ब्रह्मा अवतार तथा ब्रह्माण्ड की रचना

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ब्रह्मा अवतार तथा ब्रह्माण्ड की रचना
पौराणिक कथाओं के आधार पर महाप्रलय के बाद कालात्मिका शक्ति को अपने शरीर में निविष्ट कर भगवान नारायण दीर्घकाल तक योग निद्रा में निमग्न रहे। महाप्रलय की अवधि समाप्त होने पर उनके नेत्र उन्मीलित हुए और सभी गुणों का आश्रय लेकर वे सृष्टि के कार्य के लिए प्रबुद्ध हुए।
उसी समय उनकी नाभि से एक दिव्य कमल प्रकट हुआ, जिसकी कणिकाओं में स्वयम्भू ब्रह्मा, जो सम्पूर्ण ज्ञानमय और वेदरूप कहे गये है, प्रकट होकर दिखायी पड़े। उन्होंने शून्य में अपने चारों ओर नेत्रों को घुमा घुमाकर देखना प्रारम्भ किया।
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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-
इसी उत्सुकता में देखने की चेष्टा करने से चारों दिशाओं में उनके चार मुख प्रकट हो गये किंतु उन्हें कुछ भी दिखायी नहीं पड़ा और उन्हें यह चिन्ता हुई कि इस नाभिकमल में बैठा हुआ मै कौन हूँ और कहाँ से आया हूँ तथा यह कमल भी कहाँ से निकला है।
बहुत चिन्तन करने पर और दीर्घकाल तक तप-अनुसन्धान करने के बाद उन्होने उन परम पुरुष के दर्शन किये, जिन्हें पहले उन्होंने कभी नहीं देखा था और जो मृणाल गौर शेष शैया पर सो रहे थे तथा जिनके शरीर से महानीलमणि को लज्जित करने वाली तीव्र प्रकाशमयी छटा दसों दिशाओं को प्रकाशित कर रही थी।
ब्रह्मा जी को इससे बहुत प्रसन्नता हुई और उन्होनें उन भगवान विष्णु को सम्पूर्ण विश्व का तथा अपना भी मूल समझकर उनकी दिव्य स्तुति की। भगवान ने अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर उनसे कहा कि “अब आपको तप करने की आवश्यकता नहीं है, आप तपः शक्ति से सम्पन्न हो गये हैं और आपको मेरा अनुग्रह भी प्राप्त है। अब आप सृष्टि की रचना करने का प्रयत्न कीजिये। आपको अबाधित सफलता प्राप्त होगी”।
भगवान विष्णु की प्रेरणा से सरस्वती देवी ने ब्रह्मा जी के हृदय में प्रविष्ट होकर उनके चारों मुखों से उपवेद और अंगों सहित चारों वेदों का उन्हें ज्ञान कराया। पुनः उन्होंने सृष्टि-विस्तार के लिये सनकादि चार मानस पुत्रों के बाद मरीचि,पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, भृगु, वशिष्ठ तथा दक्ष आदि मानस पुत्रों को उत्पन्न किया और आगे स्वायम्भुवादि मनु आदि से सभी प्रकार की सृष्टि होती गयी।
इस कथानक से स्पष्ट है कि सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान नारायण के नाभिकमल से सर्व प्रथम ब्रह्मा जी का प्राकट्य हुआ। इसी से वे पद्मयोनि भी कहलाते हैं। नारायण की इच्छाशक्ति की प्रेरणा से स्वयं उत्पन्न होने के कारण ये स्वयम्भू भी कहलाते है। मानव सृष्टि के मूलहेतू स्वायम्भुव मनु भी उन्हीं के पुत्र थे और उन्ही के दक्षिण भाग से उत्पन्न हुए थे। स्वयम्भू या ब्रम्हा जी के पुत्र होने से वे स्वायम्भुव मनु कहलाते हैं।
