राग-द्वेष आदि दोषों का कलुष कभी छू नहीं पाता है’॥३४॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे पञ्चदशः सर्गः ॥१५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में पंद्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥१५॥
अखंड रामायण
• बालकाण्ड– (भावार्थ सहित/रहित)
• अयोध्याकाण्ड– (भावार्थ सहित/रहित)
• अरण्यकाण्ड– (भावार्थ सहित/रहित)
• किष्किन्धाकाण्ड– (भावार्थ सहित/रहित)
• सुन्दरकाण्ड– (भावार्थ सहित/रहित)
• लंकाकाण्ड– (भावार्थ सहित/रहित)
• उत्तरकाण्ड– (भावार्थ सहित/रहित)
► श्री भगवद् गीता
► श्री गरुड़पुराण

