तुलसीदास की कथा

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तुलसीदास

तुलसीदास की कथा

गोस्वामी तुलसीदास जो किशोरा अवस्था तक एक सामान्य व्यक्ति की तरह मोहमाया और काया में लींन थे। आखिर उनके जीवन में ऐसी कौन सी घटना घटी थी के जिस से उनका जीवन ही परिवर्तित हो जाता है। और रामभक्त के रूप में हमारे अनेको धार्मिक पुस्तके के रचयिता बन जाते है।

रामचरितमानस के अनुसार गोस्वामी तुलसीदास का जन्म संवत 1554 को प्रयागराज यु.पी में राजापुर गाव में हुआ था। इनके पिता का नाम आत्माराम था और माता का नाम हुलसी था। बारह महीने माता के गर्भ में रहने के पाश्चात तुलसीदास का जन्म हुआ। जन्म लेते समय ये रोये नहीं बल्कि उनके मुख से राम नाम का शब्द निकला, और जन्म से ही उसके मुख में बत्तीस दांत मौजूद थे। ऐसे बालक को देखकर परिवार में शंका का माहोल बन गया। कही कोई अनिष्ट या अमंगल न हो जाए।

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इसलिए माता हुलसी तुलसीदास को अपनी ही दासी चुनिया के हाथ में वह बालक को सौपकर दुसरे ही दिन स्वर्गवासी हो गई।

दासी ने बड़े ही प्यार से तुलसीदास का पालन पोषण किया। जब तुलसीदास लगभग पांच वर्ष के हुए तब दासी चुनिया का भी देहांत हो गया। अब तो तुलसीदास अनाथ हो गया। और दर दर भटकने लगा। इस पर जगत जननी माँ पार्वती को उस होनहार बालक पर दया आई। वे ब्राह्मणी का भेष धारण कर के उनके पास जाती और उन्हें अपने हाथो से भोजन करा जाती।

तुलसीदास का नाम रामबोला से तुलसीराम कैसे पड़ा

जन्म के समय उनके मुख से राम नाम का शब्द निकलने से उनका बचपन का नाम ही रामबोला पड गया था। भागवत कृपा से राम शैल पर रहने वाले नरहरीबाबा ने इस प्रतिभाशाली बच्चे को अपने सानिध्य में रखकर दीक्षा दी और उस रामबोला का नाम विधिपूर्वक तुलसीराम रखा।

बिना सिखाये ही तुलसीराम ने गायत्री मंत्र का उच्चारण करना शुरू कर दिया और सबको चकित कर दिया। अब वे गुरु के सानिध्य में ही अयोध्या में रहकर विद्या अध्ययन करने लगे। उनकी बुद्धि बहुत प्रखर थी।

कुछ बर्षो बाद तुलसीदास काशी आकर शेष सनातन जी के आश्रम में पंद्रह बरसो तक वेद वेदांत का अध्ययन किया। इधर उनकी लोकवासना भी जाग उठी। और वे गुरु से आज्ञा लेकर वो अपनी जन्मभूमि लौट आये। वहा आकर उन्होंने पाया की उनका परिवार नष्ट हो चूका है। विधिपूर्वक अपने परिवार का श्राद्ध आदि संपन्न कर वही रहकर लोगो को भगवान राम की कथा सुनाने लगे।

काली अँधेरी रात में रत्नावली से मिलने के लिए निकल पड़े

उन्नतीस बरस की उम्र में यमुना नदी पार स्थित एक गाव की अति सुंदरी कन्या रत्नावली से उनका विवाह हुआ। तुलसी राम और रत्नावली का बहोत सुन्दर जोड़ा था। उनका विवाह तो हो गया था परंतु गौना नहीं हुआ था। जैसे की हम सभी जानते है की गौना विवाह के बाद का एक रस्म है जिसमे वर अपने ससुराल जाता है और कुछ रीतिरिवाज को पूरा करके अपनी वधु को साथ लेकर आता है। अर्थात गौना नहीं होने के कारण तुलसीदास जी काशी आकर वेद वेदांत के अध्ययन में लग गए।

वेद वेदांत का अध्ययन करते समय एक दिन अचानक तुलसीदास को अपनी पत्नी रत्नावली की बहोत याद आने लगी। और वो कामातुर हो अपने गुरु से आज्ञा लेकर राजापुर आ गए। रत्नावली अपने माइके में थी। क्योकि उनका गौना नहीं किया हुआ था। तुलसीदास जी काली अँधेरी रात में रत्नावली से मिलने के लिए निकल पड़े।

पत्नी रत्नावली को मिलने की जल्दी

उस समय बहोत तेज बारिश हो रही थी। तेज बारिश के कारण यमुना नदी पूरे उफान पर थी और वहा उस वक्त कोई नाव नहीं था। तभी अचानक तुलसीदास को यमुना में बहती आ रही एक लकड़ी का लठ्ठा दिखाई दिया। जो वास्तव में कोई लकड़ी नहीं बल्कि एक मृत शरीर था। उसी के सहारे तुलसीदास ने उफनती यमुना नदी को पार किया। और रत्नावली के घर तक पहोच गए। रत्नावली के घर के पास एक बड़े पेड़ पर एक रस्सी लटक रही थी। जो वास्तव में रस्सी नहीं वह एक साप था। उसके सहारे वो रत्नावली के कक्ष तक पहुँच गए।