ब्रह्मा जी के ही वामभाग से महारानी शतरूपा की उत्पत्ति हुई। स्वायम्भुव मनु तथा महारानी शतरूपा से ही मैथुनी सृष्टि का प्रारम्भ हुआ। सभी देवता ब्रह्मा जी के पौत्र माने गये हैं, अतः, देवताओं में वे पितामह नाम से प्रसिद्ध हैं।
ब्रह्मा जी यूं तो देवता, दानव तथा सभी जीवों के पितामह है, किंतु सृष्टि रचना के कारण वे धर्म एवं सदाचार के ही पक्षपाती हैं, अतः जब कभी पृथ्वी पर अधर्म बढ़ता है, अनीति बढ़ती है तथा पृथ्वीमाता दुराचारियों के भार से पीड़ित होती हैं तब कोई उपाय न देखकर वे गौ रूप धारण कर देवताओं सहित ब्रह्मा जी के पास ही जाती हैं।
इसी प्रकार जब कभी देवासुर संग्रामों में देवगण पराजित होकर अपना अधिकार खो बैठते हैं तो भी प्रायः वे सभी ब्रह्मा जी के पास ही जाते हैं और ब्रह्मा जी भगवान विष्णु की सहायता मांगकर उन्हें अवतार ग्रहण करने को प्रेरित करते हैं।
दुर्गा जी आदि के अवतारों में भी ये ही प्रार्थना करके उन्हें विभिन्न रूपों में अवतरित होने की प्रेरणा देते हैं और पुनः धर्म की स्थापना करने के पश्चात् देवताओं को यथा योग्य भाग का अधिकारी बनाते हैं। इस प्रकार से ब्रह्मा जी का समस्त जगत् तथा देवताओं पर महान् अनुग्रह है।
अपने अवतरण के मुख्य कार्य सृष्टि विस्तार को भलीभांति सम्पन्न कर वे अपने कार्यो तथा विविध अवतारों में प्रेरक बनकर जीव निकाय का महान् कल्याण करते हैं। ब्रह्मा जी के अवतरण का दूसरा मुख्य उद्देश्य था शास्त्र की उद्भावना तथा उसका संरक्षण। पुराणों में यह वर्णन आता है कि जब विष्णु जी के नाभिकमल से ब्रह्मा जी प्रकट हुए तो भगवान् विष्णु की प्रेरणा से ही देवी सरस्वती ने प्रकट होकर उनके चारों मुखों से वेदों का उच्चारण कर समस्त ज्ञानराशि का विस्तार किया।
ब्रह्मा जी के चार मुखों से चार वेद, उपवेद, न्यायशास्त्र, होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा आदि ऋत्विज् प्रकट हुए। इनके पूर्व मुख से ऋग्वेद, दक्षिण मुख से यजुर्वेद, पश्चिम मुख से सामवेद तथा उत्तर मुख से अथर्ववेद का आविर्भाव (प्रकटीकरण) हुआ।
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इतिहास पुराण रूप पंचम वेद भी उनके मुख से आविर्भूत हुआ। साथ ही शेाडषी, उक्थ्य, अग्रिश्होम, आतार्याम, बाजपेय आदि यज्ञ तथा विद्या, दान, तप और सत्य- ये धर्म के चार पाद भी प्रकट हुए। यज्ञकार्य में सर्वाधिक प्रयुक्त होनेवाली पवित्र समिधा और पलाष-वृक्ष ब्रह्मा जी का ही स्वरूप माना जाता है। अथर्ववेद तो ब्रह्मा जी के नाम से ही ब्रह्मवेद कहलाता है।
पांचों वेदों के ज्ञाता और यज्ञ के मुख्य निरीक्षक ऋत्विज् को ब्रह्मा के नाम से ही कहा जाता हैं, जो प्रायः यज्ञकुण्ड की दक्षिण दिशा में स्थित होकर यज्ञ-रक्षा और निरीक्षण का कार्य करते हैं। भगवान ब्रह्मा वेदज्ञानराशिमय, शांत, प्रसन्न और सृष्टि के रचयिता हैं। सृष्टि का निर्माण कर ये धर्म, सदाचार, ज्ञान, तप, वैराग्य तथा भगवद्भक्ति की प्रेरणा देते हुए सदा सौम्य स्वरूप में स्थित रहते है।
