वाल्मीकि रामायण- बालकाण्ड सर्ग- १७

बालकाण्ड सर्ग- १७

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बालकाण्ड सर्ग- १७

॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ श्री कमलापति नम: ॥
॥ श्री जानकीवल्लभो विजयते ॥
॥ श्री वाल्मीकि रामायण ॥
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बालकाण्ड सर्ग-

वाल्मीकि रामायण
(भावार्थ सहित)
सब एक ही स्थान पर

बालकाण्ड सर्ग- १७

बालकाण्डम्
सप्तदशः सर्गः (सर्ग 17)

( ब्रह्माजी की प्रेरणा से देवता आदि के द्वारा विभिन्न वानरयूथपतियों की उत्पत्ति )

श्लोक:
पत्रत्वं त् गते विष्णौ राज्ञस्तस्य महात्मनः।
उवाच देवताः सर्वाः स्वयम्भूर्भगवानिदम्॥१॥

भावार्थ :-
जब भगवान् विष्णु महामनस्वी राजा दशरथ के पुत्रभाव को प्राप्त हो गये, तब भगवान् ब्रह्माजी ने सम्पूर्ण देवताओं से इस प्रकार कहा-॥१॥

श्लोक:
सत्यसंधस्य वीरस्य सर्वेषां नो हितैषिणः।
विष्णोः सहायान् बलिनः सृजध्वंकामरूपिणः॥२॥
मायाविदश्च शूरांश्च वायुवेगसमान् जवे।
नयज्ञान् बुद्धिसम्पन्नान् विष्णुतुल्यपराक्रमान्॥३॥
असंहार्यानुपायज्ञान् दिव्यसंहननान्वितान्।
सर्वास्त्रगुणसम्पन्नानमृतप्राशनानिव॥४॥

भावार्थ :-
देवगण! भगवान् विष्णु सत्यप्रतिज्ञ, वीर और हम सब लोगों के हितैषी हैं। तुमलोग उनके सहायक रूप से ऐसे पुत्रों की सृष्टि करो, जो बलवान्, इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ, माया जानने वाले, शूरवीर, वायु के समान वेगशाली, नीतिज्ञ, बुद्धिमान्, विष्णुतुल्य पराक्रमी, किसी से परास्त न होने वाले, तरह-तरह के उपायों के जानकार, दिव्य शरीरधारी तथा अमृतभोजी देवताओं के समान सब प्रकार की अस्त्रविद्या के गुणों से सम्पन्न हों॥२-४॥

श्लोक:
अप्सरस्सु च मुख्यासु गन्धर्वीणां तनूषु च।
यक्षपन्नगकन्यासु ऋक्षविद्याधरीषु च॥५॥
किन्नरीणां च गात्रेषु वानरीणां तनूषु च।
सृजध्वं हरिरूपेण पुत्रांस्तुल्यपराक्रमान्॥६॥

भावार्थ :-
प्रधान-प्रधान अप्सराओं, गन्धर्वो की स्त्रियों, यक्ष और नागों की कन्याओं, रीछों की स्त्रियों, विद्याधरियों, किन्नरियों तथा वानरियों के गर्भ से वानर रूप में अपने ही तुल्य पराक्रमी पुत्र उत्पन्न करो॥५-६॥

श्लोक:
पूर्वमेव मया सृष्टो जाम्बवानृक्षपंगवः।
जृम्भमाणस्य सहसा मम वक्त्रादजायत॥७॥

भावार्थ :-
मैंने पहले से ही ऋक्षराज जाम्बवान् की सृष्टि कर रखी है। एक बार मैं अँभाई ले रहा था, उसी समय वह सहसा मेरे मुँह से प्रकट हो गया॥७॥

श्लोक:
ते तथोक्ता भगवता तत् प्रतिश्रुत्य शासनम्।
जनयामासुरेवं ते पुत्रान् वानररूपिणः॥८॥

भावार्थ :-
भगवान् ब्रह्मा के ऐसा कहने पर देवताओं ने उनकी आज्ञा स्वीकार की और वानर रूप में अनेकानेक पुत्र उत्पन्न किये॥८॥

श्लोक:
ऋषयश्च महात्मानः सिद्धविद्याधरोरगाः।
चारणाश्च सुतान् वीरान् ससृजुर्वनचारिणः॥९॥

