भगवान विष्णु का जन्म कथा एवं सृष्टि की रचना

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भगवान विष्णु का जन्म कथा
जिस समय सम्पूर्ण ब्रह्मांड मे चारों ओर केवल अंधेरा हीं अंधेरा था। ना ही सूर्य का कोई अस्तित्व था ना चंद्रमा, और ना ही किसी ग्रह-नक्षत्रों का भी कहीं अता-पता था और ना दिन होता था। यु कहे कि चारों ओर केवल रात्रि का ही साम्राज्य था। अग्नि, जल, वायु और पृथ्वी का भी कोई नामोनिशान तक नहीं था। उस समय केवल एकमात्र ‘सत ब्रह्म’ अर्थात सदाशिव की ही सत्ता विद्ध्मान थी, जो केवल अनादि और चिन्मय कहलाती थी उन्हीं भगवान सदाशिव को ही वेद, पुराण और उपनिषद् तथा संत महात्मा आदि ईश्वर तथा सर्वलोकमहेश्वर कहते हैं।
युग बीतते चले जा रहे थे कि तभी अचानक भगवान शिव ध्यान मुद्रा से बाहर आए और भगवान शिव के मन में सृष्टि रचने की इच्छा प्रकट हुई। उन्होंने सोचा की मैं क्यों ना एक से अनेक हो जाऊँ। यह विचार आते ही सबसे प्रथम परमेश्वर शिव ने अपनी परा शक्ति अर्थात अम्बिका को प्रकट किया, तथा उनसे कहा की हमें सृष्टि निर्माण के लिए किसी दूसरे पुरुष का सृजन करना चाहिए, जिसके कंधे पर ही सृष्टि संचालन का महान भार रखकर हम आनन्द पूर्वक विचरण कर सकें।
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सनातन संस्कृति मे पौराणिक कथाओं के साथ-साथ मंत्र, आरती और पुजा-पाठ का विधि-विधान पूर्वक वर्णन किया गया है। यहाँ पढ़े:-
दिव्य पुरुष
तब अम्बिका का सहयोग पाकर और अटल निश्चय कर के भगवान शिव ने परा शक्ति के साथ अपने बाएँ अंग के दसवें भाग पर अमृत मल दिया। तभी वहाँ से उसी क्षण एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ। उसका सौंदर्य अत्यन्त ही अतुलनीय था। उसमे सत्वगुण की प्रधानता थी। वह परम शांत एवं अथाह सागर की तरह गंभीर था। तथा रेशमी पीताम्बर से उनके अंग की शोभा दोगुनी हो रही थी। उनके चार हाथ थे और सभी में क्रमशः शंख, चक्र, गदा और कमल सुशोभित हो रहे थे।
तब उस दिव्य पुरुष ने भगवान शिव को प्रणाम करके कहा कि ‘ हे भगवन! मेरा कोई नाम निश्चित कीजिये और कार्य बताइये।’ उनकी बातें सुनकर भगवान शिव ने मुस्करा कर कहा- ‘हे वत्स! अत्यंत ही व्यापक होने के कारण तुम्हारा नाम विष्णु होगा। सृष्टि का पालन करना ही तुम्हारा कार्य होगा। इस समय केवल तुम उत्तम तप करो।’
सृष्टि की रचना
भगवान शिव का आदेश प्राप्त कर के श्री विष्णु जी कठोर तपस्या करने लगे। उस तपस्या कि ऊर्जा के कारण उनके अंगों से जल कि धाराएँ निकलने लगीं, जिससे सूना आकाश जलमग्न हो गया। अंतत: श्री बिष्णु जी ने उसी जल के ऊपर शयन किया। जल अर्थात ‘नार’ में सदैव शयन करने के कारण ही श्री विष्णु का एक अन्य नाम ‘नारायण’ भी हुआ। उन्हीं से सभी तत्वों की भी उत्पत्ति हुई। कथानुसार, सबसे पहले प्रकृति की उत्पत्ति हुई। फिर तीन गुण आए- सत, रज और तम, उसके बाद शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध की उत्पत्ति हुई, फिर पंचभूत की उत्पत्ति हुई।

तभी तदन्तर सोये हुए श्री विष्णु कि नाभि से एक उत्तम कमल प्रकट हुआ। उसी समय भगवान शिव ने अपने दाहिने अंग से चतुर्मुख ब्रह्मा को प्रकट कर के उस कमल मे डाल दिया। भगवान महेश्वर कि माया से मोहित हो जाने के कारण बहुत समय तक ब्रह्मा जी उस कमल के नाल मे ही भ्रमण करते रहें। किन्तु उन्हें अपनी उत्पत्ति और उत्पत्तिकर्ता का पता नहीं लगा।
तभी आकाशवाणी द्वारा तप का आदेश मिलने पर ब्रह्मा जी ने अपने जन्मदाता के दर्शनार्थ बारह वर्षों तक कठोर तपस्या कि। तत्पश्चात उनके सम्मुख भगवान विष्णु प्रकट हुए। परमब्रह्म परमेश्वर शिव कि लीला से उस समय वहाँ श्री विष्णु और ब्रह्माजी के बीच विवाद छिड़ गया। क्योंकि श्री विष्णु और ब्रह्माजी स्वयं को ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वशक्तिशाली मानते है।
अग्नि स्तम्भ
सहसा ही उन दोनों के बीच एक दिव्य अग्नि स्तम्भ प्रकट हुआ। और साथ ही एक आकाशवाणी भी हुई, जो भी इस स्तम्भ का आदि और अंत छोर का पता लगायेगा वह ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वशक्तिशाली होगा। परन्तु अत्यधिक प्रयास के उपरांत भी ब्रह्मा और विष्णु उस अग्नि स्तम्भ के आदि-अंत का पता नहीं लगा सकें। अंतत: थककर भगवान विष्णु ने प्रार्थना किया कि ‘महाप्रभु! हम आपके स्वरूप को नहीं जानते आप जो कोई भी हों हमे दर्शन दीजिये।’
शिव का रूद्र अवतार
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भगवान विष्णु कि प्रार्थना सुनकर भगवान शिव प्रकट हुए और बोले- ‘सुरश्रेष्ठगण! मैं तुम दोनों के तप और भक्ति से भलीभाँति संतुष्ट हूँ। ब्रह्मन! तुम मेरी आज्ञा से एक सृष्टि कि रचना करो और वत्स विष्णु! तुम इस चराचर जगत का पालनहार बनो। तदन्तर परमेश्वर शिव ने अपने हृदयभाग से अपने रुद्र रूप को प्रकट किया और उन्हें संहार का दायित्व सौंपकर स्वयं अंतर्ध्यान हो गए।
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