साररूप में वे कल्याण के मूल कारण हैं और समस्त पुरुषार्थों के सम्पादनपूर्वक अपनी सभी प्रजा-संततियों का सब प्रकार से अभ्युदय करते है। सावित्री और सरस्वती देवी के अधिष्ठाता होने से सद्बुद्धि के प्रेरक भी ये ही हैं।
मत्स्यपुराण में बताया गया है कि ब्रह्मा जी चतुर्मुख, चतुर्भुज एवं हंस पर आरूढ़ रहते है, यथारूचि वे कमल पर भी आसीन रहते है। उनके वामभाग में देवी सावित्री तथा दक्षिण भाग में देवी सरस्वती विराजमान रहती हैं। ब्रह्मलोक में जब भी ब्रह्मसभा होती है, वहां भगवान ब्रह्मा जी विराजमान रहते है, इनकी सभा को सुसुखा कहा गया है। इसे ब्रह्मा जी ने स्वयं अपने संकल्प से उत्पन्न किया था।
यह सभी के लिए सुखद हैं। यहाँ सूर्य, चन्द्रमा या अग्नि के प्रकाश की आवश्यकता नहीं हैं। यह अपने ही प्रकाश से प्रकाशित है। सभी वेद, शास्त्र, ऋषि, मुनि तथा देवता यहां मूर्तरूप होकर नित्य उनकी उपासना करते रहते हैं। समस्त कालचक्र भी मूर्तिमान होकर यहाँ उपस्थित रहता है। ब्रह्मा जी का दिन ही दैनन्दिन सृष्टि-चक्र का समय होता है।
उनका दिन ही कल्प कहलाता है, ‘एक कल्प में चौदह मन्वन्तर का समय होता है’, इतनी ही बड़ी उनकी रात्रि होती है। ब्रह्मा जी के दिन के उदय के साथ ही त्रैलोक्य की सृष्टि होती है ओर उनकी रात्रि ही प्रलय रूप है।
ब्रह्मा जी की परमायु ब्रह्मवर्ष के मान से एक सौ वर्ष है, इसे ‘पर’ कहते हैं। पुराणों तथा धर्म शास्त्रों के अनुसार इस समय ब्रहमा जी अपनी आयु का आधा भाग अर्थात् एक परार्ध–50 ब्राह्म दिव्य वर्ष बिताकर दूसरे परार्ध में चल रह हैं अर्थात् वर्तमान में उनके 51 वें वर्ष का प्रथम दिन या कल्प है।
उनके दिव्य सौ वर्ष की आयु में अनेक बार सृष्टि और प्रलय का क्रम चलता रहता है। इस प्रकार ब्रह्मा जी सृष्टि और स्रुष्ट्याँतर में चराचर जगत् के साक्षी बनकर स्वयं भी अवतरित होते हैं और अवतारों के प्रेरक भी बनते हैं। उनकी करुणा सब पर है।
ब्रह्मा जी ने हंस रूप में प्रकट होकर साध्यगणों को कल्याणकारी उपदेश दिया है। हंसरूपी ब्रह्मा जी कहते है कि वेदाध्ययन का सार है सत्यभाषण, सत्यभाषण का सार है इन्द्रियसंयम और इन्द्रियसंयम का फल है मोक्ष- यही सम्पूर्ण शास्त्रों का उपदेश है।
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संग के अमोघ प्रभाव को बताते हुए ब्रह्मा जी कहते है कि जैसे वस्त्र जिस रंग में रंगा जाए वैसा ही हो जाता है, उसी प्रकार यदि कोई सज्जन, असज्जन, तपस्वी अथवा चोर का साथ करता है तो वह भी उन्हीं के जैसा हो जाता है अर्थात् उस पर उन्हीं का रंग चढ़ जाता है। इसलिये कल्याण कामी जनों को चाहिए कि वे सज्जनों का ही साथ करें।
सर्वदेवमयी गौ सुरभी भी ब्रह्मा जी के वर से ही महनीय पद को प्राप्त कर सकी है। महाभारत में इस बात को देवराज इन्द्र से बताते हुए ब्रह्मा जी ने कहा कि “हे शचीपते ! जब मैने सुरभी देवी से कहा कि मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ, वर मांगो”, तब सुरभी ने कहा ‘लोक पितामह ! आपकी प्रसन्नता ही मेरे लिए सबसे बड़ा वर है’।