भावार्थ :-
महात्मा, ऋषि, सिद्ध, विद्याधर, नाग और चारणों ने भी वन में विचरने वाले वानर-भालुओं के रूप में वीर पुत्रों को जन्म दिया॥९॥

श्लोक:
वानरेन्द्र महेन्द्राभमिन्द्रो वालिनमात्मजम्।
सुग्रीवं जनयामास तपनस्तपतां वरः॥१०॥

भावार्थ :-
देवराज इन्द्र ने वानरराज वाली को पुत्र रूप में उत्पन्न किया, जो महेन्द्र पर्वत के समान विशालकाय और बलिष्ठ था। तपने वालों में श्रेष्ठ भगवान् सूर्य ने सुग्रीव को जन्म दिया॥१०॥

श्लोक:
बृहस्पतिस्त्वजनयत् तारं नाम महाकपिम्।
सर्ववानरमुख्यानां बुद्धिमन्तमनुत्तमम्॥११॥

भावार्थ :-
बृहस्पति ने तार नामक महाकाय वानर को उत्पन्न किया, जो समस्त वानर सरदारों में परम बुद्धिमान् और श्रेष्ठ था॥११॥

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श्लोक:
धनदस्य सुतः श्रीमान् वानरो गन्धमादनः।
विश्वकर्मा त्वजनयन्नलं नाम महाकपिम्॥१२॥

भावार्थ :-
तेजस्वी वानर गन्धमादन कुबेर का पुत्र था। विश्वकर्मा ने नल नामक महान् वानर को जन्म दिया॥१२॥

श्लोक:
पावकस्य सुतः श्रीमान् नीलोऽग्निसदृशप्रभः।
तेजसा यशसा वीर्यादत्यरिच्यत वीर्यवान्॥१३॥

भावार्थ :-
अग्नि के समान तेजस्वी श्रीमान् नील साक्षात् अग्निदेव का ही पुत्र था। वह पराक्रमी वानर तेज, यश और बल-वीर्य में सबसे बढ़कर था॥१३॥

श्लोक:
रूपद्रविणसम्पन्नावश्विनौ रूपसम्मतौ।
मैन्दं च द्विविदं चैव जनयामासतुः स्वयम्॥१४॥

भावार्थ :-
रूप-वैभव से सम्पन्न, सुन्दर रूप वाले दोनों अश्विनीकुमारों ने स्वयं ही मैन्द और द्विविद को जन्म दिया था॥१४॥

श्लोक:
वरुणो जनयामास सुषेणं नाम वानरम्।
शरभं जनयामास पर्जन्यस्तु महाबलः॥१५॥

भावार्थ :-
वरुण ने सुषेण नामक वानर को उत्पन्न किया और महाबली पर्जन्यने शरभ को जन्म दिया॥१५॥

श्लोक:
मारुतस्यौरसः श्रीमान् हनूमान् नाम वानरः।
वज्रसंहननोपेतो वैनतेयसमो जवे॥१६॥

भावार्थ :-
हनुमान् नामवाले ऐश्वर्यशाली वानर वायुदेवता के औरस पुत्र थे। उनका शरीर वज्र के समान सुदृढ़ था। वे तेज चलने में गरुड़ के समानथे॥१६॥

श्लोक:
सर्ववानरमुख्येषु बुद्धिमान् बलवानपि।
ते सृष्टा बहुसाहस्रा दशग्रीववधोद्यताः॥१७॥

भावार्थ :-
सभी श्रेष्ठ वानरों में वे सबसे अधिक बुद्धिमान् और बलवान् थे। इस प्रकार कई हजार वानरों की उत्पत्ति हुई। वे सभी रावण का वध करने के लिये उद्यत रहते थे॥१७॥

श्लोक:
अप्रमेयबला वीरा विक्रान्ताः कामरूपिणः।
ते गजाचलसंकाशा वपुष्मन्तो महाबलाः॥१८॥

भावार्थ :-
उनके बल की कोई सीमा नहीं थी। वे वीर,पराक्रमी और इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले थे। गजराजों और पर्वतों के समान महाकाय तथा महाबली थे॥१८॥

श्लोक:
ऋक्षवानरगोपुच्छाः क्षिप्रमेवाभिजज्ञिरे।
यस्य देवस्य यद्रूपं वेषो यश्च पराक्रमः॥१९॥
अजायत समं तेन तस्य तस्य पृथक् पृथक्।
गोलांगूलेषु चोत्पन्नाः किंचिदुन्नतविक्रमाः॥२०॥

