श्री शिव महापुराण- रुद्रसंहिता (सतीखण्ड)

रुद्रसंहिता (सतीखण्ड)

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रुद्रसंहिता (सतीखण्ड)

रुद्रसंहिता (सतीखण्ड)

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ब्रह्माजी से देवी सन्ध्या एवं कामदेव का प्राकट्य

नारदजी के जिज्ञासा करने पर ब्रह्माजी वर्णन करते हैं कि मेरे द्वारा जब मानसपुत्रों की सृष्टि हो रही थी, उसी समय मेरे हृदय से एक सुन्दर रूपवाली श्रेष्ठ युवती भी उत्पन्न हुई। वह सन्ध्या के नाम से प्रसिद्ध हुई। वह प्रातः- सन्ध्या तथा सायं सन्ध्या के रूप में अत्यन्त सुन्दरी, सुन्दर भौंहों वाली तथा मुनियों के मन को मोहित करने वाली थी। उस कन्या को देखते ही मैं तथा मेरे मानसपुत्र उसका चिन्तन करने लगे। उसी समय एक अत्यन्त अद्भुत एवं मनोहर ‘मानसपुत्र’ उत्पन्न हुआ, जो कामदेव के नाम से विख्यात हुआ।

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कामदेव ने ब्रह्माजी से पूछा कि मैं कौन-सा कार्य करूँ? मेरे लिये जो कर्म करणीय हो, उस कर्म में मुझे नियुक्त कीजिये। ब्रह्माजी ने कहा- अपने गुप्त रूप से प्राणियों के हृदय में प्रवेश करते हुए तुम स्वयं सबके सुख के कारण बनकर सनातन सृष्टि करो। उसी समय कामदेव ने तीक्ष्ण पुष्पबाणों से मुझ ब्रह्मा तथा सभी मानसपुत्रों को मोहित कर दिया। सभी के मन में काम- विकार उत्पन्न हो गया। हम सभी देवी सन्ध्या के प्रति आकर्षित होने लगे।

ब्रह्माजी के पुत्र धर्म ने अपने पिता तथा भाइयों की ऐसी दशा देखकर धर्म की रक्षा करने वाले भगवान् सदाशिव का स्मरण किया। भगवान् सदाशिव के प्रभाव से ब्रह्माजी का काम- विकार दूर हो गया। उसी समय दक्ष के शरीर से एक श्वेतकण निकलकर पृथ्वी पर गिरा, उससे समस्त गुण सम्पन्न, परम मनोहर एक स्त्री की उत्पत्ति हुई, जिसका नाम रति था। रति का कामदेव से विवाह हो गया।

नारदजी कहते हैं – हे ब्रह्मन्! पितरों की जन्म दात्री उस ब्रह्मपुत्री सन्ध्या का क्या हुआ? ब्रह्माजी कहते हैं- वह सन्ध्या जो पूर्वकाल में मेरे मन से उत्पन्न हुई, वही तपस्या कर शरीर छोड़ने के बाद अरुन्धती हुई। उस बुद्धिमती तथा उत्तम व्रत करने वाली सन्ध्या ने मुनिश्रेष्ठ मेधातिथि की कन्या के रूप में जन्म ग्रहण कर ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर के वचनों से महात्मा वसिष्ठ का अपने पतिरूप में वरण किया। वह पतिव्रता, वन्दनीया, पूजनीया तथा दया की मूर्ति थी।

नारदजी ने कहा – ब्रह्मन्! आपने अरुन्धती की तथा पूर्वजन्म में उसकी स्वरूपभूता सन्ध्या की बड़ी उत्तम कथा सुनायी है, अब आप भगवान् शिव के उस परम पवित्र चरित्र का वर्णन कीजिये, जो दूसरों के पापों का विनाश करने वाला, उत्तम एवं मंगल दायक है।