तुलसीदास रत्नावली से मिलने के लिए इतने आतुर थे की उनको यमुना नदी में एक लाश के जगह एक लकड़ी और पेड़ पर लटक रहे साप की जगह रस्सी दिखाई दी।

जब रत्नावली ने उनको देखा तो वह भयभीत हो गई। और उनको कहा की वापस चले जाए क्योकि गौना नहीं होने के कारण वह नहीं मिल सकती। क्योकि इसके कारण इनकी लोकलज्जा पर सवाल उठेंगे। रत्नावली ने तुलसीदास को एक दोहे के माध्यम से शिक्षा दी।

वह दोहा इसी प्रकार है।

“अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति !

नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत ?”

इस दोहे के माध्यम से रत्नावली ने तुलसीदासजी को समझाया की आप इस हद मांस के शरीर से जितना प्रेम करते है यदि उसका आधा भी भगवान से करले तो आप भवसागर से पार हो जायेंगे। इस दोहे का तुलसीदासजी के जीवन पर इतना प्रभाव पड़ा की उन्होंने अपना पारिवारिक जीवन त्याग दिया। और गाव आ गए। वहा पर सधु बनकर लोगो को श्री राम कथा सुनाने लगे। और श्री राम की भक्ति में लीन हो गए।

तुलसीदास जी ने संपूर्ण भारत वर्ष में तीर्थयात्रा की थी। तुलसीदास जी द्वारकापूरीबद्रीनाथहिमालय और रामेश्वरम में लोगो के बिच जाके और वहा के लोगो के बिच में श्री राम का गुणगान करते अपना अधिकतर समय उन्होंने कशी, अयोध्या और चित्रकूट में व्यतीत किया, परंतु उसने अपने आखरी समय में काशी आ गए। वो अब श्री राम की भक्ति में लीन हो गए थे। वो हर समय उठाते बैठते श्री राम का नाम लिया करते थे।

रामचरितमानस की रचना

चित्रकूट के अस्सी घाट पर उन्होंने 1580 महाकाव्य रामचरित मानस लिखना शुरू किया। तुलसीदास जी ने इस ग्रंथ को दो वर्ष सात महीने 26 दिन में पूरा किया। कहा जाता है की रामचरितमानस महाग्रंथ को लिखने के लिए उनको हनुमानजी का मार्गदर्शन मिला।

तुलसीदासजी ने अपनी कई रचनाओ में यह उल्लेख किया है की उनकी हनुमानजी से साथ मुलाकात कई बार हुई है। वाराणसी में तुलसीदास जी ने हनुमानजी के लिए संकट मोचन हनुमान मंदिर स्थापित किया था। तुलसीदासजी के अनुसार उन्हें हनुमानजी ने आशीर्वाद दिया। जिसके कारण ही तुलसीदास को श्री रामजी के दर्शन प्राप्त हुए।

तुलासिदाजी ने अपनी रचनाओ में हनुमानजी के दर्शन के अलावा पार्वती और शिव के दर्शन का भी उल्लेख किया है।

तुलसीदास को राम लक्ष्मण के दर्शन होना

एक बार तुलसीदासजी कदम्बगिरी पर्वत की परिक्रमा करने निकले तो उन्होंने एक घोड़े की पीठ पर दो राजकुमार को बैठे हुए देखा, लेकिन उस समय वो उनकी पहेचान न कर सके। लेकिन थोड़े ही समय बाद जब उनको पता लगा की वो श्री राम लक्ष्मण थे तो वह बहोत दुखी हो गए।

इन सभी घटनाओ का उल्लेख उन्होंने अपनी रचना गीतावली में किया है। और हनुमानजी की कृपा से अगली सुभह जब तुलसीदासजी चंदन घिस रहे थे। तभी श्री राम और लक्ष्मण ने उनको फिर दर्शन दिए। और कहा की वे ये तिल्लक करे लेकिन तुलसीदासजी उनके दिव्यदर्शन में अभिभूत हो चुके थे। इस कारण वे तिल्लक करना भूल गए। फिर भगवान राम ने खुद अपने हाथो से तुलसीदासजी के माथे पर तिलक लगाया। तुलसीदासजी के जीवन का एक सुखद पल था।

इस घटना के लिए एक दोहा बहोत प्रसिध्द है।

‘‘चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीड़।
तुलसीदास चंदन घिसत और तिलक लैत रघुवीर।।’’

चित्रकूट में हुए इस चमत्कार के बारे में विनयपत्रिका में उल्लेख किया गया है। कहा जाता है की तुलसीदास का निधन किसी बिमारी के चलते हुआ था। और इन्होने अपने जीवन के अंतिम क्षण अस्सी घाट पर गुजारे थे। और ये भी कहा जाता है की उन्होंने अपने अंतिम समय में उनकी रचना विनयपत्रिका लिखी थी। और इसी रचना पर भगवान श्री राम ने अपने हस्ताक्षर भी किये थे।

विनयपत्रिका को पूरा लिखने के बाद 1623 ई.स, (संवत 1680) में तुलसीदासजी का देवलोक गमन हो गया।

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