भावार्थ :-
रीछ, वानर तथा गोलांगूल (लंगूर) जाति के वीर शीघ्र ही उत्पन्न हो गये। जिस देवता का जैसा रूप, वेष और पराक्रम था, उससे उसी के समान पृथक्-पृथक् पुत्र उत्पन्न हुआ। लंगूरों में जो देवता उत्पन्न हुए, वे देवावस्था की अपेक्षा भी कुछ अधिक पराक्रमी थे॥१९-२०॥

श्लोक:
ऋक्षीषु च तथा जाता वानराः किन्नरीषु च।
देवा महर्षिगन्धर्वास्तार्थ्ययक्षा यशस्विनः॥२१॥
नागाः किंपुरुषाश्चैव सिद्धविद्याधरोरगाः।
बहवो जनयामासुहृष्टास्तत्र सहस्रशः॥२२॥

भावार्थ :-
कुछ वानर रीछ जाति की माताओं से तथा कुछ किन्नरियों से उत्पन्न हुए। देवता, महर्षि, गन्धर्व,गरुड़, यशस्वी यक्ष,नाग, किम्पुरुष, सिद्ध, विद्याधर तथा सर्प जाति के बहुसंख्यक व्यक्तियों ने अत्यन्त हर्ष में भरकर सहस्रों पुत्र उत्पन्न किये॥२१-२२॥

श्लोक:
चारणाश्च सुतान् वीरान् ससृजुर्वनचारिणः।
वानरान् सुमहाकायान् सर्वान् वैवनचारिणः॥२३॥

भावार्थ :-
देवताओं का गुण गाने वाले वनवासी चारणों ने बहुत-से वीर, विशालकाय वानर पुत्र उत्पन्न किये। वे सब जंगली फल-मूल खाने वाले थे॥२३॥

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श्लोक:
अप्सरस्सु च मुख्यासु तथा विद्याधरीषु च।
नागकन्यासु च तदा गन्धर्वीणां तनूषु च।
कामरूपबलोपेता यथाकामविचारिणः॥२४॥

भावार्थ :-
मुख्य-मुख्य अप्सराओं, विद्याधरियों, नागकन्याओं तथा गन्धर्व-पत्नियों के गर्भ से भी इच्छानुसार रूप और बल से युक्त तथा स्वेच्छानुसार सर्वत्र विचरण करने में समर्थ वानर पुत्र उत्पन्न हुए॥२४॥

श्लोक:
सिंहशार्दूलसदृशा दर्पण च बलेन च।
शिलाप्रहरणाः सर्वे सर्वे पर्वतयोधिनः॥२५॥

भावार्थ :-
वे दर्प और बल में सिंह और व्याघ्रों के समान थे। पत्थर की चट्टानों से प्रहार करते और पर्वत उठाकर लड़ते थे॥२५॥

श्लोक:
नखदंष्ट्रायुधाः सर्वे सर्वे सर्वास्त्रकोविदाः।
विचालयेयुः शैलेन्द्रान् भेदयेयुः स्थिरान्दुमान्॥२६॥

भावार्थ :-
वे सभी नख और दाँतों से भी शस्त्रों का काम लेते थे। उन सबको सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान था। वे पर्वतों को भी हिला सकते थे और स्थिरभाव से खड़े हुए वृक्षों को भी तोड़ डालने की शक्ति रखते थे॥२६॥

श्लोक:
क्षोभयेयुश्च वेगेन समुद्रं सरितां पतिम्।
दारयेयुः क्षितिं पद्भ्यामाप्लवेयुर्महार्णवान्॥२७॥

भावार्थ :-
अपने वेग से सरिताओं के स्वामी समुद्र को भी क्षुब्ध कर सकते थे। उनमें पैरों से पृथ्वी को विदीर्ण कर डालने की शक्ति थी। वे महासागरों को भी लाँघ सकते थे॥२७॥

श्लोक:
नभस्तलं विशेयुश्च गृह्णीयुरपि तोयदान्।
गृह्णीयुरपि मातंगान् मत्तान् प्रव्रजतो वने॥२८॥

भावार्थ :-
वे चाहें तो आकाश में घुस जायँ, बादलों को हाथों से पकड़ लें तथा वन में वेग से चलते हुए मतवाले गजराजों को भी बन्दी बना लें॥२८॥