शिवविवाह के लिये ब्रह्माजी का प्रयत्न

ब्रह्माजी ने कहा- तात! पूर्वकाल में मैं जब एक बार मोह में पड़ गया और भगवान् शंकर ने मेरा उपहास किया तो मुझे बड़ा क्षोभ हुआ था। मैं भगवान् शिव के प्रति ईर्ष्या करने लगा। मैं उस स्थान पर गया, जहाँ दक्ष उपस्थित थे, वहीं रति के साथ कामदेव भी था।

उस समय मैंने दक्ष तथा दूसरे पुत्रों को सम्बोधित करते हुए कहा– पुत्रो! तुम्हें ऐसा प्रयत्न करना चाहिये, जिससे महादेव जी किसी कमनीय कान्ति वाली स्त्री का पाणिग्रहण करें। उसके बाद भगवान् शिव को मोहित करने का भार मैंने कामदेव को सौंपा। मेरी आज्ञा मानकर कामदेव ने वामदेव शिव को मोहने की बराबर चेष्टा की, परंतु उसे सफलता न मिली। कामदेव ने कहा- प्रभो! सुन्दर स्त्री ही मेरा अस्त्र है, अतः शिवजी को मोहित करने के लिये किसी नारी की सृष्टि कीजिये।

मैं मन में सोचने लगा कि निर्विकार भगवान् शंकर किसी स्त्री को अपनी सहधर्मिणी बनाना कैसे स्वीकार करेंगे? यही सोचते-सोचते मैंने भक्तिभाव से उन श्रीहरि का स्मरण किया, जो साक्षात् शिव स्वरूप और मेरे शरीर के जन्मदाता हैं। मेरी स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु प्रकट हो गये और मुझ ब्रह्मा से बोले- ‘लोकस्रष्टा ब्रह्मन्! तुमने किसलिये आज मेरा स्मरण किया है? ‘ तब मैंने कहा- केशव! यदि भगवान् शिव किसी तरह पत्नी को ग्रहण कर लें तो मैं सुखी हो जाऊँगा।

मेरे अन्तःकरण का सारा दुःख दूर हो जायगा। इसी के लिये मैं आपकी शरण आया हूँ। मेरी यह बात सुनकर भगवान् मधुसूदन बोले- ‘ हे विधाता! शिव ही सबके कर्ता, भर्ता (पालक) और हर्ता (संहारक) हैं। वे ही परात्पर परब्रह्म एवं परमेश्वर हैं। तुम उन्हीं की शरण में जाओ और सर्वात्मना शम्भु का भजन करो, इससे सन्तुष्ट होकर वे तुम्हारा कल्याण करेंगे।’

ब्रह्मन्! यदि तुम्हारे मन में यह विचार हो कि शंकर पत्नी का पाणिग्रहण करें तो शिवा को प्रसन्न करने के उद्देश्य से शिवका स्मरण करते हुए उत्तम तपस्या करो। यदि वे देवेश्वरी प्रसन्न हो जायँ तो सारा कार्य सिद्ध कर देंगी। इसके अनन्तर ब्रह्माजी ने परब्रह्म स्वरूपिणी शम्भुप्रिया देवी दुर्गा की आराधना की। ब्रह्माजी ने नारदजी से कहा- हे मुने! मेरे द्वारा स्तुति करने पर वे योगनिद्रा भगवती मेरे सामने प्रकट हो गयीं। भक्ति से सिर झुकाकर मैं उन्हें प्रणाम कर स्तुति करने लगा।

मेरी स्तुति से प्रसन्न होकर कल्याण करने वाली वे महाकाली प्रेमपूर्वक कहने लगीं- हे ब्रह्मन्! आपने मेरी स्तुति किसलिये की है? आप अपनी मनोभिलषित बात कहें, मैं उसे निश्चितरूप से पूर्ण करूँगी। ब्रह्माजी बोले- हे देवी! आप दक्ष की कन्या बनकर अपने रूप से शिवजी को मोहित करने वाली हों। हे शिवे! आप शिवपत्नी बनें। भगवती ने कहा- हे पितामह! मैं दक्ष की पत्नी के गर्भ से सती रूप में जन्म लेकर अपनी लीला के द्वारा शिवजी को प्राप्त करूँगी। यह कहकर जगदम्बा शिवा वहीं अन्तर्धान हो गयीं।