सुरभी की बात सुनकर उसकी निष्काम तपस्या से अभिभूत हो ब्रह्मा जी ने उसे अमरत्व का वर दे दिया और उससे कहा तुम मेरी कृपा से तीनों लोकों के उपर निवास करोगी और तुम्हारा वह धाम गोलोक नाम से विख्यात होगा। महा भागे! तुम्हारी सभी शुभ संतानें मानव लोक में कल्याणकारी कर्म करते हुए निवास करेंगी”। ब्रह्मा जी के वर से ही सभी लोकों में गौएं पूज्य हुई।
भगवान् ब्रह्मा जी तपस्या के मूर्तरूप हैं। प्रलयकाल के जलार्णव में जब सर्वत्र ‘अन्धकार ही अन्धकार’ व्याप्त था, तब इन्हें अव्यक्त दिव्य वाणी द्वारा तप करो-तप करो का आदेश प्राप्त हुआ। उसी दैवीवाक् का अनुसरण कर ब्रह्मा जी दीर्घकाल तक तपस्या में प्रवृत्त हो गये, तब प्रसन्न नारायण ने इन्हें अपने ज्ञान रूप का दर्शन दिया और उन्हें जो उपदेश दिया वह चतुःष्लोकी भागवत के रूप में प्रसिद्ध हो गया। यह नारायण का इन पर विशेष अनुग्रह था। वे चार श्लोक इस प्रकार है–
यावानहं यथाभावो यद्रूपगुणकर्मकः।
तथैव तत्वविज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात्॥
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत्सदसत्परम्
पष्चादहं यदेतच्य यो वषिश्येत सो स्म्यहम्॥
ऋते र्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्वि़द्यादात्मनो मायां यथा भासो तमः॥
यथा महान्ति भूतानि भूतेशुच्चावचेश्वनु।
प्रविश्टान्यप्रविश्टानि तथा तेशु न तेश्वहम्॥
अर्थात “मेरा जितना विस्तार है, मेरा जो लक्षण है, मेरे जितने और जैसे रूप, गुण और लीलाएं हैं, मेरी कृपा तथा उनका तत्व ठीक-ठीक वैसा ही अनुभव करो। सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनों का कारण अज्ञान ही था। जहां यह सृष्टि नहीं है, वहां मैं ही मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह भी मै ही हूँ और इसके अतिरिक्त जो कुछ बचा रहेगा, वह भी मै ही हूँ।
वास्तव में न होने पर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मा में दो चन्दमाओं की तरह मिथ्या ही प्रतीत हो रही है, अथवा विद्यमान होने पर भी आकाश मण्डल के नक्षत्रों में राहु की भाँती जो मेरी प्रतीति नही होती, इसे मेरी माया समझनी चाहिए।
जैसे प्राणियों के पंचभूतरचित छोटे-बड़े शरीर में आकाशादि पंचमहाभूत उन शरीरों के कार्य रूप से निर्मित होने के कारण प्रवेश करते भी हैं ओर पहले से ही उन स्थानों और रूपों में कारण रूप से विद्यमान रहने के कारण प्रवेश नही भी करते हैं, वैसे ही उन प्राणियों के शरीर की दृष्टी से मै उनमें आत्मा के रूप से प्रवेश किये हुए हूँ और आत्मदृष्टी से अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु न होने के कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ”।
यह उपदेश कर नारायण ने अपना रूप अव्यक्त कर लिया तब सर्वभूत स्वरूप ब्रह्मा जी ने अंजलि बांधकर उन्हें प्रणाम किया ओर पहले कल्प में जैसी सृष्टि की रचना उन्होंने की थी, उसी रूप में इस वर्तमान विश्व की रचना की, यथा- ‘सर्वभूतमयो विश्वं ससर्जेदं स पूर्ववत्’॥
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