श्लोक:
नर्दमानांश्च नादेन पातयेयुर्विहंगमान्।
ईदृशानां प्रसूतानि हरीणां कामरूपिणाम्॥२९॥
शतं शतसहस्राणि यूथपानां महात्मनाम्।
ते प्रधानेषु यूथेषु हरीणां हरियूथपाः॥३०॥

भावार्थ :-
घोर शब्द करते हुए आकाश में उड़ने वाले पक्षियों को भी वे अपने सिंहनाद से गिरा सकते थे। ऐसे बलशाली और इच्छानुसार रूप धारण करने वाले महाकाय वानर यूथपति करोड़ों की संख्या में उत्पन्न हुए थे। वे वानरों के प्रधान यूथों के भी यूथपति थे॥२९-३०॥

श्लोक:
बभूवुर्मूथपश्रेष्ठान् वीरांश्चाजनयन् हरीन्।
अन्ये ऋक्षवतः प्रस्थानुपतस्थुः सहस्रशः॥३१॥

भावार्थ :-
उन यूथपतियों ने भी ऐसे वीर वानरों को उत्पन्न किया था, जो यूथपों से भी श्रेष्ठ थे। वे और ही प्रकार के वानर थे- इन प्राकृत वानरों से विलक्षण थे। उनमें से सहस्रों वानर-यूथपति ऋक्षवान् पर्वत के शिखरों पर निवास करने लगे॥३१॥

श्लोक:
अन्ये नानाविधान् शैलान् काननानि चभेजिरे।
सूर्यपुत्रं च सुग्रीवं शक्रपुत्रं च वालिनम्॥३२॥
भ्रातरावुपतस्थुस्ते सर्वे च हरियूथपाः।
नलं नीलं हनूमन्तमन्यांश्च हरियूथपान्॥३३॥
ते तार्थ्यबलसम्पन्नाः सर्वे युद्धविशारदाः।
विचरन्तोऽर्दयन् सर्वान् सिंहव्याघ्रमहोरगान्॥३४॥

भावार्थ :-
दूसरों ने नाना प्रकार के पर्वतों और जंगलों का आश्रय लिया। इन्द्रकुमार वाली और सूर्यनन्दन सुग्रीव ये दोनों भाई थे। समस्त वानरयूथपति उन दोनों भाइयों की सेवा में उपस्थित रहते थे। इसी प्रकार वे नल-नील, हनुमान् तथा अन्य वानर सरदारों का आश्रय लेते थे। वे सभी गरुड़ के समान बलशाली तथा युद्ध की कला में निपुण थे। वे वन में विचरते समय सिंह, व्याघ्र और बड़े-बड़े नाग आदि समस्त वनजन्तुओं को रौंद डालते थे॥३२-३४॥

श्लोक:
महाबलो महाबाहुली विपुलविक्रमः।
जुगोप भुजवीर्येण ऋक्षगोपुच्छवानरान्॥३५॥

भावार्थ :-
महाबाहु वाली महान् बल से सम्पन्न तथा विशेष पराक्रमी थे। उन्होंने अपने बाहुबल से रीछों, लंगूरों तथा अन्य वानरों की रक्षा की थी॥३५॥

श्लोक:
तैरियं पृथिवी शूरैः सपर्वतवनार्णवा।
कीर्णा विविधसंस्थान नाव्यञ्जनलक्षणैः॥३६॥

भावार्थ :-
उन सबके शरीर और पार्थक्यसूचक लक्षण नाना प्रकार के थे। वे शूरवीर वानर पर्वत, वन और समुद्रोंसहित समस्त भूमण्डल में फैल गये॥३६॥

श्लोक:
तैर्मेघवृन्दाचलकूटसंनिभैमहाबलैर्वानरयूथपाधिपैः।
बभूव भूर्भीमशरीररूपैः समावृता रामसहायहेतोः॥३७॥

भावार्थ :-
वे वानरयूथपति मेघसमूह तथा पर्वतशिखर के समान विशालकाय थे। उनका बल महान् था। उनके शरीर और रूप भयंकर थे। भगवान् श्रीराम की सहायता के लिये प्रकट हुए उन वानर वीरों से यह सारी पृथ्वी भर गयी थी॥३७॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे सप्तदशः सर्गः॥१७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥१७॥

पाठको की पहली पसंद
अखंड रामायण

बालकाण्ड(भावार्थ सहित/रहित)
अयोध्याकाण्ड(भावार्थ सहित/रहित)
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बालकाण्ड सर्ग- १८ 

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