दक्षकन्या के रूप में सती का प्रादुर्भाव

इसके अनन्तर मेरी आज्ञा पाकर दक्षप्रजापति ने भगवती को प्रसन्न करने के लिये घोर तपस्या प्रारम्भ कर दी। दक्ष की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती जगदम्बा प्रकट हो गयीं और दक्ष को यह वरदान दिया कि मैं कुछ ही दिनों में आपकी कन्या बनकर शिव की पत्नी बनूँगी, परंतु यदि आपने कभी मेरा अनादर किया तो मैं अपना शरीर त्याग दूँगी और दूसरा शरीर धारण करूँगी-

यह कहकर महेश्वरी वहाँ से अन्तर्धान हो गयीं। कुछ समय बाद शुभ मुहूर्त में भगवती शिवा दक्ष के घर में प्रकट हो गयीं। दक्ष ने प्रसन्न होकर विष्णु आदि देवताओं की आज्ञा से सभी गुणों से सम्पन्न भगवती जगदम्बिका का नाम ‘उमा’ रखा। कुछ समय व्यतीत होने के अनन्तर युवावस्था प्राप्त होने पर परमेश्वरी सती महेश्वर को पतिरूप में प्राप्त करने की इच्छा से माता की आज्ञा से तपस्या करने लगीं।

विष्णु आदि सभी देवता एवं मुनिगण सती देवी की तपस्या का दर्शन कर आश्चर्यचकित हो गये। वे सभी सती देवी को प्रणाम कर भगवान् शिव के परमधाम कैलास को चले गये। वहाँ सभी देवताओं तथा ऋषियों ने भगवान् शंक रकी स्तुति की। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान् शंकर ने उनके आने का कारण पूछा। सभी देवताओं और ऋषियों ने भगवान् शिव से आग्रह किया कि विश्वहित के लिये तथा देवताओं के सुख के लिये परम सुन्दरी सती को पत्नी के रूप में ग्रहण करें।

हे प्रभो! वे शिवा सती नाम से दक्षपुत्री के रूप में अवतीर्ण हुई हैं। वे दृढव्रत में स्थित होकर आपके लिये तप कर रही हैं। वे महातेजस्विनी सती आपको पतिरूप में प्राप्त करने की इच्छुक हैं। हे महेश्वर! उन सती के ऊपर कृपाकर उन्हें वर देकर उनके साथ विवाह करने की कृपा करें। भक्तवत्सल भगवान् शिवजी ने ‘तथास्तु’ कहकर उनके निवेदन को स्वीकार कर लिया।

शिव और सती का विवाह

सती की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शंकर प्रकट हो गये और भगवती सती को पत्नीरूप में स्वीकार करने का वर प्रदान कर दिया। इसके अनन्तर ब्रह्माजी की सन्निधि में दक्ष के यहाँ शिव-सती का विवाह समारोह पूर्वक सम्पन्न हुआ। विवाह के अनन्तर भगवती सती और भगवान् शंकर अपने स्थान कैलास पर पधार गये।

कैलास तथा हिमालय पर्वत पर शिवा और शिव के विविध विहारों का विस्तार पूर्वक वर्णन करने के पश्चात् ब्रह्माजी ने कहा- मुने! एक दिन की बात है, देवी सती ने भगवान् शंकर से जीवों के उद्धार के लिये तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की। भगवान् शंकर ने अपनी भार्या सती से उत्तम ज्ञान का प्रतिपादन करते हुए नवधाभक्ति के स्वरूप का विवेचन किया।

सती मोह की कथा

एक समय की बात है, भगवान् रुद्र वृषभश्रेष्ठ नन्दी पर आरूढ़ हो भूतल पर भ्रमण कर रहे थे। घूमते-घूमते उन्होंने दण्डकारण्य में लक्ष्मण सहित श्रीराम को देखा, जो अपनी प्यारी पत्नी सीता की खोज करते हुए ‘हा सीते!’ ऐसा उच्च स्वर से पुकारते तथा बारंबार रोते थे। उस समय भगवान् शंकर ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उन्हें प्रणाम किया और श्रीराम के सामने अपने को प्रकट किये बिना वे दूसरी ओर चल दिये।

भगवान् शिव की मोह में डालने वाली ऐसी लीला देख सती को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने शंका युक्त होकर भगवान् शंकर से पूछा- हे देव! विरह से व्याकुल उन दोनों को देखकर आपने इतना विनम्र होकर उन्हें आदर पूर्वक प्रणाम क्यों किया? भगवान् शिव ने कहा- हे देवी! ये दोनों राजा दशरथ के विद्वान् पुत्र हैं, बड़े भाई राम भगवान् विष्णु के सम्पूर्ण अंश से प्रकट हुए हैं, छोटे भाई लक्ष्मण शेषावतार हैं।

वे जगत्के कल्याण के लिये इस पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं। भगवान् शिव की यह बात सुनकर भी सती के मन में विश्वास नहीं हुआ। शिव ने कहा – यदि तुम्हारे मन में मेरे कथन पर विश्वास नहीं है तो श्रीराम की परीक्षा कर लो, जिससे तुम्हारा भ्रम नष्ट हो जाय।

ब्रह्माजी कहते हैं- भगवान् शिव की आज्ञा से राम की परीक्षा लेने के लिये सती सीता का रूप धारणकर राम के पास गयीं। सती को सीता के रूप में सामने आया देख ‘शिव – शिव’ का जप करते हुए श्रीराम सब कुछ जान गये। भगवान् राम ने सती से पूछा – भगवान् शम्भु कहाँ गये हैं? आपने अपना स्वरूप त्यागकर किसलिये यह नूतन रूप धारण किया है?

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श्रीरामजी की यह बात सुनकर सती उस समय आश्चर्य चकित हो गयीं और लज्जित भी हुईं। उन्होंने कहा- हे राम मैंने उनकी आज्ञा लेकर आपकी परीक्षा की है, अब मुझे ज्ञात हो गया कि आप साक्षात् विष्णु हैं। आप शिव के वन्दनीय कैसे हो गये? कृपा कर आप मेरे इस संशय को दूर करें। श्रीराम बोले- एक समय भगवान् शम्भु ने अपने परमधाम में विश्वकर्मा को बुलाकर एक रमणीय भवन बनवाया और उसमें एक श्रेष्ठ सिंहासन का भी निर्माण करवाया।

उस मण्डप में स्वयं भगवान् महेश्वर ने श्रीहरि का अभिषेक किया और उन्हें अपना सारा ऐश्वर्य प्रदान करते हुए ब्रह्माजी से कहा- लोकेश! आज से मेरी आज्ञा के अनुसार ये विष्णु हरि स्वयं मेरे वन्दनीय हो गये- इस बात को सभी सुन लें। ऐसा कहकर रुद्रदेव ने स्वयं ही श्रीहरि को प्रणाम किया। इधर भगवती सती चिन्ता ग्रस्त होकर शिवजी के पास आ गयीं। भगवान् शिव के पूछने पर सती ने कहा- मैंने कोई परीक्षा नहीं ली। इसके अनन्तर भगवान् महेश्वर ने ध्यान लगाकर सती का सारा चरित्र जान लिया। शिवजी ने सोचा- यदि मैं अब सती से स्नेह करूँ तो मुझ शिव की महान् प्रतिज्ञा ही नष्ट हो जायगी- इस प्रकार विचार कर शंकरजी ने हृदय से सती का त्याग कर दिया।

दक्षप्रजापति का शिव से द्वेष

पूर्वकाल में प्रयाग में मुनियों तथा महात्माओं का विधि-विधान से बड़ा यज्ञ हुआ। इस यज्ञ में दक्षप्रजापति के पधारने पर समस्त देवर्षियों ने नतमस्तक हो स्तुति और प्रणाम द्वारा दक्ष का आदर-सत्कार किया, परंतु उस समय महेश्वर ने दक्ष को प्रणाम नहीं किया। महादेवजी को वहाँ मस्तक न झुकाते देख दक्षप्रजापति रुद्र पर कुपित होते हुए बोले- मैं इस रुद्र को यज्ञ से बहिष्कृत करता हूँ। यह देवताओं के साथ यज्ञ में भाग न पाये।

सती का योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म करना

ब्रह्माजी बोले- हे मुने! एक समय दक्ष ने एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया और उस यज्ञ में सभी देवताओं तथा ऋषियों को बुलाया। देवता तथा ऋषिगण बड़े उत्साह के साथ उस यज्ञमें जा रहे थे। सती को जब यह मालूम हुआ कि मेरे पिता दक्ष ने बड़े यज्ञ का आयोजन किया है तो उन्होंने भगवान् शंकर से वहाँ जाने की अनुमति माँगी। महेश्वर बोले- देवि! तुम्हारे पिता दक्ष मेरे विशेष द्रोही हो गये हैं,

जो लोग बिना बुलाये दूसरों के घर जाते हैं, वे वहाँ अनादर ही पाते हैं, जो मृत्यु से भी बढ़कर होता है। भगवान् शंकर की यह बात सुनकर सती अपने पिता पर बहुत कुपित हुईं तथा वहाँ जाने के लिये तत्पर हो गयीं। शिवजी ने अपने गणों के साथ सजे हुए नन्दी वृषभ पर सती को विदा किया। यज्ञशाला में शिव का भाग न देखकर असह्य क्रोध प्रकट करते हुए वे विष्णु आदि सब देवताओं को फटकारने लगीं। अपने पिता के प्रति रोष व्यक्त करते हुए वे बोलीं- हे तात! आप शंकर के निन्दक हैं, आपको पश्चात्ताप करना पड़ेगा।

इस लोक में महान् दुःख भोगकर अन्त में आपको यातना भोगनी पड़ेगी। जिनका ‘शिव’ – यह दो अक्षरों का नाम एक बार उच्चरित हो जाने पर सम्पूर्ण पाप राशि को शीघ्र ही नष्ट कर देता है, अहो! आप उन्हीं शिव से विपरीत होकर उन पवित्र कीर्ति वाले सर्वेश्वर शिव से विद्वेष करते हैं। इस प्रकार दक्ष पर कुपित हो सहसा अपने शरीर को त्यागने की इच्छा से सती ने योगमार्ग से शरीर के दग्ध हो जाने पर पवित्र वायुमय रूप धारण किया।

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तदनन्तर अपने पति के चरण-कमल का चिन्तन करते हुए सती ने अन्य सब वस्तुओं का ध्यान भुला दिया। वहाँ उन्हें पति के चरणों के अतिरिक्त कुछ दिखायी नहीं दिया। हे मुनिश्रेष्ठ! यज्ञाग्नि में गिरा उनका निष्पाप शरीर अग्नि से जलकर उनके इच्छानुसार उसी समय भस्म हो गया। उस समय देवताओं आदि ने जब यह घटना देखी तो वे बड़े जोर से हाहाकार करने लगे। सती के प्राणत्याग को देखकर शिवजी के पार्षद शीघ्र ही अस्त्र-शस्त्र लेकर खड़े हो गये। उसी समय आकाशवाणी हुई- समस्त देवता आदि यज्ञमण्डप से शीघ्र निकलकर अपने-अपने स्थान को चले जायँ।

दक्ष यज्ञविध्वंस का वृत्तान्त

गणों के मुख से तथा नारद के द्वारा सती के दग्ध होने का समाचार प्राप्त हुआ, जिसे सुनकर भगवान् शंकर अत्यधिक कुपित हो गये। शिव ने अपनी जटा से वीरभद्र और महाकाली को प्रकट करके उन्हें यज्ञ को विध्वंस करने की तथा विरोधियों को जला डालने की आज्ञा प्रदान की। यज्ञ – विध्वंस के लिये वीरभद्र एवं महाकाली ने प्रस्थान किया। उधर दक्ष के यज्ञमण्डप में यज्ञ- विध्वंस की सूचना देने वाले त्रिविध उत्पात प्रकट होने लगे। बहुत-से भयानक अपशकुन होने लगे।

इसी बीच आकाशवाणी हुई- ओ दक्ष! तू महामूढ़ और पापात्मा है, भगवान् हरकी ओर से तुझे महान् दुःख प्राप्त होगा। जो मूढ़ देवता आदि तेरे यज्ञ में स्थित हैं, उनको भी महान् दुःख होगा। आकाशवाणी की यह बात सुनकर और अशुभ सूचक लक्षणों को देखकर दक्ष तथा देवता आदि को भी अत्यन्त भय प्राप्त हुआ। दक्ष ने अपने यज्ञ की रक्षा के लिये भगवान् विष्णु से अत्यन्त दीन होकर प्रार्थना की। भगवान् विष्णु भी कई प्रकार से दक्ष को समझाते हुए शिव की महिमा का वर्णन किया। इस बीच शिवगणों के साथ वीरभद्र के वहाँ पहुँचने पर घोर युद्ध प्रारम्भ हो गया।

विष्णु और देवतागण थोड़ी देर में वहाँ से अन्तर्धान हो गये। वीरभद्र ने अपने दोनों हाथों से दक्ष की गर्दन मरोड़कर तोड़ डाली और सिर को अग्निकुण्ड में डाल दिया। इसके अतिरिक्त वहाँ जो भी देवगण थे, वे भी घायल हो गये। वे वीरभद्र दक्ष और उनके यज्ञ का विनाश करके कृत कार्य हो तुरन्त कैलास पर्वत पर चले गये। कार्य को पूर्ण किये हुए वीरभद्र को देखकर। परमेश्वर शिव जी मन-ही-मन प्रसन्न हुए और उन्होंने वीरभद्र को गणों का अध्यक्ष बना दिया।

शिव के अनुग्रह से दक्ष का जीवित होना और यज्ञ की पूर्णता

नारदजी ने ब्रह्माजी से पूछा- हे तात! पराक्रमी वीरभद्र जब दक्ष के यज्ञ का विनाश करके कैलास पर्वत चले गये तब क्या हुआ? इसके उत्तर में ब्रह्माजी ने कहा- समस्त देवताओं और मुनियों ने छिन्न-भिन्न अंगों वाले होकर मेरे पास आकर पूर्ण रूप से अपने क्लेश को बताया। उनकी बात सुनकर मैं व्यथित हो गया। तदनन्तर देवताओं और मुनियों के साथ मैं विष्णु लोक गया।

वहाँ मैंने भगवान् विष्णु की स्तुति करते हुए अपने दुःख का वर्णन किया तथा भगवान् श्रीहरि से प्रार्थना की कि हे देव! जिस तरह भी यज्ञ पूर्ण हो, यज्ञकर्ता दक्ष जीवित हों तथा समस्त देवता और मुनि सुखी हो जायँ, आप वैसा कीजिये। देवता और मुनि लोग आपकी शरण में आये हैं । भगवान् विष्णु बोले- हे विधे! समस्त देवता शिव के अपराधी हैं; क्योंकि इन सबने उनको यज्ञ का भाग नहीं दिया। अब आप सभी लोग शुद्ध हृदय से भगवान् शिव के चरणों में गिरकर उन्हें प्रसन्न कीजिये।

इसके अनन्तर विष्णु आदि सभी देवताओं ने कैलास पर्वत पर विराजमान वटवृक्ष के नीचे बैठे हुए भगवान् शिवजी का दर्शन किया तथा सभी देवताओं ने भगवान् शिव के चरणों में प्रणाम किया। भगवान् शंकर की विशेषरूप से प्रार्थना करते हुए देवताओं ने कहा- हे करुणानिधान! आप हम लोगों की रक्षा कीजिये। आप प्रसन्न होकर दक्ष की यज्ञशाला की ओर चलें। उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान् शम्भु विष्णु आदि देवताओं के साथ कनखल में स्थित प्रजापति दक्ष की यज्ञशाला में गये। वहाँ वीरभद्र द्वारा किया गया यज्ञ का विध्वंस रुद्र ने देखा।

यज्ञ की वैसी दुरवस्था देखकर भगवान् शंकर ने वीरभद्र को बुलाकर कहा- हे महाबाहो! तुमने थोड़ी ही देर में देवताओं तथा ऋषियों आदि को बड़ा भारी दण्ड दे दिया। जिसने विलक्षण यज्ञ का आयोजन कर यह द्रोह पूर्ण कार्य किया, उस दक्ष को तुम शीघ्र यहाँ ले आओ। वीरभद्र ने शीघ्रता पूर्वक दक्ष का धड़ लाकर शम्भु के समक्ष रख दिया। भगवान् शंकर ने वीरभद्र से पूछा- दक्ष का सिर कहाँ है? वीरभद्र ने कहा- हे शंकर! मैंने तो उसी समय दक्ष के सिर को यज्ञकुण्ड में हवन कर दिया।

तदनन्तर शम्भु के आदेश से प्रजापति दक्ष के धड़ के साथ सवनीय पशु- बकरे का सिर जोड़ दिया गया। उस सिर के जुड़ जाते ही शम्भु की कृपा दृष्टि पड़ने से प्रजापति दक्ष तत्क्षण जीवित हो गये। शिवजी के दर्शन से तत्काल उनका अन्तःकरण निर्मल हो गया। तदनन्तर लज्जित होकर वे भगवान् शंकर की स्तुति करते हुए बोले- हे महादेव! आपको नमस्कार है, मुझपर कृपा कीजिये। आप मेरे अपराध को क्षमा कीजिये। दक्षप्रजापति की स्तुति से प्रसन्न होकर महादेवजी बोले- हे दक्ष! मैं प्रसन्न हूँ, यद्यपि मैं सबका ईश्वर हूँ और स्वतन्त्र हूँ, फिर भी सदा भक्तों के अधीन रहता हूँ।

केवल कर्म के वशीभूत मूढ़ मानव न वेदों से, न यज्ञों से, न दानों से और न तपस्या से ही मुझे पा सकते हैं, तुम केवल कर्म के द्वारा ही संसार को पार करना चाहते थे, इसीलिये रुष्ट होकर मैंने इस यज्ञ का विनाश किया है। अतः हे दक्ष! आज से तुम बुद्धि के द्वारा मुझे परमेश्वर मानकर ज्ञान का आश्रय लेकर सावधान होकर कर्म करो। यदि कोई विष्णुभक्त मेरी निन्दा करेगा और मेरा भक्त विष्णु की निन्दा करेगा तो आपको दिये हुए समस्त शाप उन्हीं दोनों को प्राप्त होंगे और निश्चय ही उन्हें तत्त्वज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी।

हे मुने! उसके बाद भगवान् शिव की आज्ञा प्राप्त कर प्रसन्नचित्त शिवभक्त दक्ष ने शिवजी की कृपा से यज्ञ पूरा किया। तदनन्तर सब देवता और ऋषि सन्तुष्ट होकर अपने-अपने स्थान को चले गये। भगवान् शंकर की महिमा अनन्त है, जिसे बड़े-बड़े विद्वान् भी जानने में असमर्थ हैं, किंतु भक्त लोग उनकी कृपा से बिना श्रम के ही उत्तम भक्ति के द्वारा उसे जान लेते हैं। हे नारद! इस प्रकार मैंने आप से सती के परम अद्भुत चरित का वर्णन किया, जो भोग-मोक्ष को देने वाला तथा सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाला है।

इस प्रकार रुद्रसंहिता का सतीखण्ड पूर्ण हुआ।

रुद्रसंहिता (सतीखण्ड)

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